वैशाख माह की पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा के साथ साथ भगवान विष्णु के द्वितीय अवतार की भी तिथि है। विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने देवताओं की रक्षा के लिए यह अवतार लिया था। इस अवतार की कथा इंद्र के घमंड से आरम्भ होती है। एक दिन शंकर के अंशावतार श्री दुर्वासा ऋषि पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में एक अत्यंत दिव्य माला देखी। ऋषि ने वह माला विद्याधर सुन्दरी से मांग ली।
फिर उस सुन्दरी ने उन्हें वह माला दे दी। और वह उस माला को मस्तक पर डालकर विचरण करने लगे। इसी समय उन्होंने उन्मत ऐरावत हाथी पर बैठे शचीपति इंद्र को देखा। उन्हें देखकर महर्षि दुर्वासा ने वह अत्यंत सुन्दर एवं सुगन्धित माला देवराज इंद्र के ऊपर फेंकी। देवराज ने उसे लेकर ऐरावत के गले में डाल दिया। परन्तु ऐरावत ने उस माला को फेंक दिया।
यह देखकर महर्षि दुर्वासा अत्यंत कुपित हुए एवं उन्होंने क्रोध में इंद्र से को श्राप देते हुए कहा कि हे इंद्र, अपने ऐश्वर्य के मद में तू बहुत उन्मुक्त हो गया है। तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरी दी गयी माला का भी सम्मान नहीं किया। अब जा तेरा त्रिलोकी वैभव नष्ट हो जाएगा।
इंद्र यह सुनकर अपने ऐरावत से उतर कर आए। एवं क्षमा याचना करने लगे। परन्तु महर्षि दुर्वासा ने कहा कि वह कृपालु चित्त नहीं हूँ। अत: नहीं क्षमा कर सकता। ऐसा कहकर वह चले गए एवं इंद्र अपने धाम चले गए। जैसे जैसे इस श्राप का प्रभाव बढना आरंभ हुआ, वैसे वैसे लोगों के भीतर यज्ञ करने की क्षमताएं कम होने लगीं। और जैसे ही यज्ञ छूटे वैसे ही लोक सत्वशून्य हो गया। जहां सत्व नहीं हैं वहां लक्ष्मी नहीं हैं। बिना गुणों के व्यक्तियों के पास लक्ष्मी नहीं रहतीं। अत: धीरे धीरे लक्ष्मी जी ने देवताओं का साथ छोड़ दिया/
जैसे ही लक्ष्मी जी ने देवताओं का साथ छोड़ा, वैसे ही दैत्यों ने लाभ उठाकर देवों पर आक्रमण कर दिया। और भागे भागे इंद्र सहित सभी देव ब्रह्मदेव के पास भागे एवं समाधान पूछा। परमपिता ब्रह्मा ने कहा कि मात्र भगवान विष्णु ही कुछ कर सकते हैं, क्योंकि वही लक्ष्मी पति हैं। सभी देव ब्रह्मा जी के साथ विष्णु के पास पहुंचे।
वहां पहुंचकर सभी ने उनकी स्तुति की एवं प्रभु से उनके कष्ट हरने के लिए कहा। उन सभी की समवेत प्रार्थना सुनकर प्रभु प्रकट हुए और यह देखकर देव प्रसन्न हो गए। उन्होंने भगवान के सुन्दर रूप की स्तुति करनी आरम्भ कर दी एवं कहा कि वह शरणागतों की रक्षा करें। विनीत देवताओं की यह स्तुति सुनकर प्रभु प्रसन्न हो गए। और कहा कि हे देवगण मैं तुम्हारे तेज को बढ़ाऊंगा, इस समय आप लोग जाइए दैत्यों को किसी प्रकार सागर मंथन के लिए तैयार करें। फिर आप लोग मिलकर सागर से रत्न निकालियें और फिर अमृत के निकलने पर वह देवताओं में बंटेगा। यह सुनकर देवता प्रसन्न हो गए और उन्होंने मंदरांचल पर्वत की मथनी बनाई और फिर वासुकि नाग की नेति बनी।
इस सागर मंथन की योजना तो बन गयी, परन्तु इतने बड़े पर्वत को कहाँ टिकाया जाए, यह समस्या थी।
सागर मंथन को सफल बनाने के लिए एवं लक्ष्मी जी को पुन: पाने के लिए प्रभु एक विश्वाल कछुए का रूप रखकर आए। और फिर उन्होंने उस विशाल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया। वासुकि नाग का ऊपरी हिस्सा दैत्यों के हाथ आया और पूंछ देवों के पास।
जैसे जैसे सागर मंथन होना आरम्भ हुआ, वैसे वैसे रत्न निकलते गए। सर्वप्रथम कामधेनु स्वर्ग पहुँची, फर फिर धीरे धीरे रत्न स्वर्ग में जाने लगे। चंद्रमा निकले, जिन्हें भगवान श्री शिव ने केशों में धारण किया। और फिर खूब मथने के बाद विष निकला, जिसे प्रभु शिव ने पी कर जगत की रक्षा की। इसी सागर मंथन से लुप्त हुई लक्ष्मी जी प्रकट हुईं। यह देखकर जगत में सभी में हर्ष की लहर दौड़ गयी।
उसके बाद श्वेत वस्त्रों में धन्वन्तरी हाथ में कलश लेकर प्रकट हुए। उसी कलश में अमृत था। उस अमृत को देवताओं को पिलाने के लिए भगवान श्री विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया तथा समस्त देवताओं के मध्य अमृत वितरित किया।
देवताओं के अमृत पीते ही एवं माता लक्ष्मी के सागर मंथन से प्रकट होने के साथ ही प्रभु श्री विष्णु के उस अवतार का उद्देश्य पूर्ण हुआ तथा वह अपने धाम चले गए।
कूर्म पूर्णिमा हिन्दुओं के लिए अत्यंत ही पवित्र माना जाता है। भगवान श्री विष्णु के इस अवतार की कथा में लक्ष्मी जी का महत्व विशेष रूप से इंगित है कि कैसे प्रकार के पुरुषों के पास लक्ष्मी नहीं निवास करती हैं। वह उन्हीं के पास निवास करती हैं। जो पुरुषार्थ करते हैं एवं धर्म के कार्य करते हैं। सागर मंथन के उपरान्त प्रकट हुई लक्ष्मी जी की इंद्र ने आराधना की एवं स्तुति गान किया। कहते हैं कि इस स्तुति को जो कोई भी व्यक्ति गाता है लक्ष्मी जी कभी उससे दूर नहीं जाती हैं, कभी उनके घर निर्धनता का वास नहीं होता।
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