आज अर्थात 06 जनवरी को नरेंद्र कोहली जी का जन्मदिन है। यद्यपि वह दैहिक रूप से हमारे साब नहीं हैं क्योंकि पिछले वर्ष वह हम सभी को छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए थे। परन्तु चूंकि वह महासमर जैसी रचनाओं के माध्यम से हम सभी के मध्य अनंत काल तक रहेंगे, इसलिए उनका जन्मदिन ही आज उनके प्रेमी पाठकों ने मनाया। आदरणीय नरेंद्र कोहली ऐसे लेखक थे जिन्होनें हिन्दू मूल्यों को अपनी रचनओं में स्थान दिया। उन्होंने व्यंग्य भी लिखे,परन्तु उन्हें पहचान मिली महाभारत एवं रामायण आदि पर किए गए कार्यों के कारण।
महासमर में तो उन्होंने जैसे भारतीय जीवन, दर्शन, जीवन चिंतन आदि को मूर्त रूप में प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने महाभारत को महासमर में ढालकर उस युग को पूर्णतया जीवंत रूप प्रदान कर दिया। जीवन के वास्तविक रूप से सम्बन्धित प्रश्नों के अत्यंत सहज उत्तर उन्होंने इस ग्रन्थ में प्रदान किए हैं। उन्होंने बताया कि कैसे व्यक्ति को बाहर से अधिक अपनों से लड़ना पड़ता है।
आज उनके जन्मदिन पर महासमर का एक गद्यांश पाठकों के लिए प्रस्तुत है:
“युधिष्ठिर के युवराजत्व के निर्णय के दिन से ही भीष्म एक प्रकार के हल्के सुखद विश्राम का-सा अनुभव कर रहे थे। उनकी स्थिति उस पथिक की-सी हो गयी थी, जो गंतव्य खोजते-खोजते, इतना चल चुका हो कि उसे लगने लगा हो कि शायद उसे गंतव्य कभी नहीं मिलेगा। किंतु, अब उन्हें गंतव्य मिल गया था। हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर उसका अधिकारी और योग्य व्यक्ति आसीन होगा—यह निश्चय हो गया था। युधिष्ठिर, सम्राट पांडु का भी ज्येष्ठ पुत्र था, और कुरु राजकुमारों में सबसे बड़ा था। वह सर्वश्रेष्ठ योद्धा न सही, अच्छा योद्धा था और उसकी रक्षा के लिए उसके वीर और समर्थ भाई उसके साथ थे। यदि दुर्योधन किसी दिन अपनी दुर्गति छोड़कर युधिष्ठिर से सहयोग करने लगे तो कुरु-वंश और हस्तिनापुर का राज्य।।।दोनों ही पूर्णतः सुरक्षित हो जायेंगे।।।
जिस क्षण भीष्म को तनिक भी आभास होता था कि वे अपना दायित्व पूरा कर चुके हैं, और अब वे मुक्त हो सकते हैं—उन्हें गंगातट की अपनी कुटिया पुकारने लगती थी।।।
किंतु जो कुछ अब उनके सामने घटित हो रहा था—यह उन्हें बहुत शुभ नहीं लग रहा था। राजा और युवराज का न इस प्रकार मतभेद होना चाहिए और न ही राजा को अपने युवराज के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए—जैसे कोई न्यायाधिकारी किसी अपराधी के साथ करता है। यदि राजा और युवराज ही राज्य की नीतियों पर सहमत नहीं होंगे, तो शेष मंत्रियों और राज्याधिकारियों का क्या होगा ?
और वह युवराज भी कैसा है ? यह युद्ध का विरोध कर रहा है। भीष्म को सोच-सोचकर भी शायद ही कोई ऐसा क्षत्रिय स्मरण आये, जो युद्ध के लिए व्यग्र न हो, अथवा युद्ध को अच्छा न समझता हो, अथवा हिंसा को पाप कहता हो।।।।पर युधिष्ठिर तो आरंभ से ही ऐसा है। वह सत्य, न्याय, समता और आनृशंसता की बात करता है। वस्तुतः वह धर्म पर चलना चाहता है। धर्म का मार्ग उसे सत्य की ओर ले जाता है। सत्य के लिए न्याय आवश्यक है। न्याय के लिए समता चाहिए। समता के लिए आनृशंसता। दूसरे पक्ष को भी उतना ही अधिकार देना पड़ेगा, जितना हम अपने लिए चाहते हैं।।।।और यदि युधिष्ठिर आरंभ से ही ऐसा न होता, तो अब तक पांडवों और कौरवों में युद्ध हो चुका होता। यह तो युधिष्ठिर की ही सहनशीलता है।।।
धृतराष्ट्र सचमुच ही युधिष्ठिर पर अनावश्यक दबाव डाल रहा था। दबाव नहीं—कदाचित वह उसे घेर रहा था। इस प्रकार घेर रहा था कि निरीह से निरीह जंतु भी अपनी रक्षा के लिए आक्रमण करने को बाध्य हो जाये।।।किंतु धृतराष्ट्र को रोका कैसे जा सकता है।।।वह राजसभा में अपने युवराज से विचार-विमर्श कर रहा है।।।
‘‘युवराज ने अपना मत नहीं बताया !’’ धृतराष्ट्र ने पुनः कहा।
‘‘यदि महाराज का इतना ही आग्रह है, तो मैं अपना मत अवश्य प्रस्तुत करूँगा, किंतु, कृपया, इसे नीति का भेद ही माना जाये, गुरुजनों के प्रति अनादर नहीं।’’
धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा, केवल अपनी दृष्टिहीन आँखें उसकी ओर उठाये प्रतीक्षा करता रहा, जैसे भूमिका-स्वरूप युधिष्ठिर जो कुछ कह रहा था, उसका कोई अर्थ ही न हो।
‘‘पंचालराज पर मेरे ध्वज के अधीन किया गया आक्रमण न मेरी इच्छा से हुआ और न मैं उसे उचित ही समझता हूँ।’’
‘‘तो फिर क्यों किया गया आक्रमण ?’’ धृतराष्ट्र के स्वर में हल्की उत्तेजना थी।
‘‘गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए।’’ युधिष्ठिर स्थिर स्वर में बोला, ‘‘गुरु-दक्षिणा, याचना नहीं होती कि उसके औचित्य-अनौचित्य पर विचार किया जाये। वह आदेश होता है, जिसका केवल पालन किया जा सकता है। उसके औचित्य-अनौचित्य पर विचार करना गुरु का कार्य है, शिष्य का नहीं ! उसका दायित्व गुरु का है, शिष्य का नहीं।
मैं गुरु-द्रोही नहीं हूँ, इसलिए गुरु-दक्षिणार्थ किये गये, उस अभियान में असहयोग नहीं कर सकता था।’’
युधिष्ठिर ने अत्यन्त भीरु दृष्टि से भीष्म की ओर देखा : वे सिर झुकाये, आत्मलीन से कुछ सोच रहे थे। फिर उसकी दृष्टि आचार्य की ओर गयी—वे भाव-शून्य, स्तब्ध-से बैठे थे। निश्चित रूप से उनके लिए युधिष्ठिर का कथन अत्यधिक अनपेक्षित था।।।।
‘‘और मैं पूछ सकता हूँ कि युवराज उस अभियान को उचित क्यों नहीं समझते ?’’ धृतराष्ट्र के स्वर में पूर्णतः अमित्र भाव था।
‘‘क्योंकि उस अभियान के मूल में धर्म नहीं, प्रतिहिंसा थी, और प्रतिहिंसा का जन्म नृशंसता से होता है।’’
धृतराष्ट्र भी क्षण भर के लिए अवाक् रह गया, किंन्तु उसने स्वयं को तत्काल सँभाल लिया, ‘‘क्या आचार्य को अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का अधिकार नहीं था ?’’
‘‘मैं अपने गुरु के आचरण का विश्लेषण इस रूप में नहीं करना चाहता।’’
‘‘जब युवराज ने प्रतिहिंसा को नृशंसता बताया है, तो उसका कारण बताने में संकोच क्यों ?’’ धृतराष्ट्र अधिक-से-अधिक क्रूर होता जा रहा था, ‘‘तुम अपने गुरु के आचरण का विश्लेषण तो कर चुके वत्स ! उस पर अपनी टिप्पणी भी कर चुके ! अब यदि तुम उसका कारण नहीं बताओगे तो अपने गुरु पर निराधार दोषारोपण के अपराधी नहीं कहलाओगे क्या ?’’
युधिष्ठिर को लगा : सत्य ही वह इतना आगे बढ़ आया था कि अब पीछे लौट पाना संभव नहीं था।
‘‘ब्राह्मण को क्षमाशील होना चाहिए। दोष को क्षमा करने से न उस दोष का विस्तार होता है, न उसका वंश आगे चलता है।’’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘किंतु प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की भावना, प्रतिक्रिया की अंतहीन शृंखला को जन्म देती है। प्रतिशोध के इस सफल अभियान से प्रतिहिंसा समाप्त नहीं हुई है महाराज ! उसने कौरवों और पांचालों की अमैत्री को शत्रुता में परिणत कर दिया है। आचार्य ब्राह्मण होकर भी पंचालराज को क्षमा नहीं कर सके, तो पंचालराज क्या अपने इस भयंकर अपमान, पराजय तथा आधे राज्य की हानि को भूल जायेंगे ?’’
युधिष्ठिर ने रुककर धृतराष्ट्र को देखा, ‘‘और महाराज ! इतना बड़ा प्रतिशोध लेने से पूर्व, हमें यह भी विचार करना चाहिए कि उस अपमान का स्वरूप क्या था ? क्या वह सचमुच अपमान था भी ? क्या हम पंचालराज के उस नीति-वाक्य को आचार्य का अपमान मान भी सकते हैं ? क्या आज तक किसी ऋषि और राजा में मैत्री हुई है ? क्या ऋषि कृष्ण द्वैपायन व्यास और हस्तिनापुर के किसी सम्राट में कभी मित्रता हुई है ? जो संबंध राजाओं और ऋषियों में है, उन्हें सौहार्द, पूजा-भाव, श्रद्धा, स्नेह इत्यादि के अंतर्गत रखा जायेगा अथवा मैत्री के अंतर्गत ?।।।और यदि किसी कारणवश कोई हमें अपना मित्र नहीं मानता तो हम उसे अपना अपमान समझ, उसका प्रतिशोध लेंगे ?’’
‘‘नहीं ! यह बात नहीं है।’’ अकस्मात ही अश्वत्थामा उठकर खड़ा हो गया, ‘‘आश्रम के दिनों में वे मित्र थे।’’
‘‘ठीक है ! किंतु क्या जीवन में संबंध सदा स्थिर ही रहते हैं ? वे बनते-बिगड़ते नहीं ? उनमें उतार-चढ़ाव नहीं आता, या उनमें सघनता-विरलता नहीं होती ?’’
‘‘बात संबंधों की नहीं है।’’ इस बार दुर्योधन बोला, ’’द्रुपद ने आश्रम के दिनों में आचार्य को यह वचन दिया था कि पंचाल का राज्य जितना उसका होगा, उतना ही आचार्य का भी होगा।’’
‘‘द्रुपद तब एक बालक थे, हस्तिनापुर में तो आचार्य का स्वागत करते हुए पितामह तथा स्वयं महाराज ने कहा था कि कौरवों का जो कुछ भी है, वह सब उनका है।’’ युधिष्ठिर बोला, ‘‘अब आज यदि आचार्य चाहेंगे, तो महाराज कौरवों का सारा राज्य, आचार्य को सौंप स्वयं वनवास के लिए चले जायेंगे ?’’
युधिष्ठिर ने जैसे अपनी विजयिनी दृष्टि धृतराष्ट्र पर डाली, किंतु इस बार न तो धृतराष्ट्र ने ही कुछ कहा, और न अश्वथात्मा अथवा दुर्योधन ने ही।
क्षण भर के इस मौन का लाभ उठाया विदुर ने। वह तत्काल बोला, ‘‘महाराज ! हम यहाँ आचार्य के आचरण का विश्लेषण कर, उस पर कोई टिप्पणी करने नहीं बैठे। हमारे सामने समस्या अपने दिग्विजय के आह्वान की है। मैं समझता हूँ कि युवराज की इतनी बात से तो हम सहमत हो ही सकते हैं कि इस समय जब हमारे चारों ओर विभिन्न शक्तियों की सेनाएँ प्रयास करती दिखायी पड़ रही हैं, दिग्विजय के इस अभियान में अपनी शक्ति का ह्रास करना अनावश्यक होगा।’’
नरेंद्र कोहली वामपंथी साहित्यकारों के मध्य एक जगमगाता सूर्य थे जिनकी वैचारिक हिन्दू प्रखरता के समक्ष आयातित साहित्य सदा ही मद्धिम रहा!
आज जब वह नहीं हैं, तो भी इस अपनी तमाम रचनाओं के साथ हम सभी के मध्य हैं और सदा रहेंगे।