आज जब आदिपुरुष के टीज़र को लेकर इतनी बातें हो रही हैं, कुछ इसके पक्ष में हैं तो कुछ विपक्ष में। कुछ का कहना है कि अंतत: इतना विरोध ठीक नहीं है, तो कुछ कह रहे हैं कि नहीं हमारे धर्मग्रंथों के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। कोई कहता है कि यदि नए रूप के अनुसार नहीं दिखाएंगे तो कैसे आज की पीढ़ी जुड़ पाएगी? क्योंकि वह ऐसा ही देख देख कर आगे बढ़ रही है।
सभी के अपने अपने तर्क है। जो आदिपुरुष फिल्म में रामायण के साथ किया है, उसे adaptation of story from one mode to another या digital adaptation of story अर्थात एक विधा से दूसरी विधा में कथा का अनुकूलन या डिजिटल अनुकूलन कहते हैं। यह अनुकूलन कितना सार्थक हो पाता है, वह उस प्रयोजन पर निर्भर करता है, जिसके आधार पर इसे किया जाता है। आपने क्या सॉर्स ग्रन्थ पढ़े हैं, आपने क्या देखा है, लोगों ने पहले कैसे अनुकूलनों को अपनाया है? आदि आदि! यह अनुवाद अध्ययन का प्रथम नियम है कि उसमें प्रयोजन देखा जाता है।
इस फिल्म का प्रयोजन क्या है, उसे न ही निर्माता बता रहे हैं और न ही निर्देशक। बस उत्तर देने के लिए मनोज “मुन्तशिर” शुक्ला को आगे कर दिया गया है। जो तोप निर्माता निर्देशकों की ओर मुड़ी थी, उसे उन्होंने बहुत सहजता से मनोज मुन्तशिर शुक्ला की ओर मोड़ दिया है, और जैसे उन्हें ही मोहरा बना लिया है, क्योंकि उनकी छवि राष्ट्रवादी है!
कोई भी फिल्म जब ऐतिहासिक कथा पर बनती है तो उसके प्रयोजनों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। जैसे आज से कई वर्ष पहले एक फिल्म बनी थी, जिसका नाम था “मुगले-आजम”। उसमें जिस प्रकार से एक काल्पनिक कथा का अनुकूलन किया गया, उसने “अनारकली” को इस प्रकार लड़कियों के मस्तिष्क पर टंकित कर दिया कि आज भी लडकियां “अनारकली” बनकर सलाम करती हैं। तो उस एडेप्टेशन का उद्देश्य एकदम स्पष्ट था। वह एडेप्टेशन पूरी तरह से हिन्दू युवतियों के मस्तिष्क में प्रेम के मसीहा के रूप में “सलीम” को स्थापित करने के लिए था!
इसी प्रकार एक फिल्म आई थी “अकबर-जोधा” उसमें अकबर की जो छवि दिखाई, वह ऐसी थी कि जिसे देखकर किसी भी लड़की को अकबर से कभी घृणा नहीं हो सकती। अपने और अकबर के शासनकाल के विषय में जहांगीर तक ने स्पष्ट कहा था कि उसके और उसके अब्बू दोनों के शासनकाल में पांच से छल लाख हिन्दू मारे गए थे। अकबर और जहांगीर को दो काल्पनिक कथाओं के माध्यम से ऐसा अनुकूलित कर दिया है, कि जोधा और अनारकली होना आज लडकियां अपना सौभाग्य समझती हैं!
इस्लामिक जिहाद, अ लीगेसी ऑफ फोर्स्ड कन्वर्शन, इम्पीरियलिज्म एंड स्लेवरी में (Islamic Jihad A Legacy of Forced Conversion‚ Imperialism‚ and Slavery) में एम ए खान अकबर के विषय में लिखते हैं “बादशाह जहांगीर ने लिखा है कि मेरे पिता और मेरे दोनों के शासन में 500,000 से 6,00,000 लोगों को मारा गया था। (पृष्ठ 200)
अनुकूलन का महत्व पाठकों को समझ आ गया होगा, कि यह कितना महत्वपूर्ण होता है!
पाठकों को अब अनुकूलन का महत्व पता चल गया होगा। यही कारण है कि सम्राट पृथ्वीराज फिल्म की आलोचना सबसे अधिक इसी बात पर हुई थी कि पृथ्वीराज चौहान का जो दरबार था, रानी संयुक्ता के आभूषण आदि कोई भी उस भव्यता का प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, जैसा पुस्तकों में लिखा है, एवं जैसा जोधा तथा पद्मावती में दिखाया जा चुका था।
अब आते हैं पुन: आदिपुरुष फिल्म पर! जब से इस फिल्म का टीजर रिलीज हुआ है, तब से इसकी नकारात्मक मार्केटिंग हुई है, एवं इसे ही कहीं न कहीं निर्माता सही समझ रहे हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि “प्रभु श्री राम” के नाम पर लोग देखने जाएंगे ही।
सारी समस्या कथा के डिजिटल अनुकूलन की है। दरअसल इसमें जो रूप दिखाया गया है, वह कहीं से भी उस रूप के अनुसार नहीं है, जो आज तक लोगों के मस्तिष्क में बसा था। एवं प्रभु श्री राम की जो छवि है, वह वीरता एवं शौर्य से तो परिपूर्ण है ही, साथ ही उसमें कोमलता है। प्रभु श्री राम का अर्थ है भक्ति! प्रभु श्री राम का चरित्र निभाकर तो “अरुण गोविल” ऐसे प्रख्यात हो चुके हैं, कि लोग उन्हें राम के रूप ही पूजने लगे हैं। हाल ही में एक वीडियो भी ऐसा वायरल हुआ था। जिसमें एक महिला उन्हें देखकर भावुक हो गयी थी।
प्रभु श्री राम की छवि लोगों के दिल में बस चुकी है, वह अनुकूलित हो चुकी है। एवं जो प्रभु श्री राम समस्त मूल्यों की ऐसी जागृत प्रतिकृति हैं, जिनके लिए यह कहा ही गया है कि
“राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है। (मैथिली शरण गुप्त-साकेत)
जिन प्रभु श्री राम की प्रतीक्षा के लिए पूरी सृष्टि आतुर है, जिनके दर्शन मात्र से ही समस्त पाप धुल जाते हैं, उन प्रभु श्री राम की छवि “आदिपुरुष” में तनिक भी ऐसी नहीं आ रही है कि जिसे देखकर श्रद्धा उपजे, भक्ति के स्थान पर आदिपुरुष में जो प्रभु श्री राम की छवि आ रही है, वह किसी ग्रीक योद्धा जैसी आ रही हैं, जिससे आम जनता कनेक्ट नहीं कर पा रही है। उसमें प्रभु श्री राम को किसी ग्रीक योद्धा के रूप में अनुकूलित कर दिया है, जो भारतीय रूप के अनुसार नहीं है।
प्रभु श्री राम के साथ जनभावना क्या है, वह इससे समझा जा सकता है कि जहां-जहां प्रभु श्री राम के चरण पड़े थे, वहां के लोग अभी तक स्वयं को प्रभु श्री राम के जोड़ते हुए कहते हैं कि “यहाँ प्रभु श्री राम आए थे!” जिनके जन्मस्थान पर कुछ लोग अभी भी नंगे पाँव चलते हैं, जहाँ अभिवादन के रूप में “राम-राम” जीवन के हर क्षण का हिस्सा है, वह इसलिए क्योंकि राम से बढ़कर कुछ है ही नहीं, उन प्रभु श्री राम की छवि “आदिपुरुष” में तनिक भी जनभावना के अनुकूल नहीं है! यही आम जनता की पीड़ा है!
जो नई पीढ़ी है उसके सामने एक ओर रंग बिरंगी “मुगलेआजम”, “जोधा-अकबर” और “बाहुबली” होगी तो दूसरी ओर ऐसे राम, जिनके चेहरे से लालित्य ही गायब है, तो वह किसे नायक समझेगी? समस्या यहाँ पर यह है, एवं आम लोगों का भी प्रश्न यही है।
ऐसे ही प्रभु श्री राम एवं सीता माता की प्रेम कहानी, एक आलौकिक प्रेम कहानी है। माता सीता की छवि जो हम अभी तक देखते आए हैं, उसमें झूला झूलती हुई कृति सेनन कितनी हल्की एवं सतही, छिछली लग रही हैं, यह निर्माता नहीं समझ पा रहे हैं।
जो लोग यह तर्क दे रहे हैं, कि कम से कम कोई साहस तो कर रहा है, इस महाकाव्य को बड़े परदे पर लाने का, तो उन्हें यह संज्ञान में रखना चाहिए कि जो बन गया है, वही हमारी नई पीढ़ी के मस्तिष्क में टंकित हो जाएगा! एवं जब आवश्यक था कि बड़े पर्दे पर अयोध्या की वह भव्यता प्रदर्शित की जाए जैसी वाल्मीकि रामायण में लिखी है, एवं प्रभु श्री राम का पराक्रम उसी प्रकार प्रदर्शित किया जाए, जैसा वाल्मीकि रामायण में लिखा है, तो बच्चों के सामने ऐसी रामकथा प्रस्तुत की जा रही है, जो कार्टून जैसी दिख रही है।
फिल्म अच्छा व्यापार करेगी या नहीं, इस विषय में अभी से कुछ कहना शीघ्रता होगी, परन्तु यह सत्य है कि यदि यह नैरेटिव निर्माण के लिए फिल्म बनी है तो पहले ही यह फिल्म पराजित हो चुकी है, क्योंकि माता सीता किसी कुपोषित मॉडल जैसी नहीं थीं, बल्कि उनमे हिन्दू स्त्री का सौन्दर्य था।
इस फिल्म में एडेप्टेशन के स्तर पर समस्या है, जिसकी हानि आज नहीं तो कल अवश्य पता चलेगी, हाँ एक बात सत्य है कि ऐसे तमाम एडेप्टेशन से न ही रामायण का कुछ बिगड़ता है और न ही प्रभु श्री राम के प्रति भक्ति पर प्रभाव पड़ता है, हाँ, प्रभु श्री राम के नाम पर खेल करने वालों को अवश्य दंड मिलता है!
सारा खेल एडेप्टेशन, प्रयोजन और उसके अनुसार फिल्म बनाने का है, एवं इसका उत्तर आज नहीं तो कल अवश्य ही निर्देशक को देना ही होगा एवं मनोज मुन्तशिर शुक्ला को बीच से हटना ही होगा!
अगर इस फिल्म को हल्के में लिया जाये, या जैसे मनोज मुन्तशिर कह रहे हैं इंटरव्यूस में ऐसा करके हम रामकथा को इस वर्तमान पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। यह कहना भी ग़लत है कि अगर हमने अरुण गोविल की छवि राम के रुप मे बना ली है तो नये निर्माता ने अपनी कल्पना से राम की छवि प्रस्तुत की है। बच्चों को क्या राम का चरित्र किसी कार्टून के रुप में प्रस्तुत करना है, घातक होगा हमारी संस्कृति और सनातन के लिए।