HinduPost is the voice of Hindus. Support us. Protect Dharma

Will you help us hit our goal?

HinduPost is the voice of Hindus. Support us. Protect Dharma
16.8 C
Sringeri
Wednesday, March 22, 2023

जस्टिस अब्दुल नजीर ने कहा कि प्राचीन भारतीय विधि निर्माताओं जैसे मनु, कौटिल्य को भूलकर औपनिवेशिक कानूनों को मानने से संवैधानिक लक्ष्यों को पाने में बाधा! पर क्या गुलाम प्रबुद्ध वर्ग समझेगा?

भारत में कानून व्यवस्था ऐसी व्यवस्था है, जिसमें न्याय मिलता तो है परन्तु बहुत देरी से मिलता है और साथ ही इस भाव के साथ मिलता है जैसे न्याय याचना के रूप में मांगा जा रहा है। स्वाभाविक अधिकार नहीं है, इस समय की कानून व्यवस्था में। कहीं न कहीं, आम जनता के लिए न्याय कहीं न कहीं एक दूर की कौड़ी होने ही है। यही कारण है कि अब न्यायपालिका से ही इस व्यवस्था के विषय में स्वर उठ रहे हैं।

जस्टिस अब्दुल नजीर ने कहा कि भारतीय विधि निर्माताओं की उपेक्षा भारी पड़ी है

उच्चतम न्यायालय के जज जस्टिस अब्दुल ने भारत की कानून व्यवस्था को भारतीय स्वरुप प्रदान करने का आह्वान किया है। उनका कहना है कि भारत की विधि व्यवस्था को प्राचीन भारतीय विधि तत्ववेत्ताओं से प्रेरणा लेकर इस “औपनिवेशिक मानसिकता” से बाहर निकलना होगा। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि हर भारतीय विश्वविद्यालय में विधि के डिग्री पाठ्यक्रमों में भारतीय न्यायप्रणाली को एक आवश्यक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए।

उपेक्षित रहा है भारतीय ज्ञान

जस्टिस अब्दुल नजीर ने भारतीय ज्ञान की उपेक्षा पर बात की है। उन्होनें कहा कि “महान वकील और न्यायाधीश पैदा नहीं होते हैं, लेकिन मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद अज्ञवल्क्य और प्राचीन भारत के अन्य कानूनी दिग्गजों के अनुसार उचित शिक्षा और महान कानूनी परंपराओं द्वारा निर्मित किए जाते हैं। उनके महान ज्ञान की निरंतर उपेक्षा और औपनिवेशिक कानूनी व्यवस्था का पालन हमारे संविधान के लक्ष्यों के लिए हानिकारक है और हमारे राष्ट्रीय हित के विरोध में है।“

परन्तु भारत के साथ एक सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ पर भारतीय या कहें हिन्दू ग्रंथों का विरोध करना क्रांति मानी जाती है और विशेषकर मनुस्मृति के विषय में सकारात्मक बोलना अपराध माना जाता है। यह हो सकता है कि मनुस्मृति के कुछ भाग समय के अनुसार अप्रासंगिक हो गए हों, परन्तु पूरी की पूरी पुस्तक को ही भारत में खारिज किया जाना एक ऐसा फैशन माना जाता है, जिसके उपरान्त ही प्रगतिशील उसे समझा जाता है।

जस्टिस अब्दुल नजीर अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की सोलहवीं राष्ट्रीय काउसिल मीटिंग में “भारतीय विधि व्यवस्था के अनौपनिवेशिक करण” अर्थात Decolonisation of the Indian Legal System’” पर बोल रहे थे।

भारतीय विधि व्यवस्था में न्याय देने में औपनिवेशिक सोच है

उन्होंने कहा कि भारत में वर्तमान में न्याय व्यवस्था प्रदान करने में एक औपनिवेशिक सोच उपस्थित है। अंग्रेजों ने अपनी प्रजा की रक्षा तभी की, जब उन्होंने शासकों के अधिकारों के समक्ष आत्मसमर्पण किया। दूसरे शब्दों में, न्याय को माँगा नहीं जाता, बल्कि यह राज्य द्वारा रियायत के रूप में दिया जाता है।” उन्होंने कहा कि आज भी जजों को लार्डशिप या लेडीशिप कहकर संबोधित किया जाता है। और उन्होंने यह भी कहा कि आम याचिकाकर्ता ऊंचे न्यायालय में जाने का साहस नहीं कर पाता है, जो अंग्रेजों द्वारा प्रिवी काउंसिल के साथ लाई गयी प्रैक्टिस है।

और उन्होंने निचली अदालत में मामलों के ढेर पर भी बात की। उन्होंने कहा कि जब मुकदमों का ढेर लगा हुआ है, तो जजों को विवशता का अनुभव होता है।

उसके बाद उन्होंने जिस बात पर जोर दिया, उसे अनुभव तो हर स्वतंत्र भारतवासी करता है, परन्तु बोल नहीं पाता है।

भारत अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ, परन्तु विधि व्यवस्था औपनिवेशिक ही रही

जस्टिस अब्दुल नजीर ने कहा कि भारत में पहले से उपस्थित एक समृद्ध विधि व्यवस्था के होने के बावजूद, हर आक्रमण के बाद हम पर विदेशी कानून थोपे जाते रहे। दुर्भाग्य से जब भारत अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ तो भी भारतीय विधि व्यवस्था के कई मूलभूत पहलू अपरिवर्तित ही रहे, जिन्हने अंग्रेजो के शासनकाल की अवधि के दौरान भारत पर थोपा गया था।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत में सबसे प्राचीन विधि व्यवस्था होने के बावजूद औपनिवेशिक कानूनों का राज रहा है।

उन्होंने आगे कहा कि भारत में यह आड़ लेकर कि भारत में कोई भी विधि व्यवस्था पहले से मौजूद नहीं थी, उसका औपनिवेशिक अधिग्रहण दुर्भाग्यपूर्ण था और उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज वर्ष 2021 में भी वही औपनिवेशिक विधि व्यवस्था जारी है!

फिर उन्होंने कहा कि हमारी अभी की कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही है कि इसने खुद को प्राचीन विधि व्यवस्था से पृथक कर लिया है, तो इसमें सैद्धांतिक पोषण का अभाव है। भारत में न्याय की अचेतन में और अनदेखी व्यवस्था रही है।

भारत में प्राचीन काल में न्यायाधीश के लिए यह आवश्यक होता था कि वह ज्ञान की सभी शाखाओं और विधिशास्त्र एवं प्रशासन के विज्ञान में निपुण हो, परन्तु आज क्या स्थिति है? आज कौन से कानूनी और सामाजिक दर्शन से जज समृद्ध होते हैं?

उन्होंने यह भी प्रश्न किया कि भारतीय न्यायाधीश कहाँ से प्रेरणा लेते हैं? वह अपनी सभ्यता से प्रेरणा नहीं लेते हैं, बल्कि कुछ उन्हें रोमन कानून पता होते हैं और कुछ पश्चिमी न्याय के सिद्धांत, मगर अपनी सभ्यता में कानून और विधिशास्त्र की क्या स्थिति थी और कितनी प्रगति रही, यह नहीं पता है!

जस्टिस अब्दुल नजीर ही नहीं हैं बल्कि पहले भारत के मुख्य जस्टिस रमना भी न्यायिक व्यवस्था के भारतीयकरण की बात कर चुके हैं।

https://indianexpress.com/article/india/justice-system-colonial-not-suited-for-indian-population-says-cji-7517470/

सितम्बर 2021 में भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने यह कहकर एक हलचल उत्पन्न कर दी थी कि “हमारी न्यायपालिका आम लोगों के लिए कई बाधाएं उत्पन्न करती है। भारत के न्यायालय भारत की जटिलताओं के अनुसार काम नहीं कर पाते हैं। और फिर उन्होंने कहा था कि हमें एक ऐसी न्याय व्यवस्था की आवश्यकता है, जो समाज की व्यवहारिक वास्तविकताओं को समझें।

उन्होंने भी यही कहा था कि वर्तमान कानून व्यवस्था स्वभाव से औपनिवेशिक है और भारतीय जनमानस के अनुसार नहीं है!

अब जब यह बात न्यायपालिका से ही आ रही है, तो क्या यह आशा की जा सकती है कि भारत को उसकी अपनी विधि व्यवस्था प्राप्त होगी?

Subscribe to our channels on Telegram &  YouTube. Follow us on Twitter and Facebook

Related Articles

1 COMMENT

  1. भारतीय प्राचीन विधि व्यवस्था और औपनिवेशिक सोच रखने वाली वर्तमान विधि व्यवस्था पर सुंदर आलेख

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest Articles

Sign up to receive HinduPost content in your inbox
Select list(s):

We don’t spam! Read our privacy policy for more info.