इतिहास की किताबों में मुग़ल बादशाहों के प्रति एक सहानुभूति उत्पन्न करने की कुचेष्टा की जाती है। ऐसा ही एक बादशाह था क्रूर बाबर का अय्याश बेटा हुमायूँ, जिसे कई बार रानी कर्णावती के माध्यम से रक्षाबंधन शुरू करने वाला बताया जाता है, और जिसका खंडन हम अपने लेख में कर चुके हैं।
परन्तु वामपंथी इतिहासकारों ने भी हुमायूं की उस अफीम को हिन्दू जनता को खिलाने की कोशिश की, जो अफीम खुद हुमायूं खाता था और वह खुद कहता था इस बात को। परन्तु हिन्दुओं को वामपंथी इतिहासकारों ने एक ऐसे कूड़ेदान के रूप में देखा, जहाँ पर वह अपने दिमाग की कूड़ा कल्पना को इतिहास का नाम डाल सकते थे।
हुमायूँनामा लिखने वाली गुलबदन बेगम ने कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जो इन महान मुगलों की वास्तविकता दिखाती हैं। पृष्ठ 44 पर वह लिखती हैं कि
“माहम बेगम की बहुत इच्छा थी कि हुमायूं के पुत्र को देखूं। जहाँ सुन्दर और भली लड़की होती, वह बादशाह की सेवा में लगा देतीं थी। खदंग चोबदार की पुत्री मेव जान मेरी गुलामी में थी। बादशाह फिर्दैसमकानी की मृत्यु के उपरान्त एक दिन उन्होंने स्वयं कहा कि हुमायूं, मेव जान बुरी नहीं है। इसे अपनी कनीज क्यों नहीं बनाते। इस कथनानुसार उसी रात हुमायूँ बादशाह ने उससे निकाह कर लिया”
यह समझ नहीं आता है कि आखिर यह क्या मानसिकता थी कि लड़के की चाह में कनीजों से ही निकाह करा दिया जाएगा। यह कौन सी गंदी मानसिकता थी जिसमें अम्मीजान गोदियों में कनीजें डालती रहती थीं और बादशाह उन कनीजों से निकाह करते रहते थे, कि बेटा हो जाए, और जब ज्यादा बेटे हो जाते थे तो आपस में ही कटकर मरते थे, जब तक मुग़ल वंश रहा तब तक परस्पर आपस में लड़कर ही गद्दी का परिणाम अपने पक्ष में करते रहे थे।
हुमायूँ को भी अपने भाइयों से विद्रोह का सामना करना पड़ा था और उसने भी अपने भाइयों के साथ इस राज्य के लिए खूनी संघर्ष किया था। पर सबसे ज्यादा जरूरी था कि इन लोगों के लिए औरतें क्या थीं? क्या कनीजें सेवा में इसलिए दी जाती थीं कि केवल बेटा पैदा करके दें?
और इनके लिए हरम क्या थे और वह कैसे काम करते थे? यह इतिहास में हैं कि हरम को संस्थागत रूप से हुमायूँ के बेटे अकबर ने स्थापित किया था, शायद वह अपने अब्बू के जैसे हरम को अपने साथ नहीं लेकर जाता था, बल्कि जहां से जो भी भली लड़की लगती थी उसे उठा लाता था।
हुमायूं की अय्याशियों के किस्से जितने कुख्यात हैं, उतना अज्ञात है यह कि अपने बच्चों को असहाय छोड़कर खुद आगे बढ़ जाना। इसका और शेरशाह सूरी के बीच निर्णायक चौसा का युद्ध हुआ था। उस समय उसके साथ उसकी औरतें थीं। चौसा के युद्ध के दौरान हुमायूं और बेगा बेगम की दूसरी संतान अकीक बेगम, जो महज आठ बरस की थी, खो गयी थी। कहाँ गयी, मर गयी या जिंदा रही, जिंदा रही तो ऐसे ही किसी की कनीज़ तो नहीं बनी और अगर मर गयी तो सुपुर्देखाक इज्जत से हुआ होगा क्या? बादशाह ने जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसकी अकीक बेगम के संग आखिर हुआ क्या होगा?
इसी हुमायूँ नामा में गुलबदन बेगम ने लिखा है
“लाहौर पहुँचने पर समाचार आया कि गंगा के किनारे पर युद्ध हुआ और शाही सेना हार गयी। इतना ही अच्छा रहा था कि बादशाह बच गए थे।
दूसरे संबंधीगण जो आगरे में थे, वह अलवर होते हुए लाहौर चले। उस समय बादशाह ने मिर्जा हिंदाल से कहा कि प्रथम घटना (चौसा युद्ध) में अकीक बीवी खो गयी थी और दुःख है कि उसे अपने सामने ही क्यों नहीं मार डाला। अब भी औरतों का ऐसे समय साथ ही रक्षा के स्थान पर पहुंचना कठिन है!”
मुगलों का महिमामंडन करने में यह बार बार कहा गया कि हिन्दू अपनी लड़कियों को मार डालते थे, हिन्दुओं के सामने तो वह मानसिकता थी जिसमें जीतने वाले मुस्लिम हिन्दू लड़कियों का बलात्कार करते थे, और मंडी लगाते थे, ऐसे कई कारनामों से मुग़ल इतिहास भरा है, और जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तालिबानी दे रहे हैं। परन्तु इसी चौसा के युद्ध में इसी अकीक बेगम की अम्मी बेगा बेगम, शेरशाह सूरी की पकड़ में आ गई थी, मगर शेरशाह सूरी ने उसकी रक्षा की और यह सुनिश्चित किया कि मुगलों की औरतों को कोई नुकसान न हो, और मुगलों की औरतों और लड़कियों को गुलाम न बनाएं। मगर इसी शेरशाह सूरी ने यह सुविधा हिन्दुओं के लिए नहीं दी थी। यह भी हम अपने पाठकों को बता चुके हैं।
परन्तु हुमायूँ को किस बात का डर था? क्योंकि युद्ध तो दो मुसलमानों के बीच ही हुआ था?
हम यह भूल जाते हैं कि अय्याशियों की औलादों पर मातम तो होता है, मगर उस मातम को वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाता है इतिहास, इतिहास बहुत क्रूर होता है इन औलादों के साथ, जब अपने साथ नहीं रखते तो इतिहास कहाँ तक टाँगे घूमेगा!
न जाने कितनी अफीक बेगम अब तक बह गयी हैं, कौन जान पाया है और कौन जान पाएगा? पर जब अफगानिस्तान से भागते हुए आदमियों को देखते हैं, और उन्हें भी केवल अपनी जान बचाते हुए एवं अपनी अपनी औलादों को कहीं छोड़कर भागते हुए देखते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे कहीं इतिहास खुद को दोहराता है। अपनी औलादों को दुश्मनों की दया पर सौंप कर जाने का एक लम्बा इतिहास है।
तभी कई बार केवल आदमियों की भीड़ काबुल हवाई अड्डे पर दिखी थी, उनकी औरतें कहाँ थीं? क्या वह भी छोड़ दी गयी थीं अकीक बेगम की तरह? यह केवल एक प्रश्न है और कुछ नहीं
प्रश्न है कि इस कमजोरी पर भी क्यों व्याख्यात्मक सवाल नहीं पूछे गए? जो तब सिद्धांत तक में नहीं पढ़ाया गया, आज अफगानिस्तान से भागते हुए आदमियों की शक्ल में दिख रहा है, जिसमें औरतों और बच्चियों की जगह बहुत कम है!