मुग़ल बादशाह हिन्दुओं से ‘जज़िया’ कर वसूलते थे, यह हमने पढ़ा है। पर यदि कोई यह सोचता है कि यह इतिहास की बातें हों चलीं है, तो अत्यंत क्षोभ के साथ कहना पड़ेगा कि वो अभी पाकिस्तान में रहने वाले सिक्खों के दर्द से अनजान हैं। हुआ यह है कि एक समय पाकिस्तान में सूदूर अफ़ग़ान की सीमा से लगे जनजातीय क्षेत्रों में सिख समाज रहा करता था । लेकिन आगे चलकरतहरीक-यह-तालिबान (टीटीपी) द्वारा बढ़ -चढ़कर ‘जिज़िया’ की मांग और लादे गए कड़े इस्लाम प्रेरित सामाजिक -बंधनों से विवश हो अपने पुरखों का घर छोड़ यह समाज पेशावर में आ बसा था( टाइम्स ऑफ़ इंडिया; 1 अक्तूबर, 2020 )। पर लगता है कि अब यहाँ फिर से उनके दुखों से भरे दिन लौट आयें हैं।
ख्याति प्राप्त यूनानी चिकित्सक, हकीम सतनाम सिंह; समाचार वाचक, रविंदर सिंह; सिख समाज के लोकप्रिय नेता , चरणजीत सिंह; पेशावर से नेशनल असेंबली सदस्य, सोरन सिंह – सूची लम्बी है। और यह सूची पाकिस्तान में रहने वाले उन सिक्ख- बंधुओं की है जिन्हें पिछले वर्षों मार डाला गया है। दुःख की बात यह है कि इस पर भी आतंकियों की प्यास नहीं बुझी है एवं अभी हाल ही में दो और सिक्ख व्यापारियों की उन्होंने खैबर पख्तून प्रान्त में गोली मरकर हत्या कर डाली।
कहने को शेष नही कि ईसाई और हिन्दुओं के साथ-साथ सिक्ख भी पाकिस्तान में सुरक्षित नहीं। यहाँ तक कि उनके धार्मिक-स्थल, और उनके धर्म गुरु भी जिहादी-आतंक से मुक्त नहीं माने जा सकते। पिछले वर्ष ही सिक्खों के सर्वोच्च श्रद्धा के केंद्र ‘नानकाना साहिब गुरुद्वारा’ के ग्रंथी की बेटी को मुस्लिम युवा द्वारा अगवा कर लिया गया था। इस्लाम में मतांतरित कर, उसने जबरदस्ती उससे शादी भी कर ली। और जब लडकी के भाई नें थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई, तो स्थानीय मुस्लिम इतने आक्रोशित हो उठे कि उसको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते गुरूद्वारे में घुसे और उन्होंने और तोड़फोड़ भी करी।
अफ़ग़ानिस्तान में भी सिक्खों का जीवन कोई अलग नहीं। तालिबान के सत्ता में आते ही उनके लिए अफ़ग़ानिस्तान कितना कठनाइयों से भरा देश हो गया था पूरी दुनिया नें देखा। तालिबान अधिकारियों नें ‘कर्ता परवन गुरुद्वारे’ में घुसने में कोई परहेज नहीं दिखाया। फिर भक्तों को बंधक बनाया, और तोड़फोड़ भी की थी । वहां रहने वाली महिलाओं की दुर्गत ज्यादा ही हुई। यहाँ तक कि कइयों को तो देश छोड़कर भाग खड़े होना पड़ा, और जिन्होंनें भारत में शरण ली उनमे से जिनकी मीडिया में बहुत चर्चा हुई वह थीं नरिंदर कौर खालसा और अनारकली कौर होनरयार।
इनके दर्द को अनारकली कौर की भावनाओं से समझा जा सकता है। 36 वर्षीय होनरयार डेंटिस्ट हैं, और अफगानिस्तान के पितृसत्तात्मक समाज में रहने वालीं महिलाओं के अधिकारों को लेकर सक्रिय थीं। इस योगदान के कारण ही उन्हें लोगों नें पहली गैर-मुसलमान संसद सदस्य के रूप में चुन कर भेजा। प्रगतिशील, लोकतान्त्रिक अफगानिस्तान उनका सपना था। अपना सब कुछ गवां बैठी होनरयार ने अपनी पीढ़ा इन शब्दों में व्यक्त करी – ‘ मेरे सपने बिखर चुके हैं!’
इं. राजेश पाठक