एनसीईआरटी (NCERT) बच्चों को पिछले कई वर्षों से एक जहर सा पिलाती चली आ रही थी, जो मात्र इतिहास और राजनीति एवं समाजशास्त्र तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह उन पुस्तकों के माध्यम से सब कुछ नष्ट कर रहा था। कुछ उदाहरण आइये देखते हैं। कक्षा ग्यारह की राजनीतिक विज्ञान की पुस्तक 2 में स्वतंत्रता नामक अध्याय में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कई लोगों के उदाहरण हैं, जैसे नेल्सन मंडेला का उदाहरण है, उसी के साथ म्यांमार की आँग सू का उदाहरण है। परन्तु जिस देश ने स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा लंबा संघर्ष किया और जब उसे स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो उसके टुकड़े होकर उसका उल्लेख इस पूरे अध्याय में नहीं है। महात्मा गांधी के सिद्धांतों का पालन करने वाली आँग सान सू तो इस अध्याय में उपस्थित हैं, परन्तु गांधी जी नहीं।
स्वतंत्रता के विषय में भारत का क्या दृष्टिकोण है, स्वतंत्रता के भारतीय नायक कौन थे? महात्मा गांधी, सरदार पटेल, रानी लक्ष्मी बाई सहित स्वतंत्रता का कोई भी भारतीय नायक या इनका स्वतंत्रता के लिए संघर्ष इस अध्याय में उपस्थित नहीं है। तो जब हमने पिछले कुछ वर्षों से कक्षा बारह उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों की स्थिति देखी है, उसमें बहुत संभव है कि बच्चा अपनी जड़ों से एकदम कट जाए। क्योंकि उसके पास स्वतंत्रता का अपना एक भी नायक नहीं है।
अब आइये देखते हैं कि इसे लिखा किसने है?
इस पाठ्यपुस्तक का निर्माण करने वाले व्यक्तियों में मुख्य सलाहकार में दो नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं और वह हैं, सुहास पलशीकर और योगेन्द्र यादव। जहां सुहास पलशीकर वर्ष 2012 में विवाद में आए थे जब उनपर डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के विषय में आपत्तिजनक कार्टून सम्मिलित करने का आरोप लगा था और उन पर आक्रमण भी हुआ था। विवादों के बाद उन कार्टून को पाठ्यपुस्तक से हटा लिया गया था। परन्तु यह वर्ष 2012 में हुआ था। और यह भी कहा जाता है कि वह इस सलाहकार समिति में वर्ष 2012 तक ही थे, परन्तु इस वर्ष की पुस्तकों में भी उनका नाम था। देश और व्यवस्था के प्रति उनके क्या विचार हैं, यह हम उनके द्वारा लिखे गए कई लेखों के शीर्षक पढ़कर ही जान सकते हैं। उनका लिखा एक लेख है कि कैसे भाजपा की दूसरी बार आई सरकार ने ‘बहुसंख्यकवाद’ को बढ़ा दिया है।
ऐसे एक नहीं कई लेख हैं, जिसमें जनता द्वारा पूर्ण बहुमत से चुनी हुई सरकार को अस्वीकार करने का भाव ही नहीं है अपितु जनता के मत का भी अपमान है।
जबकि यही लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ इसी अध्याय में पढ़ाते हुए लिखते हैं “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा, ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ माना जाता है। जे.एस. मिल ने सबल तर्क रखे हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित नहीं होनी चाहिए। यह चर्चा के लिए एक अच्छा प्रसंग है।”
जब वह लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहे हैं, उस समय वह भारत में चली आ रही शास्त्रार्थ परम्परा का उल्लेख नहीं करते हैं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही एक रूप है, बल्कि उससे बढ़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती जब आप किसी को भी शास्त्रार्थ की चुनौती दे सकते हैं। स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं।
पूरे अध्याय में भारतीय मानक नहीं हैं, भारतीय उदाहरण नहीं हैं।
हरि वासुदेवन के विषय में पिछले लेख में लिखा ही जा चुका है।
अब आते हैं, सबसे महत्वपूर्ण नाम, योगेन्द्र यादव पर। योगेन्द्र यादव को कौन नहीं जानता। हिन्दुओं के प्रति उनकी घृणा को कौन नहीं जानता। वह अपने राजनैतिक विचारों के प्रति इतने पक्षपाती हैं, कि भाजपा की विजय को अभी तक नहीं पचा पाएं हैं और अब वह किसानों का मुखौटा लगाकर बैठ गए हैं। जब अपने लेखों के द्वारा भाजपा को सरकार बनाने से नहीं रोक सके तो अब किसान बनकर बैठ गए हैं। और बहुत ही निर्लज्जता से इसे राजनैतिक आन्दोलन बना रहे हैं।
अलगाववाद और अपने ही देश में कथित आज़ादी की जो आग आज हम देख रहे हैं, वह कहीं और से नहीं बल्कि इन लोगों के द्वारा लिखी गयी इसी पुस्तक से आई है, जिसमें “राष्ट्रवाद” नामक अध्याय में वह राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की बात करते हैं। इस पुस्तक में लिखा है “बाकी सामाजिक समूहों के अलग राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहते हैं। दूसरे शब्दों में वह आत्मनिर्णय का अधिकार माँगते हैं…..राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से माँग करता है कि उसके पृथक राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाए। अक्सर ऐसी माँग उन लोगों की ओर से आती है, जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भूभाग पर साथ साथ रहते हुए आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो। कुछ मामलों में, आत्मनिर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से जुड़े होते हैं।”
और इसी के साथ उन्होंने बास्क राष्ट्रवादियों का भी उदाहरण दिया है कि कैसे वह स्पेन के साथ खुश नहीं हैं। और इसके बाद पूछते हैं कि क्या आप दुनिया के दूसरे ऐसे उदाहरणों के बारे में विचार कर सकते हैं? क्या आप अपने देश के ऐसे क्षेत्रों और समूहों के विषय में विचार कर सकते हैं, जहाँ इस तरह की माँग की जा रही है?
यहीं से उस ‘आज़ादी’ के नारे की शुरुआत होती दिखती है, जो हमें आजकल सुनाई पड़ता है।
ऐसे ही “धर्मनिरपेक्षता” अध्याय में हिन्दू धर्म के प्रति अपमानजनक बातें हैं, जैसे दलितों को हिन्दू मंदिरों में प्रवेश करने से हमेशा रोका जाता रहा है, जबकि ऐसी किसी भी घटना का अतीत से भी यह लोग प्रमाण नहीं दे पाए हैं।
इसी प्रकार हम जब कक्षा बारह के इतिहास की बात करते हैं तो पाते हैं, कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के प्रथम बिंदु 1857 की क्रान्ति के विषय में भी अपमानजनक लिखा हुआ है। आइये पहले जानते हैं कि इसे लिखा किसने है:
कक्षा बारह की इतिहास की पुस्तक के अध्याय 11 को कोलकता के ‘दी टेलीग्राफ’ के कार्यकारी सम्पादक रुद्राग्शु चटर्जी ने लिखा है। इसी अध्याय में एक कपोल कल्पित कहानी है कि जब गाय और सूअर की चर्बी के कारतूस वाली अफवाह पैदा हुई तो इसका स्रोत खोजा गया, अंग्रेजी कमान्डेंट कैप्टेन राईट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि दमदम स्थित शस्त्रागार में काम करने वाले ‘नीची जाति’ के खलासी ने जनवरी 1857 के तीसरे हफ्ते में एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने के लिए कहा था। ब्राहमण सिपाही ने यह कहते हुए अपने लोटे से पानी पिलाने से इंकार कर दिया, कि नीची जाति के छूने से लोटा अपवित्र हो जाएगा। तो खलासी ने कहा “वैसे भी तुम्हारा धर्म भ्रष्ट होने वाला है क्योंकि तुम्हें अब गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुँह से खींचना होगा।”
बच्चों के मन में हिन्दुओं के प्रति घृणा भरने के बाद आगे लिखा है कि इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता के विषय में कहना मुश्किल है।
तो मात्र दो ही पुस्तकों के दो अध्यायों से ही हम यह देख सकते हैं कि कैसे बच्चों के दिमाग में जहर भरा गया और फिर इस सरकार के भूतपूर्व शिक्षा मंत्री द्वारा सगर्व यह कहा गया कि ‘हमने एक भी शब्द नहीं बदला है’! क्या ऐसे अध्यायों में बदलाव नहीं किए जाने चाहिए थे? जिससे हम आज जो स्थिति अपने बच्चों की देख रहे हैं, वह शायद ऐसी न होती!
अब हम नई समिति से अपेक्षा कर सकते हैं कि वह इन विष बुझे लेखकों से मुक्त होगी और बच्चों के हृदय में भारत के प्रति प्रेम उत्पन्न करेगी, हिन्दुओं के प्रति प्रेम उत्पन्न करेगी।
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