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Tuesday, April 16, 2024

विकसित देशों को छोडनी होगी औपनिवेशिक दादागीरी वाली मानसिकता, वह नहीं चाहते हैं कि विकासशील देश विकसित बनें: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को विकसित देशों की मानसिकता पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि विकसित देश नहीं चाहते हैं कि विकासशील देश आगे बढ़ें। वह चाहते हैं कि विकसित देश तो और विकास करें, परन्तु विकासशील देश वहीं के वहीं रह जाएं।  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस के अवसर पर विज्ञान भवन के कार्यक्रम में यह बात कही।

उन्होंने कहा कि इस समय हालांकि कहीं भी कोई भी देश घोषित रूप से किसी का उपनिवेश नहीं हैं, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि औपनिवेशिकतावादी मानसिकता समाप्त हो गयी है।  उन्होंने कहा कि हम देख रहे हैं कि अब यह एक विकृति बन गया है और नई नई बाधाओं में दिखाई देता है। जिन मार्गों पर चलता हुआ विकसित विश्व इस मुकाम पर पहुंचा है, आज वही माध्यम, वही मार्ग विकासशील देशों के लिए बंद किए जा रहे हैं।  पिछले दशकों में इसके लिए अलग अलग शब्दावलियों का प्रयोग किया गया, परन्तु उद्देश्य वही है, विकासशील देशों की प्रगति को रोकना। 

उन्होंने पर्यावरण के मामलों पर कई तरह के गैर सरकारी संगठनों द्वारा दायर की जा रही पीआईएल की ओर संकेत करते हुए कहा कि अब पर्यावरण को भी इसी प्रयोजन के लिए हाईजैक करने का प्रयास किया जा रहा है। फिर उन्होंने कहा कि अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों ने मिलकर भारत से कहीं अधिक एब्सोल्यूट हुमिलिटिव एमिशन किया है।

उन्होंने भारत की प्रकृति पूजा और धरती को माँ के रूप में पूजने का भी उल्लेख किया और फिर कहा कि उस भारत को पर्यावरण संरक्षण के उपदेश सुनाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि यह सब हमारे लिए जीवन मूल्य हैं। भारत में वन क्षेत्र बढ़ रहा है। और उन्होंने कहा कि पेरिस समझौते को समय से पहले पाने के लिए अग्रसर कोई है तो वह भारत है!”

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करोड़ों हिन्दुओं के दिल की बात कही है। क्योंकि यह सर्वथा सत्य है कि कहने के लिए तो भारत स्वतंत्र है, परन्तु औपनिवेशिक मानसिकता अभी तक राज कर रही है।

जब वह यह अफ़सोस करते हैं कि भारत में कुछ ऐसे लोग हैं जो देश की प्रगति को नीचा दिखने के लिए पश्चिमी बेंचमार्क और पर्यावरण का प्रयोग कर रहे हैं, तो वह एक वर्ग विशेष की मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं, जो शिक्षा के वर्तमान स्वरूप के कारण जीवन का हिस्सा बन गयी है।

प्रधानमंत्री जब इस औपनिवेशिक मानसिकता की बात कर रहे थे, तो ऐसे में एक नहीं कई उदाहरण पश्चिमी औपनिवेशिक मानसिकता के सामने आते हैं, जब पश्चिम ने अपने झूठे अहंकार के चलते भारत की उपलब्धियों और भारत की विभूतियों को अनदेखा किया।

हाल ही में भारत में पद्मश्री सम्मान प्रदान किए गए थे। उनमें से एक नाम था तुलसी गौड़ा का। तुलसी गौड़ा ने अपने जीवन में स्कूल का चेहरा नहीं देखा था। वह छोटी उम्र में ही अपनी माँ के साथ नर्सरी में काम करती थीं और वहीं से उनके दिल में पर्यावरण के लिए कार्य करने का जूनून पैदा हो गया।

अब तक वह 30,000 से अधिक वृक्ष लगा चुकी हैं और साथ ही पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य कर रही हैं। उन्हें पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों का इतना ज्ञान है कि उन्हें इनसाइकलोपीडिया ऑफ फारेस्ट कहा जाता है। 

ऐसी महिलाओं को औपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रसित एक बड़ा वर्ग देखता नहीं है, उनकी दृष्टि में ग्रेटा बड़ी पर्यावरणविद है, जिसे कुछ लोग अपनी महत्वाकांक्षा के लिए आगे बढ़ा रहे हैं। उनके लिए दिशा रवि जैसी लडकियां पर्यावरण विद हैं। 

पश्चिमी मीडिया में भी यही औपनिवेशिक मानसिकता दिखाई देती है और भारत की हर उपलब्धि पर प्रश्न चिन्ह लगाना उनकी आदत होती है। कोरोना के मामले में हम सभी ने यह देखा है।  भारत की वैक्सीन के साथ दोगला व्यवहार देखा है।

उन्हें यह विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि भारत जैसे देश में कैसे कुछ अच्छा हो सकता है। भारत के खानपान, भारत की जीवनशैली को पिछड़ा घोषित करने वाली मानसिकता अभी तक है।   भारत को वह लोग अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से चलते ही देखते हैं।  

सोशल मीडिया पर जनता का मिला समर्थन:

सोशल मीडिया पर लोग प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन कर रहे हैं। ओवरसीज फ्रेंड ऑफ बीजेपी ऑस्ट्रेलिया के अध्यक्ष जय शाह ने लिखा कि

एकदम सही, औपनिवेशिक मानसिकता अभी तक है। और यह कई मुख्यधारा की ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में आसानी से देखी जाती है:

पिछले कई दिनों से लोगों के निशाने पर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस दृष्टिकोण की प्रशंसा करते हुए लिखा कि हम प्रधानमंत्री मोदी से यही चाहते हैं:

भारत को जब पश्चिम के दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो समस्याएं उत्पन्न होती है। यह सत्य है कि अंग्रेज तो भारत से वर्ष 1947 में चले गए थे, परन्तु वह अपनी मानसिकता यहीं छोड़ गए थे। और अपने कुछ गुलाम भी यही छोड़ गए थे, जो ऐसे ऐसे विमर्श आरम्भ कर चुके हैं, जो भारतीय या कहें हिन्दू विमर्श नहीं हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा कि “न्यायपालिका की सबका विकास में एक बड़ी भूमिका है, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्कीकरण अत्यंत आवश्यक है। “

प्रधानमंत्री जी का यह संबोधन ऐसे समय में आया है, जब न्यायपालिका के कई निर्णयों से जनता में बहुत रोष है और जनता खुलकर न्यायालय के निर्णयों की समीक्षा कर रही है।  वह असंतोष व्यक्त कर रही है। 

संविधान के विषय में:

संविधान के विषय में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि हमारा संविधान कुछ धाराओं का संकलन मात्र नहीं है, परन्तु यह भारत की महान परम्पराओं की अभिव्यक्ति है। और फिर उन्होंने उन दलों पर भी प्रश्न उठाए, जो चुनाव हारने पर लोकतंत्र बनाए रखने में सफल नहीं रहे थे।

इस विषय में कोई संदेह नहीं है कि संविधान हमारे देश के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसका संशोधन पिछले 75 वर्षों में 105 बार हो चुका है। और इस संविधान की मूल आत्मा कई संशोधनों एवं न्यायिक व्याख्याओं से अपनी पहचान खो चुकी है। विशेषकर धार्मिक स्वतंत्रता की बात करें, जैसे धारा 25-30, जिन्हें अल्पसंख्यकों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था, वह अब केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं के अधिकार समाप्त करने वाली बन गयी हैं।

संविधान सभा के अधिकतर सदस्य, जिनमें डॉ. अम्बेडकर भी सम्मिलित थे, वह भी नेहरूवादी कुलीनों के उस दृष्टिकोण के विरोध में थे, जो आज “संवैधानिक नैतिकता”  के ठेकेदार के रूप में कार्य करता है।

इसके साथ ही यदि हम प्रधानमन्त्री मोदी की बात करते हैं, तो पाते हैं कि वह संविधान को पवित्र पुस्तक कहते हैं, और इसी के साथ वह भी इसी संवैधानिक नैतिकता का शिकार दिखते हैं। क्योंकि यह पूरा विश्व जानता है कि कैसे एक शब्द “पवित्र किताब” अंध अनुयाइयों की एक लम्बी फ़ौज तैयार कर सकता है। जबकि भारत एक तार्किक और धार्मिक नागरिकों की चेतना वाला देश है, तो हमें यह देखना होगा कि संविधान हमारे नागरिकों के लिए सबसे बेहतर हित में काम करने वाला हो और किसी तरह से नहीं!

देखना होगा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के मध्य शक्तियों का पृथक्कीकरण हो पाता है या नहीं, या वह भी इसी औपनिवेशिक मानसिकता का शिकार बना रहेगा!

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