लता मंगेशकर ने जब कवि प्रदीप का लिखा गीत गाया था कि “ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख में भर लो पानी”, तो ऐसा तनिक भी नहीं लगा था कि बार बार, यह गीत हमें गाना पड़ेगा, न जाने कितनी बार हमें अपने वीर जवानों की देहों पर इसी प्रकार अश्रु बहाने होंगे। परन्तु वीर तो होते ही हैं, अपनी भूमि की रक्षा के लिए, वह कब भयभीत होते हैं मृत्यु से!
कवि रामनरेश त्रिपाठी भी तो कहते हैं कि
“निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
जीव जहाँ से फिर चलता है,
धारण कर नव जीवन-संबल ॥“
यही निर्भयता लेकर भारत भूमि के सैनिक निकल पड़ते हैं अपनी माँ की रक्षा के लिए। अपनी माँ लिए बलिदान होने के लिए! परन्तु उनके बलिदान शीघ्र ही जैसे स्मृति पटल से ओझल कर दिए जाते हैं एवं लोकतंत्र की इस कथित दलगत व्यवस्था में राजनीतिक लाभ-हानि के दायरे में देखे जाने लगते हैं। कोई कहीं से प्रश्न उठाता है, तो कोई कहीं से, और ऐसे समय में कहीं से विमर्श से एक आंसू ढलकता है, वह दिखाई नहीं देता!
विमर्श में यह कहा जाने लगता है कि सरकार ने ही यह काण्ड कराया होगा, सरकार की नाकामी रही होगी। यह स्पष्ट है कि किसी न किसी मानवीय चूक के चलते ही आक्रमण होता है, परन्तु सरकार की चूक या व्यवस्था की किसी नाकामी के चलते शत्रुओं के जाल में फंसकर अपने सैनिकों के बलिदान पर दलगत राजनीति करना ऐसा सहज नहीं होता है, परन्तु यह सत्य है कि ऐसा प्राय: यहीं होता है।
आज जब पूरा देश कथित दैहिक प्यार के आगोश में डूबा हुआ है, ऐसे समय में विमर्श में भला यह कैसे आ पाएगा कि आज का ही दिन था जब इस देश ने अपने चालीस पुत्रों को एक ऐसे आक्रमण में खो दिया था, जो नितांत ही कायराना हरकत थी।
14 जनवरी 2019 का ही वह दिन था, जब जैश-ए-मोहम्मद के एक आतंकी ने पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमला कर दिया था और इस अचानक से हुए आक्रमण के चलते 40 जवानों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था। इन असमय काल कलवित हुए प्राणों पर अट्टाहास करने वाला आतंकी इसलिए नहीं मारने आया था कि यह भारत के सैनिक थे, बल्कि वह इसलिए मारने आया था क्योंकि वह भारत की हिन्दू पहचान से घृणा करता था।
जब भारत एक सदमे में ही था, और भारत अपने शोक से उबरने का प्रयास ही कर रहा था, तभी आदिल डार, जिसने पुलवामा पर यह आक्रमण किया था, उसने एक वीडियो जारी किया था, जिसमें साफ़ कहा था कि
“हिन्दुस्तान के नापाक मुशरिकों, हम तुम्हारे साथ ऐसे निबटने वाले हैं जिनकी तुम तुम गाय का पेशाब पीने वालों के बस के बात नहीं है”
यह आक्रमण पूरी तरह से उस भारत पर हुआ था, जिसकी धार्मिक पहचान अभी तक हिन्दू है। यह आक्रमण इसलिए नहीं हुआ था कि वह देश दूसरा था, यह आक्रमण आदिल डार ने “गौ-मूत्र पीने वालों” अर्थात उन हिन्दुओं पर किया था, जो गाय को अपनी माँ मानते हैं।
उस दिन चालीस जवान इसी पहचान के चलते असमय काल कलवित हुए थे। एवं उसके उपरान्त भी कथित लिब्रल्स ने गौ-मूत्र पीने वालों का ताना देना जारी रखा है! जो गाय को काटकर खाते हैं या गाय को मानते नहीं हैं, उनका यह ताना यह कहते हुए उचित ठहराया जा सकता है कि वह विभिन्न पंथ के हैं, परन्तु धार्मिक हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए लिबरल जमात बार-बार “गौ-मूत्र” का ताना मारती है, अर्थात यह बात सत्य है कि एक ओर वह लोग हैं जो इस देश की धार्मिक हिन्दू पहचान के शत्रु हैं, तो वहीं दूसरी ओर उन्हें वैचारिक रूप से प्रश्रय देने वाले भी इसी भूमि से हैं।
खैर, अब इससे परे चलते हैं। गौ-मूत्र का ताना देने वाले और उस ताने का समर्थन करने वाले दोनों ही पुलवामा हमले पर लगभग एक ही पक्ष में हैं। एक वह लोग हैं, जो उन सीआरपीएफ के जवानों पर इसलिए आक्रमण करते हैं कि धार्मिक हिन्दू की पहचान वाला भारत उन्हें पसंद नहीं है तो वहीं दूसरी ओर कथित राजनीतिक विरोधी यह कहते हैं कि इस हमले से किसे लाभ हुआ?
इसी मध्य जो जवान मारे गए, जो मात्र अपने देश की हिन्दू धार्मिक पहचान के चलते काल का शिकार हुए, उनके परिजन कहीं न कहीं इस विद्रूपता एवं विकृत सोच पर दुखी होते ही होंगे। इस विषय पर विचार होता ही होगा कि इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर दलगत राजनीति क्यों? मृत्यु पर राजनीति क्यों?
परन्तु ऐसा होता ही है। दल आते हैं और जाते हैं, परन्तु मुद्दे रह जाते हैं सदा के लिए! बातें रह जाती हैं, बातें सदा के लिए रह जाती हैं। स्मृतियाँ रह जाती हैं कि कैसे लोग उन चालीस जवानों के शवों पर राजनीति कर सकते हैं, जिन्होनें असमय प्राण त्याग दिए।
वर्ष 2020 में जब देश इस आक्रमण में बलिदान हुए जवानों को याद कर रहा था, तो उसी समय कांग्रेस के युवराज यही प्रश्न कर रहे थे कि इस हमले से आखिर किसे लाभ हुआ?
हालांकि उस समय भी उनकी आलोचना हुई थी और उन्हें उस सर्जिकल स्ट्राइक की याद दिलाई गयी थी, जिसके माध्यम से इस जघन्य काण्ड का प्रतिशोध लिया गया था। लोगों के हृदय में इस जघन्य काण्ड पर दलगत राजनीति करने पर क्षोभ था, क्रोध था, एवं वह सोशल मीडिया पर निरंतर परिलक्षित हो रहा है।
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कांग्रेस के नेताओं तक सभी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं एवं यही कह रहे हैं कि जो जवान बलिदान हो गए, उनके इस बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता है,
वहीं आज भी कांग्रेस के कई नेता ऐसे हैं, जो विवादास्पद लिख रहे हैं! आज पुलवामा हमले की चौथी बरसी पर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया कि हमारे जवान इंटेलिजेंस फेल्योर के चलते शहीद हो गए थे
जहां आज सोशल मीडिया पर आम लोग उन बलिदानियों को स्मरण कर रहे हैं, वहीं दलगत राजनीति के चलते कुछ नेता आज भी मात्र दोषारोपण ही कर रहे हैं। क्या यह उन तमाम बलिदानियों का अपमान नहीं है? परन्तु शायद यही दलगत राजनीति है। वहीं आम जनता कैसे स्मरण कर रही है, वह इन ट्वीट्स से समझा जा सकता है:
आम लोग इस राजनीतिक चाल को समझते हैं, तभी वह निस्वार्थ भाव से लता जी की मधुर ध्वनि और प्रदीप के शब्दों से सजे गीत पर अश्रु बहाकर उन बलिदानियों को स्मरण करते हैं, जो राष्ट्र सेवा के चलते घर नहीं आ पाते और कुछ तो कभी नहीं आ पाते, वह पहुँच जाते हैं उस विश्राम स्थल पर, जहाँ पर वह नूतन वस्त्र धारण करके पुन: देश सेवा के लिए जन्म लेते हैं!
बलिदानी कहीं जाते नहीं हैं, वह अमर हो जाते हैं, वह चेतना में रह जाते हैं, वह स्मृतियों में बस जाते हैं! वह आज भी आम लोगों की चेतना में बसे हुए हैं, वह कहीं नहीं गए हैं!