इन दिनों भारत से लेकर विदेश तक हिन्दू धर्म या सनातनी संस्कृति की बात करने वाली या उस विचार वाली स्त्रियों के लिए एक अजीब सा दृष्टिकोण बन रहा है। वामपंथी विचारधारा वाली औरतों ने हिन्दू स्त्रियों को जैसे पिछड़ा घोषित कर दिया है। जो वह कहती हैं, वही जैसे क्रांतिकारी कदम होता है। हाल ही में मंदिरा बेदी ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया था और जिसे लेकर कहा गया कि हिन्दू धर्म का पितृसत्तात्मक चेहरा तोड़ने का प्रयास किया है, बेड़ियों को तोड़ा है आदि आदि! परन्तु क्या यह सत्य है कि हिन्दू धर्म में स्त्रियों को अधिकार नहीं है या फिर हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ ऐसा कुछ कार्य नहीं कर रही हैं?
दरअसल ऐसा नहीं है, सनातनी विचारों वाली स्त्रियाँ ही आगे बढ़ रही हैं, वह अपने समाज में कुछ ऐसे मापदंड स्थापित कर रही हैं, जिनकी तुलना कहीं नहीं हैं, परन्तु फिर भी उनका नाम कहीं कोने में छिपा हुआ रह जाता है। आज जब डिस्मेंलिंग हिंदुत्व के नाम पर जो अमेरिका में कांफ्रेंस हुई, उसमें भी हिन्दू धर्म को मानने वाली स्त्रियों पर चर्चा हुई और कहा कि वह चैरिटेबल कार्य करती हैं और इससे हिंदुत्व मजबूत होता है। ऐसे कौन से चैरिटेबल कार्य हैं या फिर क्या सोचकर ऐसे कार्य किए जाते हैं। क्या ऐसी नायिकाएँ हमारे मध्य हैं? स्पष्ट है कि हमारे ही मध्य हैं, जिनके कार्यों की गूँज, यहाँ ही नहीं है, पूरे देश में हैं।
ऐसी ही एक नायिका हैं, डॉ लक्ष्मी गौतम, वृन्दावन से! वैसे तो वृन्दावन की पहचान हम सभी के लिए एक मधुर संगीत की है, मगर वहीं पर डॉ लक्ष्मी गौतम, एक ऐसा कार्य कर रही हैं, जिसके विषय में कोई सहज नहीं सोच सकता है। वह हर बुजुर्ग के दर्द को अपना दर्द समझती हैं और इससे भी अधिक वृन्दावन में सड़क पर किसी भी महिला का दर्द उनसे नहीं देखा जाता, समाज सेवा के तमाम कार्यों को करने के साथ ही जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह यह कि मोक्ष की चाह में वृन्दावन आई हुई तमाम अनाथ माताओं का पूरे धार्मिक विधि विधान से अंतिम संस्कार करवाना।
हिन्दू पोस्ट ने उनके इस कार्य के विषय में उनसे बात की थी। डॉ लक्ष्मी गौतम की ध्वनि में एक ऐसी ऊर्जा है जिसे मात्र अनुभव किया जा सकता है। हम उनके साथ की गयी बातचीत के मुख्य अंश अपने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं। जब हमने उनसे यह प्रश्न किया कि यह विचार उनके हृदय में कैसे आया कि इन अनाथ माताओं का अंतिम संस्कार धार्मिक विधि विधान से कराना है और एक स्त्री ही सारा कुछ कर रही है, तो क्या जैसा कहा जाता है कि हिन्दू धर्म की ओर से उनका विरोध हुआ या फिर स्वागत हुआ? उनकी यात्रा कैसे आरम्भ हुई और कैसे आगे बढ़ी?
डॉ लक्ष्मी गौतम के हम आभारी हैं कि उन्होंने खुलकर अपने इस कार्य के विषय में बात की और कहा कि कड़े निर्णय कुछ असहज स्थितियों में ही लिए जाते हैं। फिर उन्होंने कहा “मेरा जन्म वृन्दावन में ही हुआ था और बचपन से ही मैं ऐसी माताओं को देखती थीं, जिनके बाल या तो कटे होते थे या फिर वह सिर घुटाकर रहती थी, कभी सफेद साड़ी पहने होती थी। फिर जब मैं बड़ी हुई थोड़ा, तो मेरे पिता ने मुझे बताया कि यह विधवा माताएं हैं, और विशेषकर पश्चिम बंगाल से आई हुई विधवा माताएं थीं। उन्हें सादा भोजन दिया जाता था, और उन्हें धार्मिक आयोजनों से दूर कर दिया जाता था। यह सुनते ही मेरा मन द्रवित होने लगा और मन दुःख से भर गया। और मैं कभी समझ में नहीं आया कि कैसे इतना तिरस्कार हो सकता है स्त्रियों का।
फिर मैं वर्ष 1995 में सभासद हुई तो, मैंने देखा कि वृन्दावन में ऐसी स्त्रियों की संख्या बहुत है, जो या कुछ तो आश्रमों में रहती हैं या फिर कुछ किराए की कोठरी में रहती हैं। कुछ मंदिरों के दरवाजों पर पड़ी रहती हैं। कुल मिलाकर कहा जाए कि स्थिति चिंताजनक ही थी।”
हमने उनसे पूछा कि अंतिम संस्कार की बात उनके मस्तिष्क में क्यों और कैसे आई तो उन्होंने कहा कि उन्हें यह बार बार लगता था कि यह जो स्त्रियाँ यहाँ रहती हैं, उनके देहांत के बाद उनकी देह का क्या होता है? वह कहती हैं कि उन्होंने एक बंगाली स्त्री से ही बंगाली में पूछा कि मरने के बाद आपकी साथियों का क्या होता है? तो उस स्त्री ने जो उत्तर दिया, उसने उन्हें हिलाकर रख दिया। उन्होंने कहा कि उन माता ने कहा कि स्वीपर आता था और बोरे में डालकर ले जाता था। यह सुनते ही वह कहती हैं कि वह भीतर तक हिल गईं, उनका हृदय एक पीड़ा से कांप उठा। मोक्ष की चाह में आई हुई स्त्रियों को अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं!
फिर उन्होंने रिपोर्ट बनाकर भेज दी। डॉ लक्ष्मी कहती हैं कि स्पष्ट था कि रिपोर्ट पर हंगामा तो होना ही था। पर उस रिपोर्ट के बाद यह नियम बना कि हर माता का अंतिम संस्कार पूर्ण विधि विधान से होगा और वीडियोग्राफी भी की जाएगी। पर वह आश्रमों में रहने वाली माताओं के लिए थी।
पर वह कहती हैं कि इस घटना ने उनके जीवन को एक नई दिशा दे दी और उसी क्षण उनके हृदय में एक संकल्प उत्पन्न हुआ कि आज के बाद यदि कोई भी माता इस प्रकार अंतिम संस्कार से वंचित नहीं रहेंगी। और फिर उन्होंने बताया कि जो माताएं मंदिरों के बाहर बैठी रहती थीं, या जो कोठरी में रहती थीं या जो सड़कों पर ही कहीं सो जाती थीं, जब उनके देहांत की सूचना उन्हें स्थानीय लोगों से, पुलिस से या फिर आस पड़ोस से मिलने लगी तो उनका यह कार्य औपचारिक रूप से आरम्भ हो गया।
फिर उन्होंने कहा कि उन्होंने चिता बनानी सीखी और यह कार्य वह वर्ष 2011 से कर रही हैं।
जब हमने पूछा कि महिला होने के नाते क्या समस्या आईं तो उन्होंने कहा कि वैसे तो कई समस्याएं थीं, परन्तु लोग नाम के लिए जुड़ना चाहते थे, यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। क्योंकि मेरे कार्य में सेवा भाव सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि कई बार ऐसा होता है कि किसी माता की मृत्यु हुई है, एवं सड़क पर देह पड़ी है, कहीं से पस बह रहा है, कहीं से खून, तो ऐसे में मात्र फोटो खिंचाने वालों की उन्हें आवश्यकता नहीं थी।
जब हमने पूछा कि आपको धार्मिक विरोध कितना सहना पड़ा तो उन्होंने कहा कि हर लीक से हटकर कार्य करने वाले को विरोध का सामना तो करना ही होता है। पर फिर भी उन्होंने चुनौतियों की परवाह नहीं की। वह कहती हैं कि वह अंतिम संस्कार के बाद जो तेरह दिन बाद वाला शुद्धिकरण कार्यक्रम भी करती हैं। उन्होंने कहा कि यह कितना विडम्बनापूर्ण था कि स्त्री को सम्मानजनक मृत्यु भी प्राप्त न हो। यह तो उसका अधिकार है।
हम अपने पाठकों को यह बताते चलें कि डॉ लक्ष्मी गौतम के कार्य को स्वयं प्रधानमंत्री मोदी सराह चुके हैं, एवं कई सम्मानों के साथ साथ उन्हें नीति आयोग, यूएन वीमेन और मायजीओवी की वेबसाईट पर कराई गयी ऑनलाइन वोटिंग के आधार पर देश भर की 12 महिलाओं में चुना गया था। हमारे पाठक यह भी जानें कि वर्ष 2015 में डा. लक्ष्मी गौतम को राष्ट्रपति की ओर से नारी शक्ति अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। 2014 में उन्हें एसोचेम लेडीज पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। पुरुषों का भी अंतिम संस्कार अब वह करने लगी हैं। वह कहती हैं कि इस्कोन के विदेशी भक्त, जो मोक्ष की चाह लिए यहाँ पता देह त्याग देते हैं, उनके भी अंतिम संस्कार वह विभिन्न दूतावासों से अनुमति लेकर करती हैं।
एक घटना का उल्लेख करते हुए वह कहती हैं कि एक मुस्लिम कृष्ण भक्त, जिसने कृष्ण भक्ति के सब कुछ छोड़ दिया था, वह अपनी अंतिम इच्छा लिखकर गया कि उसका अंतिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाज से किया जाए तो उन्होंने ही उस व्यक्ति का हिन्दू संस्कार किया क्योंकि उसने सनातन अपना लिया था। वैसे तो वह गुजरात में था, मगर जब उसे पता चला कि उसे कैंसर है तो वह अंतिम क्षणों में मुक्ति की चाह लिए वृन्दावन आ गया था और अपनी वसीयत में यह इच्छा लिखकर गया था।
जब उनसे यह पूछा गया कि अब तक उन्होंने कितनी माताओं का अंतिम संस्कार किया है, तो उन्होंने कहा कि संख्याएं वैसे तो उन्हें याद नहीं, परन्तु कम से कम 500 माताओं का अंतिम संस्कार तो किया ही है! फिर हंसकर कहती हैं, कि संख्या क्या गिनना!
डॉ लक्ष्मी गौतम के कार्य यह बताते हैं कि हिन्दू धर्म में किसी भी ऐसे कदम के लिए कोई टैबू या विरोध नहीं है, जो जनकल्याण की भावना से किया जाता है। डॉ लक्ष्मी गौतम का कार्य निस्वार्थ सेवा का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें वह दिन और रात नहीं देखतीं और बस अपने वृन्दावन की माताओं को सम्मानजनक अंतिम संस्कार का अधिकार दिलाने के लिए निकल पड़ती हैं।
और एक ओर बुलबुले की तरह वामपंथी फेमिनिज्म है, जो मात्र इंडीविज़ियुलटी की बात करता है और जनकल्याण की भावना से पूर्णतया अछूता है।, जबकि डॉ लक्ष्मी गौतम जैसी स्त्रियों के लिए जनकल्याण ही जीवन का उद्देश्य है, और यह ओढ़ा हुआ नहीं है, यह उनके आचरण में हैं
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