आर माधवन की फिल्म रॉकेट्री, जो भारत के लिए हर सीमा तक गुजर जाने वाले देशभक्त वैज्ञानिक श्री नम्बी नारायण जी की जीवन गाथा है, में जब वह दृश्य आता है जब उन्हें भारत के राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविंद जी के हाथों पद्म पुरस्कार प्रदान किया जा रहा था, तो पूरे हॉल में अचानक से तालियाँ बजने लगती हैं। कई लोग खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। यह तालियाँ और आंसू एवं असहज सन्नाटा ही इस फिल्म की सफलता है।
रॉकेट्री फिल्म कई प्रश्न खड़े करती है, कई असहज करने वाली जिज्ञासाओं को जन्म देती है तो वहीं हमें कई स्तरों पर कचोटती है। प्रश्न वह है जो एक भारतीय होने के नाते हर व्यक्ति को स्वयं से पूछना चाहिए, और जिज्ञासा हर मीडिया चैनल से होनी चाहिए कि आखिर इतना बड़ा झूठ? क्यों? मीडिया का कार्य है सत्य की तह तक जाना, परन्तु क्या इस मामले में मीडिया कभी सत्य की तह तक गया? नहीं! फिल्म इसलिए कचोटती है, क्योंकि यह हमारे भीतर यह अपराधबोध जगाती है कि ऐसी फ़िल्में उस कथित सेक्युलर ठहरी बदबूदार दुनिया में क्यों नहीं बनती, जिसे हम हिन्दी फिल्म उद्योग कहते हैं?
एक महान वैज्ञानिक, जिनका पूरा जीवन एक झूठ के कारण नष्ट हो गया
यूं तो भारत में वैज्ञानिकों की रहस्यमयी मृत्यु का सिलसिला पुराना है। परन्तु यह मामला इसलिए अलग था क्योंकि नम्बी नारायण के बहाने भारत के पूरे अंतरिक्ष अभियान एवं वैज्ञानिकों की देश के प्रति निष्ठा को ही कठघरे में खड़ा करने का कुप्रयास किया गया। इस फिल्म में बताया है कि कैसे उन्होंने अपने प्राणों पर खेलकर देश के लिए क्रायोजेनिक इंजन की व्यवस्था की, कैसे उन्होंने वर्षों के श्रम के बाद पूरी टीम के साथ मिलकर फ्रांस से लिक्विड इंजन की तकनीक सीखी।
कैसे उन्होंने अपने परिवार से ऊपर अपने देश और कार्य को रखा, उन्होंने नासा का लाखों डॉलर का प्रस्ताव ठुकरा दिया, और उन्हें उसके बदले में क्या मिला? उनके साथ जो भी हुआ, उसकी पीड़ा इस फिल्म के एक दो संवादों में दिखाई देती है, जब नम्बी नारायण जमानत पर छूटकर इसरो के कार्यालय में जाते हैं, तो उनके साथी यह कहते हैं कि इस देश के बेस्ट माइंड्स का प्रयोग तो विदेशी कर रहे हैं, और फिर दूसरे साथी कहते है कि ठीक ही तो है, कम से कम उन्हें अवसर तो मिल रहा है अपनी प्रतिभा दिखाने का।
फिर ऐसी क्या बात है कि भारत में प्रतिभा दिखाने पर झूठे मामलों में फंसा दिया जाता है? इसी क्यों का उत्तर अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। नम्बी नारायण जी, जिनके साथ यदि यह सब नहीं हुआ होता तो वह भारत की अन्तरिक्ष यात्रा को वहां कब का लेकर पहुँच जाते, जहां पर वह बहुत देर से पहुंचा, और साथ ही यदि उन्हें झूठे मामले में फंसाया नहीं जाता तो वह इसरो के प्रमुख बनकर ही रिटायर होते।
परन्तु उन्हें एक ऐसे मामले में फंसाया गया था, जो पूरी तरह से झूठ था। सीबीआई को जिस मामले का एक भी प्रमाण नहीं मिला।
कई स्थानों पर रोंगटे खड़ी करती है फिल्म:
वैसे तो किसी की पिटाई फिल्मों में देखा जाए तो दया या संवेदना उत्पन्न होती है। परन्तु जब नम्बी नारायण की पिटाई कथित आईबी के अधिकारियों ने की, तो क्रोध की एक लहर जैसे लोगों की देह में दौड़ जाती है, क्योंकि उससे पहले वह देख चुके थे कि कैसे वह नासा की नौकरी ठुकरा चुके थे, कैसे वह प्राणों पर खेलकर अपने देश के लिए क्रायोजेनिक इंजन लाए थे, और कैसे वह हर संभव प्रयास कर रहे थे कि भारत उस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाए!
जैसे ही आईबी के अधिकारियों द्वारा नम्बी नारायण को पीटने का दृश्य आता है, वैसे ही दर्शक पूरी तरह से कई प्रश्नों में घिर जाते है और इस आशंका में भी कि क्या वास्तव में देश में रहकर काम करने का निर्णय इतना भयावह है? क्या यह सुरक्षित रास्ता है कि बाहर नासा आदि की नौकरी कर ली जाए, बजाय देश में रहकर कार्य किया जाए!
फिर दर्शक धीरे धीरे कार्य के प्रति जूनून से हटकर उस षड्यंत्र और पीड़ा से परिचित होते हैं, जो नम्बी नारायण जी ने झेली। आर माधवन ने नम्बी नारायण जी को जैसे पूरी तरह से जिया है, वह वही हो गए हैं। पूरी फिल्म में कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि आर माधवन अभिनय कर रहे हैं। उन्होंने नम्बी नारायण जी को आत्मसात ही जैसे कर लिया है।
जब अपने किसी परिचित के विवाह में सार्वजनिक उपेक्षा झेलने के उपरान्त फोन की घंटी बजती है जिसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा उन्हें निर्दोष साबित किए जाने का निर्णय आता है, तो उस क्षण शायद ही कोई होगा, जो अपने आंसू रोक सके!
यह फिल्म ऐसी फिल्म है जिसे आने वाले समय में एक ऐसे जीवन को पूरे देश के सम्मुख लाने के लिए याद रखा जाएगा, जिसे छल और षड्यंत्रों के मध्य दबा ही गया था। उनकी पत्नी की मानसिक पीड़ा को देश के सामने लाने के लिए याद रखा जाएगा, कि किस प्रकार उनका मानसिक संतुलन खो गया था! सरल नहीं है उस चीख को भुला पाना!
हिन्दू प्रतीकों के प्रदर्शन से बॉलीवुड की लॉबी नाराज है
बॉलीवुड की सेक्युलर लॉबी इस फिल्म से इसलिए भी नाराज है कि आर माधवन ने किसी भी प्रकार से उस सेक्युलरिज्म का तडका नहीं लगाया है, जो बॉलीवुड अक्सर करता रहता है। न ही हिन्दू धर्म को गाली दी गयी है, न ही नम्बी नारायण जी अपने बुरे दिनों में भगवान को कोसते हैं, बल्कि वह अपना विश्वास और गहरा जैसे कर लेते हैं।
जब-जब उनपर हिंसा होती है तब वह “भगवती” को स्मरण करते हैं। बॉलीवुड फिल्म की तरह वह स्वयं के साथ हुई इस व्यवस्थात्मक हिंसा के चलते हथियार नहीं उठाते, वह देश में आग लगाने की बात नहीं करते, बल्कि वह जमानत मिलने के बाद, न्याय पाने का निर्णय करते हैं। वह संवैधानिक माध्यम से स्वयं पर लगा हुआ जासूस का दाग मिटाना चाहते हैं। इसके लिए वह न्यायालय की शरण में जाते हैं, एवं विजयी होते हैं।
यह जीत उनकी ही जीत नहीं है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति की जीत है जो अपने देश से प्रेम करता है और जिसे अपने देश को आगे लेकर जाने का जूनून है, परन्तु वह भी किसी के षड्यंत्र में फंस जाता है।
सूत्रधार के रूप में शाहरुख खान जब उनसे क्षतिपूर्ति की राशि के विषय में पूछते हैं तो उस समय इस फिल्म में आर माधवन ने बहुत शानदार प्रयोग करते हुए नम्बी नारायण जी को ही दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है, वह सही उत्तर देते हैं कि मुआवजा इसलिए चाहिए जिससे यह जो दाग उन पर लगा है, वह हमेशा के लिए हट सके, क्योंकि यदि उन्होंने कम राशि पर समझौता कर लिया तो कहीं न कहीं लोग यह कहेंगे कि कुछ तो गलती रही होगी, जिससे समझौता कर लिया।
फिल्म के अंत में नम्बी नारायण जी अपना दोपहिया वाहन चलाकर घर आ जाते हैं!
यह फिल्म व्यवस्था और उस षड्यंत्र पर तो प्रश्न उठाती ही है, जो नम्बी नारायण जी के साथ हुआ, और अभी तक उस नाटक के सूत्रधार का पता नहीं चला है जिसने यह आरोप लगाया कि मालदीव की दो लड़कियों के साथ दैहिक सम्बन्ध बनाने के बदले में नम्बी जी ने अपने देश के गोपनीय दस्तावेज पाकिस्तान को बेच दिए।
उसके बाद वह स्थानीय राजनीति के शिकार हुए! तो क्या यह मामला राजनीतिक वर्चस्व का था या फिर यह मामला अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र था?
यह क्या था, जब तक यह सत्य सामने नहीं आता तब तक तमाम प्रश्न सिर उठाए ही खड़े रहेंगे, परन्तु यह फिल्म एक ऐसी गाथा है, जिसे वर्षों तक स्मरण रखा जाएगा!