दिल्ली विश्वविद्यालय से एक बहुत महत्वपूर्ण समाचार आया है और वह है दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष का पद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन ने जीत लिया है। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद में एनडीटीएफ-आरएसएस समर्थित प्रत्याशी एडवोकेट मोनिका अरोड़ा की जीत हुई थी।
अब दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष पद के चुनाव में भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े एक संगठन ने बाजी मार ली है और डूटा में पूरे 24 साल बाद भगवा ध्वज लहराया है।
कहने को यह शिक्षक संघ का चुनाव था, पर इसकी महत्ता किसी भी चुनावों से कम नहीं है। यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि पिछले कई वर्षों में डूटा एक राजनीतिक टूल की तरह मात्र सरकार विरोधी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा था। दिल्ली के केंद्र सरकार का विरोध करने के साथ ही एक विशेष विचारधारा की शिक्षिकाओं का एबीवीपी के विद्यार्थियों को लेकर भी सोशल मीडिया पर रुख बहुत अजीब रहता था।
ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह कोई राजनीतिक पार्टी बन गया है। इस वर्ष जीते हुए ए के भागी पिछली बार भी बहुत मामूली अंतर से ही वाम विचारधारा वाले डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के राजीब रे से पराजित हुए थे। उनसे पहले डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट की नंदिता नारायण डूटा की अध्यक्ष थीं।
नंदिता नारायण के कार्यकाल में कई बार विवाद हुए थे और वह केंद्र सरकार की घोर विरोधी थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार सभी विश्वविद्यालयों का कबाड़ा कर रही है। और वह अपने विवाद लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय भी चली गयी थीं।
उनके शासनकाल में कई बार विवाद हुए थे और यह भी आरोप लगे थे कि “आजादी” के नारे लगाने वाले विद्यार्थी सक्रिय हो रहे हैं। वर्ष 2016 में नंदिता नारायण ने एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष सतेन्द्र अवाना पर अभद्रता का आरोप लगाया था जबकि सतेन्द्र के अनुसार उनके साथ ही “भारत माता की जय” बोलने पर अभद्रता की गयी थी।
उसी दौरान विवाद के केंद्र में आए जेएनयू के विद्यार्थी और अब कांग्रेस के नेता कन्हैया कुमार की रिहाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में मार्च निकाला गया था।
दिल्ली विश्व विद्यालय की प्रोफ़ेसर डॉ. प्रेरणा मल्होत्रा का कहना है कि विगत कई वर्षों से डूटा में राजनीतिक गतिविधियाँ अधिक होने लगी थीं। और उन्होंने बताया कि कैसे डूटा ने अपने एक विरोध प्रदर्शन में कन्हैया कुमार को बुला लिया था। और उन्होंने ही इसका विरोध किया था। उन्होंने उसका माइक छीन कर उसे बोलने नहीं दिया था।
इन चुनावों की महत्ता इस बात से भी समझी जा सकती है कि इसमें पूर्ववर्ती अध्यक्षों द्वारा सरकार से तो सकारात्मक बात होती नहीं थी, बल्कि विरोध पुरजोर होता था। जैसे पूर्व अध्यक्ष राजीब रे नई शिक्षा नीति के विरोध में थे। और साथ ही अभी हाल ही में माओवादी संबंधों को लेकर दोषी ठहराए गए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. जीएन साईबाबा की बर्खास्तगी के विरोध में भी डूटा ने लिखा था।

अत: यह समझा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों से शिक्षकों के मुद्दे उठाने से अधिक महत्वपूर्ण हो गया था डूटा के लिए सरकार का राजनीतिक विरोध। और यही विरोध विद्यार्थियों में भरना। राष्ट्र उनके लिए गौण हो गया था और राजनीतिक विरोध अधिक।
सूत्र यह भी बताते हैं कि यह चुनाव मात्र शिक्षक संघ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साथ ही यह पूरे नेटवर्क को परिलक्षित करते हैं। वाम विचारधारा वाले अध्यक्ष विश्वविद्यालय में तमाम तरह के विमर्शों पर चर्चा के लिए उन्हीं लोगों को आमंत्रित करते हैं, जो उनके विचार के दायरे में आते हैं। विमर्श को वह चंद मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित कर देते हैं और किसी भी आयोजन में हर तरह के लाभों को वह अपने विचार वालों को ही देना पसंद करते हैं। यही प्रवृत्ति और रुझान लगभग हर विश्वविद्यालय में देखा जाता है। तभी अकादमिक विमर्श में ऐसे ही विषय छाए रहते हैं, जिनकी मूल प्रवृत्ति हिन्दू या कहें मूल भारतीय दर्शन के विरोध में होती है।
यही कारण है कि यह चुनाव शिक्षक संघ के होते हुए भी इतने महत्वपूर्ण थे। पहले मोनिका अरोड़ा, जिन्होंने दिल्ली दंगे, एवं लव जिहाद जैसे विषयों पर किताबें लिखी हैं और जो उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता हैं, उनकी कार्यकारी परिषद में जीत और अब श्री ए के भागी की जीत यह सुनिश्चित करेगी कि अब विमर्श एकतरफा और एकरंगा नहीं होगा। विश्वविद्यालय में “कन्हैया कुमार” जैसे लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पोषण नहीं होगा और शिक्षक संघ अब वास्तव में शिक्षकों के लिए कार्य करेगा!
तभी हर चुनाव इतना महत्वपूर्ण होता है और शिक्षक संघ का इसलिए और भी अधिक क्योंकि इससे विमर्श की दिशा निर्धारित होती है एवं विमर्श से ही आने वाले भविष्य का निर्माण होता है।