मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है!
व्यक्तिगत आलोचना से बचने वाले और हर समस्या का हल खोजने को प्रयासरत रहने वाले दुष्यंत कुमार (जन्म: 01 सितम्बर 1933निधन: 30 दिसम्बर 1975) आज ही के दिन अल्पायु में साहित्य जगत को सूना कर चले गए थे। यद्यपि इस संसार में उनका प्रवास बहुत अल्प रहा था, परन्तु उतने ही समय में उन्होंने साहित्य को जनता का स्वर बना दिया था। उनकी रचनाओं में तत्कालीन व्यवस्था के प्रति रोष और क्षोभ दिखलाई देता है।
उनकी रचनाओं में सपने टूटने की पीड़ा है। उनकी रचनाओं में उस व्यवस्था के प्रति मोहभंग है, जिसमें उन्होंने आँखें खोली हैं। वह जबरन क्रान्ति लाने में विश्वास नहीं करते। वह जानते हैं कि क्रान्ति को जब आना होगा, तब आएगी। उन्हें पता है कि जब समय के अत्याचारों, अन्याय और शोषण से व्यक्ति स्वयं त्रस्त होगा, तब क्रांति आएगी। वह लिखते हैं:
“सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई ,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी –
वह, समय की प्रतीक्षा में है , जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप ।
अभी तो यह आग जलती रहे , जलती रहें ,
जिंदगी यों ही कडाही में उबलती रहे ।”
दुष्यंत कुमार शासन और लेखकों के मध्य भी एक स्पष्ट सम्बन्ध निर्धारित करते हैं। वह जो कहते हैं, उसे कहने में बड़े बड़े लेखक आज तक लजाते हैं, वह सोच के स्तर पर इतने परिपक्व हैं और स्पष्ट हैं कि आज के तमाम लेखक उनके समान धरातल पर जाकर खड़े नहीं हो पाते हैं। इन दिनों लेखकों और साहित्यकारों को यह लगता है कि सरकार उन्हें नहीं पहचानती या सम्मान नहीं देती तो वह शिकायत करते हैं।
परन्तु वर्ष 1972 में नई दुनिया में प्रकाशित दुष्यंत कुमार का लेख “साहित्य सत्ता की ओर क्यों देखता है” पढने पर यह ज्ञात होता है कि कथित जनवादी लेखकों को यह समस्या तब भी थी। वह लिखते हैं कि यह एक अजीब बात है कि साहित्यकार में शिकवों और शिकायतों का शौक बढ़ता जा रहा है। उसे शिकायत है कि गवर्नर और मुख्यमंत्री उसे पहचानते नहीं, शासन उसे मान्यता नहीं देता या देता है तो तब जब वह कब्र में पैर लटका कर बैठ जाता है। लेकिन समझ नहीं आता कि लेखक के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह उन बातों को महत्व दे! आखिर शासन ने तो उससे नहीं कहा था कि वह लेखक बने। वह अपनी अदम्य संवेदनशीलता के कारण लेखक बनता है, अभिव्यक्ति की दुर्निवार पीड़ा उसे कलम उठाने के लिए विवश करती है। इस प्रक्रिया में शासन या समाज कहाँ बीच में आता है?”
दुष्यंत यहीं नहीं रुकते हैं, वह लेखन और शासन को अलग रखने के लिए तर्क देते हैं। वह कहते हैं कि शासन से मान्यता का अर्थ है शासन से समझौता, और समझौता हमेशा अकादमी को कहीं न कहीं कमजोर करता है, और यह विरोधाभास ही तो है कि आप जिस शासन की आलोचना करें, उसी की स्वीकृति और मान्यता के लिए तरसें!
उन्होंने लेखकों को विशेषाधिकार का भी विरोध किया था क्योंकि उनके अनुसार लेखक को अपनी स्वतंत्रता में बाधक होने वाले हर अहसान से बचना चाहिए। वह इस बात से बहुत दुखी थे कि लेखक आखिर सत्ता के आसपास क्यों घुमते हैं? उन्होंने इस लेख में लेखक संघों की राजनीति की भी आलोचना की थी।
एक और बात उन्होंने लेखकों के लिए कही थी और वह अभी तक हिंदी के साहित्य जगत के लिए सटीक बैठती है। उन्होंने लिखा था कि “दरअसल बात यह है कि लेखक किसी दूसरे लेखक को भौतिक दृष्टि से जरा सी भी संपन्न स्थिति में नहीं देख सकता।” और उन्होंने हिंदी लेखकों के दोमुंहेपन पर बात करते हुए कहा था कि “वह अर्थात हिंदी का लेखक) एक साँस में विरोध करता है और दूसरी में समर्पण! एक तरफ वह शासन को कोसता है और उनकी उपेक्षा का हवाला करता है और फिर दूसरे प्रदेशों का हवाला देकर यह सिद्ध करना चाहता है कि वहां नेता साहित्यकारों का आदर करते हैं।”
दुष्यंत कुमार ने हिंदी वामपंथी लेखकों की सच्चाई जो उस समय बताई थी, वह इस समय भी वही है। आज भी उन्हें भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार को कोसना है और उससे हर समिति में स्थान, फेलोशिप और सम्मान, पुरस्कार भी पाने हैं।
सरकार को कोसने वाले और हिन्दुओं को कोसने वाले लेखक भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से सम्मान और पुरस्कार लेते देखे गए हैं। वामपंथी लेखकों का लेखकीय ईमान धन राशि या सम्मान देखते ही डोल जाता है।
बहरहाल बात दुष्यंत की! दुष्यंत को आन्दोलनों का शायर कहा जाता है, वह लिखते हैं
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
पर आज के आंदोलनों से दुष्यंत गायब हैं
दुष्यंत की रचनाओं में जो आक्रोश है, वह किसी भी सरकार विरोधी आन्दोलन के प्राण हो सकता है, परन्तु वह हाल ही में हुए आन्दोलनों से नदारद दिखे! ऐसा क्यों है कि जिन दुष्यंत ने अपनी सरकारी नौकरी की परवाह न करते हुए आपातकाल में कविता लिख डाली थी
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
उनकी किसी कविता को इन सरकार विरोधी आन्दोलनों में नहीं लिया गया?
क्या इसलिए क्योंकि दुष्यंत ने विभाजनकारी कविताएँ नहीं लिखीं? उनका असंतोष भारत के लिए था, उनका क्षोभ एक बेहतर भविष्य के लिए था और समाधान खोजते थे, वह लिखते थे कि
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
जबकि अभी के जो लेखक हैं, वह हंगामा तो खड़ा करते हैं, पर सूरत बदलने पर उनका जोर नहीं है! दुष्यंत हिन्दुओं को गाली नहीं देते हैं, वह सत्ता पर निशाना साधते हैं, इसलिए हिंदी गजल को धारदार पहचान देने वाले दुष्यंत साहित्यिक परिदृश्य से गायब कर दिए गए हैं और उनके स्थान पर फैज़ आ गए हैं, जो बुत गिरवाने के बहाने हिन्दू धर्म पर निशाना साधते हैं और जिनका विरोध सत्ता से न होकर हिन्दू धर्म से है!
हिंदी गजल में दुष्यंत का स्थान वही है जो उर्दू में ग़ालिब या किसी और का हो सकता है! परन्तु हिंदी साहित्य दुष्यंत को भुला बैठे हैं, क्योंकि उन्होंने एजेंडा नहीं चलाया, साहित्यकारों को सत्ता से अलग रहने के लिए कहा!