कहते हैं कि संवाद और विवाद एक रेखीय नहीं होते। यह होते रहना चाहिए। जब कुछ लिखा जाता है तो उसकी समीक्षा भी होगी, आलोचना भी होगी, आलोचना से परे कोई नहीं। जिन्हें हम महान मानते हैं वह भी और जिन्हें हम त्याज्य मानते हैं वह भी!
परन्तु भारत में और विशेषकर हिंदी जगत में हिंदी और संस्कृत को, जो वैश्विक संवाद करने में सक्षम हैं, उन्हें मात्र हिन्दू धर्म से जोड़ दिया गया और उर्दू जिसके शब्दों में अब अधिकांशत: एक मजहब की कट्टरता ही दिखाई देती है, उसे वैश्विक मानकर यह स्थापित कर दिया गया कि उर्दू ही प्रगतिशीलता है और जिसे उर्दू नहीं आती या जो उर्दू के अरबी मूल के शब्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में नहीं करता, वह लेखक या लेखिका, कट्टरता का प्रचारक है, पिछड़ा है आदि आदि आदि!
जहाँ हम देखते हैं कि तुलसी बाबा रामचरित मानस लिखकर एक आहत जन मानस में चेतना का संचार करने में सफल रहते हैं। वह सत्ता से प्रत्यक्ष नहीं टकराते, बल्कि वह दूसरा मार्ग चुनते हैं। रामचरित महाकाव्य लिखकर भी वह इन वामपंथी आलोचकों की आलोचना से परे नहीं हैं, बल्कि एक ऐसी पंक्ति पर उनकी आलोचना आज भी होती रही है, जिसके पाठ कई हैं।
वहीं उन्होंने स्त्रियों की स्वाधीनता पर जो वैश्विक लिखा, उसका कोई उल्लेख नहीं होता है। उनकी लिखी एक चौपाई, जिसमें स्त्री की स्वाधीनता पर इतनी बड़ी बात कही गयी है कि पराधीन को तो सपने में भी सुख नहीं है,
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
उसका संज्ञान ही नहीं लिया गया, बल्कि एक और बहुपाठ वाली पंक्ति पर इतना विरोध मचाया गया कि उन्हें नकारे जाने की भी स्थिति आ गयी थी।
इसी प्रकार देश को माँ मानकर लिखा गया वन्दे मातरम्, जो एक समय में पूरे भारत की आवाज़ बना, जिसने फिरंगी हुकूमत के तोपों के सामने लोगों को टिके रहने का साहस दिया, वन्दे मातरम्, अर्थात माँ को वंदन, और वंदन करते करते न जाने कितने आज़ादी के मतवाले हँसते हँसते फांसी का फंदा चूमकर मृत्यु का वरण करने का साहस दिया। उसी वन्दे मातरम पर आकर क्षुद्र धार्मिक राजनीति के कारण विवाद उत्पन्न किया गया। जबकि सभी को पता है कि माँ प्रतीक है, देश का! इस देश के मूल भाव में भारत भूमि की अवधारणा रही है। अब यह कुतर्क किया जा सकता है कि देश पिता क्यों नहीं? यह एक कुतर्क है, क्योंकि इस कविता के मूल में भारत भूमि की अवधारणा थी।
परन्तु वही लोग जो तुलसीदास और वन्देमातरम को धर्म से जुड़ा हुआ बताते हुए खारिज होने का प्रमाण्पत्र बाँटते रहे थे, वह पिछले दिनों एक कथित ऐसे शायर की पंक्तियों को सार्वभौमिक बताकर धन्य हो रहे थे, जिसने एजेंडा परक ही नज्म लिखीं, अपने मजहब को महान बताते हुए नज्में लिखीं! कथित महान क्रांतिकारी कवि फैज़ की कुछ पंक्तियों पर कोहराम मचा, तो लोगों से कहा गया कि अब यह लोग फैज़ पर प्रश्न उठाएंगे?
तो क्या फैज़, बाबा तुलसीदास से बढ़कर हो गए? क्या फैज़ बंकिम चन्द्र चटर्जी से बढ़कर हैं? क्या फैज़ महर्षि वाल्मीकि से बढ़कर हैं? नहीं नहीं! ।
फैज़ की नज्म की जिन पंक्तियों पर विवाद हुआ था, वह इस्लामी अवधारणा पर आधारित हैं।
उस रचना की कुछ पंक्तियाँ पढ़ते हैं:
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
जब वह बुत उठवाने की बात करते हैं, तो बुत की पूजा करने वाले कहाँ जाएंगे, इस पर बात क्यों नहीं करते? वह लिखते हैं कि लौह ए अज़ल में जिसका वादा है, लौह ए अजल क्या है? क्या वह वैश्विक धर्म की अवधारणा है या फिर केवल कुरआन की? यदि कुरआन की है तो दूसरे धर्म का व्यक्ति उस दिन का इंतज़ार क्यों करे?
और इसी में वह लिखते हैं कि जब अर्ज ए खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे, तो इसमें वह मोहम्मद साहेब की काबा विजय का सन्दर्भ देते हैं। इसे भी एक बार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक मान कर पढ़ा जा सकता है, परन्तु इसी में जब वह कहते हैं कि
बस नाम रहेगा अल्लाह का,
जो गायब भी है हाज़िर भी,
इस के बाद वाली पंक्तियों पर आपत्ति है और आपत्ति होना स्वाभाविक है। जब वामपंथी किसी सामाजिक आन्दोलन को करते हैं, तो इसमें यही लिखना कि बस नाम रहेगा अल्लाह का, यह एक बहुरंगी संस्कृति पर प्रहार है। जब वह इन पंक्तियों के माध्यम से यह लिखते हैं कि केवल अल्लाह ही रहेंगे और बाकी सब नष्ट हो जाएगा, तो आपत्ति होती है। यह विश्व केवल एक के साथ नहीं रहेगा।
किसी भी सामाजिक आन्दोलन में ऐसी नज्म को कैसे आदर्श मान लिया जाता है कि नाम केवल मेरे ही खुदा का रहेगा? यह जब वह लिखते हैं तो इस्लामी देशों में तो अपने सियासतदानों के लिए लिख सकते हैं कि तुम अल्लाह के नाम पर गलत न करो, नाम केवल अल्लाह का ही रहेगा, मगर जब सीएए के आन्दोलन में इस नज़्म का प्रयोग किया गया तो कैसे एक बहुरंगी संस्कृति में लोग गा सकते हैं कि नाम केवल अल्लाह का रहेगा
वामपंथियों ने बहुत ही चालाकी से हिंदी और संस्कृत को तो हिन्दू धर्म से जोड़ दिया और कट्टर बता दिया और वहीं इस्लाम की कट्टर नज्मों को प्रगतिशीलता बताते हुए जनमानस के दिमाग में भर दिया। यह एक बहुत बड़ा षड्यंत्र है, जिसमें हिन्दुओं के तमाम ग्रंथों को पिछड़ा बताया गया और कट्टर इस्लामी रचनाओं और इस्लाम के दायरे में ही लिखने वाले लेखकों को महान!
और जिसने भी इनका विरोध किया, उन्हें ही पिछड़ा कहकर उपहास किया!