हिन्दू धर्म में अब में पर्वों की ऋतु का आगमन हो गया है और स्पष्ट है कि गणेश प्रतिमाओं के उपरान्त माँ दुर्गा के आगमन की तैयारी आरंभ हो जाएगी। परन्तु हिन्दुओं की आस्था के साथ खेल खेला जाने लगा है। माँ दुर्गा, हिन्दुओं के लिए शक्ति का प्रतीक हैं, वह शक्ति स्वरूपा हैं एवं वह समस्त जगत की जननी हैं। ऐसे में हर हिन्दू उनके शक्तिमय रूप की कल्पना करता है। पर क्या बात है कि बुद्धिजीवी कहे जाए वाले लोग हर बार हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए आगे आ जाते हैं, कभी किसी नाम पर तो कभी किसी!
इस बार पश्चिम बंगाल से एक कलाकार ने माँ दुर्गा को हिजाब में चित्रित किया है।

मगर ऐसा नहीं है कि कला की स्वतंत्रता के नाम पर यह पहली बार हो रहा हो? हाल ही में एक फिल्म भी आ रही है, “रावणलीला” जिसका नाम अब बदलकर “भवई” कर दिया गया है, उसमें भी प्रभु श्री राम का अपमान ही दिख रहा है, वैकल्पिक अध्ययन के नाम पर किया गया यह प्रयोग अब जाकर प्रभाव दिखा रहा है, जिसमें हिन्दू धर्मों के साथ ही कई प्रयोग करने की छूट है, क्योंकि कोई सहज विरोध नहीं करता।
कलाकार की स्वतंत्रता कैसे किसी की आस्था को आहत कर सकती है? क्या हिजाब सशक्तिकरण का प्रतीक है? नहीं! क्या हिजाब सेक्युलर है? नहीं? हिजाब पूरी तरह से इस्लामिक नियम का प्रतीक है, जैसा अभी हाल में अफगानिस्तान में काले बुर्के में ढकी औरतों ने कहा कि अब बिहिजाबी नहीं होगी।
हिजाब को भले ही मुस्लिम औरतें और कथित इस्लाम प्रेमी बुद्धिजीवी स्वतंत्रता का प्रतीक मानें, परन्तु यह बात पूर्णतया सत्य है कि यह औरतों के मूल अधिकार अर्थात स्वतंत्रता का हनन है। इसे मुस्लिम औरतें गर्व से धारण करती हैं क्योंकि यह उनकी मजहबी कंडिशनिंग है, परन्तु हिन्दुओं के साथ यह नहीं है! हिन्दुओं की आस्था के साथ खिलवाड़ ऐसा नहीं है कि केवल कला के नाम पर किया जाता है? यह आन्दोलन के नाम पर भी किया जाता है। हम सभी को याद होगा नागरिकता आन्दोलन का हाल! जब शक्ति स्वरूपा माँ काली को हिजाब में दिखाकर हिन्दू राष्ट्र का विरोध किया गया था।
यह बार बार होता है और होता आएगा, दरअसल इन सबका आरम्भ प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन के साथ ही होता है, जिसमें हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने की मंशा के साथ ही लेखन, कला, फिल्म आदि लिखे जाते थे।
फिल्मों में भी भगवान के साथ हर प्रकार के उपहास एवं अपमान किए जाते रहे हैं। किसे याद नहीं होगा वह गाना “यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का श्री गणेश करें!”
इस गाने में ब्राह्मणों की उपहासात्मक छवि दिखाने के साथ हिंदी भाषा का भी उपहास था।

इतना ही नहीं एक गाना आया था, शूटआउट एट लोखंडवाला
“ऐ गनपत दारू ला!”
जो गणपति प्रथम पूज्य हैं, उन्हें इस प्रकार अपमानित किया गया था, कि दारू तक मंगवा डाली थी।
ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं, जब कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर मात्र हिन्दू धर्म का अपमान किया गया और आस्थाओं को अपमानित किया गया। सबसे बड़ा उदाहरण तो मकबूल फ़िदा हुसैन ही है। जिसने अपनी कला के माध्यम से हिन्दू आस्था को चोट पहुँचाई एवं माँ दुर्गा तथा सरस्वती माँ को नग्न पेंट किया था। यह सब कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किया गया था, इतना ही नहीं इसे लेकर उन्होंने बीबीसी के साथ साक्षात्कार में कहा था कि उन्होंने यह कला के लिए किया!
“एक बार बीबीसी ने उनसे सवाल भी पूछा, “क्या सोचकर उन्होंने हिंदू देवियों को न्यूड पेंट किया?”
उनका जवाब था, “इसका जवाब अजंता और महाबलीपुरम के मंदिरों में है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने जो अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है, उसे पढ़ लीजिए। मैं सिर्फ़ कला के लिए जवाबदेह हूँ और कला सार्वभौमिक है। नटराज की जो छवि है, वो सिर्फ़ भारत के लिए नहीं है, सारी दुनिया के लिए है। महाभारत को सिर्फ़ संत साधुओं के लिए नहीं लिखा गया है। उस पर पूरी दुनिया का हक़ है।”
यह सही है कि महाभारत को मात्र साधु संतों के लिए नहीं लिखा गया है, परन्तु यह उनके लिए अवश्य है जो भगवान श्री कृष्ण पर आस्था रखते हैं, जो भारत के इतिहास को अरब से आए आतताइयों में नहीं देखते हैं, बल्कि जिनके लिए उनका इतिहास मनु एवं शतरूपा के साथ आरम्भ होता है। जिनके लिए राम एवं कृष्ण मिथक नहीं, इतिहास हैं, जिन्हें अपनी माँ में दुर्गा माँ दिखती हैं, मकबूल जैसों के लिए नहीं, जिन्हें अपनी माँ और दुर्गा माँ में इतना अंतर दिखता है कि उन्होंने कभी मुस्लिम महिला की ऐसी अपमानजनक पेंटिंग नहीं बनाई, जितनी अपमानजनक पेंटिंग उन्होंने माँ दुर्गा या माँ सीता की बनाई! इस विषय में dawn में लिखा गया था कि
“इस्लामिक तहजीब में नग्न पेंटिंग का इतिहास नहीं है!” मगर तालिबान को देखकर ऐसा लगता नहीं कि कला का भी इतिहास होगा आतताइयों का!
कला के नाम पर लिखने वाले और चित्र बनाने वाले हिन्दुओं के देवी देवताओं को मिथक मानते हैं तथा उन्हीं पर तरह तरह के प्रयोग करते हैं, जबकि इस्लाम को सत्य, इसलिए इस्लाम और ईसाई मजहब के लिए वह कुछ भी अपमानजनक बोलने से परहेज करते हैं, तथा हिन्दू धर्म की स्वीकार्यता के गुण का लाभ उठाते हैं। यही कारण है कि सनातन डिंडा ने माँ का आगमन हिजाब में कर दिया है, शायद वह यह तो नहीं कह रहे कि अब पश्चिम बंगाल में माँ को भी वह लोग हिजाब में देखना चाहते हैं? क्या कला से जुड़े लोग इतने डरपोक और कायर हो गए हैं या वह इस्लाम से इतना भयभीत हो गए हैं, कि पहले ही अपने प्राणों की रक्षा के लिए समर्पण कर चुके है!
पर अपने भय के लिए हिन्दू आस्थाओं के साथ खिलवाड़ बंद करना ही होगा! या हिन्दू समाज को ही इस कला के इस डरपोक समाज से कहना होगा “बस बहुत हुआ!”
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