मोदी “सरनेम” के अपमान के आधार पर अंतत: कांग्रेस नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त हो गयी। हालांकि इसे लेकर राजनीति तेज हो गयी है और कांग्रेस इसे अब भुनाना चाहेगी और इसके साथ ही शेष दल भी “लोकतंत्र की हत्या” का नारा लगाएंगे। यह कहा जाने लगा है कि अदानी और अम्बानी पर आवाज उठाने के चलते ही राहुल गांधी पर यह कार्यवाही हुई है।
परन्तु राहुल गांधी पर यह कार्यवाही उस कानून के अंतर्गत हुई है, जिसमें यह कहा गया है कि जिस भी नेता को दो वर्ष या अधिक की जेल होगी, तो उसकी संसद सदस्यता रद्द कर दी जाएगी। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 (1) और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत किया गया है।
सबसे हैरान करने वाली बात यही है कि राहुल गांधी इस सजा से बच सकते थे, यदि उन्होंने अपनी ही सरकार का वह अध्यादेश नहीं फाड़ा होता, जो उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध लाया जा रहा था जिसमें दोषी सांसदों और विधायकों की सदस्यता जाने का प्रावधान था।
यह बात है सितम्बर 2013 की जब यूपीए सरकार ने यह अध्यादेश पारित कर दिया था, मगर चूंकि जनता में इसका सही सन्देश नहीं जा रहा था और कहीं न कहीं लोगों को यह लग रहा था कि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार पर कठोर कदम नहीं उठा रही है।
कई विपक्षी दलों ने भी इस अध्यादेश का विरोध किया था, मगर यह अध्यादेश वापस नहीं लिया गया था और फिर पाठकों को स्मरण होगा उस प्रेस कांफ्रेंस का, जिसमे राहुल गांधी ने आते ही अध्यादेश यह कहते हुए फाड़ दिया था कि यह पूरी तरह से बकवास है!
और वह अध्यादेश पारित नहीं हो पाया था, जिसके चलते यह क़ानून है कि दोषी पाए जाने पर सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता रद्द हो सकती है और वह छ वर्षों तक चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे।
कई लोग इस निर्णय की तुलना राहुल गांधी की दादी एवं पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के उस निर्णय के साथ कर रहे हैं, जब उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई थी, और उन्होंने उसके बाद आपातकाल की घोषणा कर दी थी।
हालांकि आपातकाल हटने के बाद इंदिरा गांधी चुनाव हार गयी थीं, परन्तु उसके बाद चुनावों में उन्होंने जीत हासिल की थी। ऐसे ही राहुल गांधी की माँ सोनिया गांधी पर भी लाभ के पद को लेकर आरोप लगे थे और उन्होंने इस्तीफा दे दिया था, मगर उसके बाद वह भी चुनाव जीतकर वापस आ गयी थी।
अब राहुल गांधी पर यह निर्णय आया है और उसके बाद नियमानुसार ही उनपर कदम उठाया गया है। और जाहिर है कि कांग्रेस भी इस मामले पर झुकने के मूड में नहीं है, बल्कि लड़ने के ही मूड में है। ऐसे में कुछ बातों पर धनाय दिया जाना चाहिए।
इंदिरा गांधी पर भी चुनावों में धांधली के आरोप सही पाए गए थे, और तभी उनकी सदस्यता को माननीय न्यायालय द्वारा रद्द किया गया था और उच्चतम न्यायालय से भी उन्हें राहत नहीं मिली थी। तो ऐसा नहीं था कि इंदिरा गांधी को किसी ने जानबूझकर फंसाया था, बल्कि न्यायालय ने यह पाया था कि उन पर यह आरोप कि सरकार की मदद से स्टेज, लाउडस्पीकर लगवाना, दो- गजेटेड अफसर को चुनावी एजेंट बनाना; सही है।
उसके बाद 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनका चुनाव रद्द कर दिया था और फिर उनपर छह वर्षों का प्रतिबन्ध लगा दिया गया था।
लोगों को यह लगता है कि दादी के साथ इस प्रकार समानता दिखाकर सहानुभूति उत्पन्न की जा सकती है या फिर राहुल गांधी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो डरता नहीं है, जो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहा है आदि आदि!
परन्तु सत्य यही है कि उन्हें एक जाति विशेष का अपमान करने के कारण ही सजा मिली है। हाँ, राहुल गांधी को मिली इस सजा के बहाने लोग राजनीतिक विरोध करते रहेंगे जैसे उद्धव ठाकरे ने कहा कि यह लोकतंत्र की हत्या है
हालांकि उद्धव यह भूल रहे हैं कि उन्होंने भी सोनिया गांधी को एंटोनियो मानियो कहने पर अर्नब गोस्वामी को किस प्रकार जेल भिजवाया था
देखना होगा कि अपने अपने राज्यों में अपने विरोधियों को हर हाल में चुप कराने वाले क्षेत्रीय दल कैसे राहुल गांधी पर हुई कार्यवाही को “लोकतंत्र की हत्या” कहते हैं? और यह भी देखना रोचक है कि कैसे कपिल सिब्बल ही इस क़ानून के विषय में बताते हुए कह रहे हैं कि जो हो रहा है वह क़ानून के अनुसार ही है
क्या सहानुभूति की लहर के सहारे कांग्रेस अपना आगे का सफर तय करेगी, या सारा विपक्ष कांग्रेस के साथ आएगा यह अभी भविष्य के गर्त में है!