उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत ने प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते ही जैसे एक विवाद को जन्म दे दिया। वह विवाद कहने को तो एक वस्त्र विशेष से जुड़ा हुआ था, परन्तु वह धीरे धीरे वामपंथियों के हाथ में न केवल भाजपा बल्कि पूरे हिन्दू समाज को कोसने का आधार बन गया। बलात्कार में राजस्थान आज शीर्ष पर पहुँच गया है और फिर भी साहित्यकारों के मुंह पर ताले हैं।
भाजपा परिवार से सम्बंधित हर व्यक्ति के हर वक्तव्य को वाम मीडिया अपने अनुसार तोड़ता मरोड़ता है और फिर जानबूझकर उसे पूरी स्त्री प्रजाति के विरुद्ध कर दिया जाता है और इस बहाने पूरी भाजपा और हिन्दू संस्कृति को पिछड़ा घोषित कर दिया जाता है। सर्वाधिक विरोधाभास तो एक विशेष विचारधारा का संवाहक बनी स्त्रियों को देखकर लगता है, कि अपनी ही प्रिय पार्टी के द्वारा किए गए यौन अपराधों पर शांत रहती हैं। ऐसा क्यों होता है कि कांग्रेस और वामदलों के नेताओं द्वारा की गयी आपत्तिजनक टिप्पणियों पर मौन रहने वाली पूरी जमात एकदम से ही भाजपा के एक मुख्यमंत्री के खून की प्यासी हो जाती है?
यह सत्य है कि सरकार या मुख्यमंत्री का यह कार्य नहीं होता कि वह वस्त्रों पर टीका टिप्पणी करे और फिर उसीके साथ वह संस्कारों की बात वस्त्रों तक ले आएं। सरकार का कार्य होता है प्रशासनिक कार्य करना। क़ानून बनाना और उन्हें लागू करना। यदि यह क़ानून है कि ऐसे वस्त्र नहीं पहने जाएंगे तो ठीक है कि सरकारी पद पर आसीन कोई व्यक्ति यह कह सकें कि ऐसे वस्त्र नहीं पहनने चाहिए क्योंकि यह कानूनन अपराध है। परन्तु जब कोई बात क़ानून की दृष्टि से अपराध नहीं है तो कोई एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को नैतिक पुलिसिंग नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से आपके समक्ष दो खतरे हो जाते हैं।
प्रथम तो यह कि जैसे ही आप वस्त्र और संस्कार को आपस में जोड़ते हैं तो वैसे ही आपकी संस्कृति ही प्रश्नों के दायरे में आ जाती है। यह कहा जाने लगता है कि क्या आपकी संस्कृति इतनी दुर्बल है कि वह चंद कपड़ों से ही पराजित हो गयी? जबकि स्थिति इसके विपरीत है। स्त्रियों के क्षेत्र में भारत इतना उन्नत था कि रामायण काल में भी स्त्रियों की अपनी नाट्य मंडलियाँ हुआ करती थीं। वह वस्त्रों के मामले में अधिक आग्रही नहीं था। और इसके उदाहरण हमें अपनी मूर्तियों आदि में अभी भी दिख जाते है।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में श्लोक है:
वधू नाटक सन्घैः च संयुक्ताम् सर्वतः पुरीम् ।
उद्यान आम्र वणोपेताम् महतीम् साल मेखलाम्
अर्थात उस नगरी में स्त्रियों की नाट्य समितियाँ भी बहुतायत में थीं और उद्यानों एवं बागों से यह नगरी परिपूर्ण थी।
हमारे यहाँ तो हर काल में स्त्री उन्मुक्त रही है, काम यहाँ पर पवित्र रहा है। वस्त्र को लेकर संस्कार के साथ नाता कम रहा है। हाँ बदलते समय के साथ हमारी उन्मुक्त संस्कृति भी अब्राह्मिक मज़हब के कट्टर पंथ का शिकार हो गया और उन्मुक्तता से भरी संस्कृति मात्र ऊपरी आवरणों का शिकार हो गयी। जिस देश की संस्कृति में काम के लिए एक अलग से ही देवता और शास्त्र हों, जिस देश में अंग्रेजों के आगमन तक ही वनवासी स्त्रियों में देह के ऊपरी अंगों पर वस्त्र पहनने की परम्परा नहीं थी, उस देश में वस्त्रों के आधार पर संस्कार पर निशाना साधना कुछ आपत्तिजनक हो सकता है।
यही कारण है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत की चौतरफा आलोचना होने लगी।
परन्तु जो सबसे बड़ा खतरा ऐसे बयानों से होता है कि सबसे उन्नत संस्कृति को वह लोग पिछड़ा घोषित करने लगते हैं, जिनके यहाँ अभी कुछ ही सदी पूर्व तक डायन मानकर औरतों को मार दिया जाता था। जैसे ही इस प्रकार के वक्तव्य आते हैं, वैसे ही वह लोग, जो अपने मज़हब की औरतों के तमाम अधिकारों पर डाका डाले बैठे होते हैं और जो अपनी औरतों को तीन तलाक के खौफ में रखते हैं, और अभी तहजीब के नाम पर अपनी औरतों को बुर्के में रखते हैं, इतना ही नहीं हिजाब को पसंद का अधिकार बताते हैं, वह भी हमारी उन्नत संस्कृति को कोसने में लग जाते हैं।
इसमें वह वामपंथी लेखक भी शामिल होते हैं, जो परम्परा के नाम पर अपनी पत्नियों को घूँघट में रखते हैं और यहाँ तक कि घर से बाहर भी नहीं निकालते हैं, वह अपने शिष्यों के सामने भी अपनी पत्नियों को नहीं लाते हैं, वह भी हमारी संस्कृति को सबसे ज्यादा पिछड़ा बताने लगते हैं।
भाजपा विरोधी लेखक एवं साहित्यकार समूह, हमेशा भी गैर भाजपा शासित राज्यों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर मौन रहता है, मगर जैसे ही बात भाजपा के किसी मंत्री या मुख्यमंत्री की होती है तो उनके छोटे से वक्तव्य पर शोर मचा देता है। हो सकता है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री रावत का मंतव्य वह न हो, फिर भी भारतीय संस्कृति की विशालता एवं वृहदता को देखते हुए, यह अत्यंत संकुचित दृष्टिकोण प्रतीत होता है, जो भारतीय संस्कृति को भी अंतत: काले तम्बू वाली तहजीब में परिवर्तित कर देगा।
अत: सरकार का उद्देश्य है कि महिलाओं के लिए बेहतर क़ानून व्यवस्था प्रदान करना जिससे लडकियां जो चाहे पहनकर बाहर निकल सकें और विश्वास मानिए कि भारतीय लड़कियों में आत्म निर्णय का अधिकार अधिक बेहतर परिलक्षित होता है। और यदि उन्हें सही संस्कार बचपन से दिए जाते हैं, तो वह काम और विकृत काम, छोटे वस्त्र एवं अश्लील वस्त्रों को पहचानकर अपने अनुसार जीवन जी सकती हैं।
कोई भी ऐसा वक्तव्य भाजपा के किसी भी नेता को नहीं देना चाहिए, जिससे पार्टी और विचार के साथ साथ पूरी हिन्दू संस्कृति पर भी वह लोग प्रश्न उठाएं, जिनकी सभ्यता कुछ हज़ार वर्षों की है, तो वहीं हिन्दू संस्कृति तो युगों युगों से हैं, पुरातन है, फिर भी नित नवीन है।
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