वह भी बहुत साधारण और सामान्य दिन था जब जीजाबाई त्रयम्बकेश्वर के दर्शन हेतु निकली थीं। शिवाजी को अपनी सखियों के हवाले कर! जीजाबाई को अशुभ होने का आभास तो हो ही रहा था! यही कारण था कि वह शिवाजी को दुर्ग में ही छोड़ आई थीं। जीजाबाई की आशंका निर्मूल नहीं थी। मुग़ल उन्हें खोजते खोजते त्रयम्बकेश्वर तक आ गए थे और एक दिन उनकी पालकी को मुग़ल सेना ने घेर लिया था। मुग़ल सेना के हर्ष का कोई ठिकाना न रहा जब उन्होंने जीजाबाई को अपनी हिरासत में लिया। परन्तु उनकी प्रसन्नता मात्र कुछ ही क्षण की रही जब उन्हें यह पता चला कि उस पालकी में केवल और केवल जीजाबाई हैं। जिस पुत्र को कैद करने के लालच में उन्होंने यह सब किया, वह पुत्र अब भी उनकी पहुँच से दूर था। जीजाबाई ने जैसे ही अपनी पालकी के चारों ओर मुग़ल सेना देखी, उन्होंने संघर्ष का विचार त्याग कर स्वयं को सेना के हवाले करना ही उचित समझा! यह समय संघर्ष का नहीं चुप रहकर अपने पुत्र की रक्षा करने का था। जब एक दिन बाद भी माँ नहीं आईं तब छ वर्ष के शिवा को पता चल गया था कि माँ साहेब की आशंका सही साबित हुई और अब उन्हें माँ साहेब की इच्छानुसार अपने प्राणों की रक्षा करनी है।
“शिवा, मैं स्वतंत्र मराठा राज्य देखे बिना इस धरा से नहीं जाऊंगी! इसलिए यदि मुझे कभी मुग़ल सेना पकड़ भी ले तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी है और स्वयं को तब तक मुगलों के हाथों में नहीं जाने देना है जब तक तुम उनका हर क्षण तक विध्वंस करने के लिए तैयार न हो जाओ! तुम्हें स्वयं को सुरक्षित रखना है हर कीमत पर!” और माँ साहेब के यह वाक्य नन्हे शिवा के कानों में गूंजते रहे थे! मात्र छ वर्ष के शिवा ने स्वयं की कीमत को पहचान लिया था। और माँ साहेब को यह आश्वासन दे दिया था कि वह जब तक भगवा राज्य स्थापित नहीं कर देते हैं, तब तक स्वयं को कुछ नहीं होने देंगे!
जीजाबाई नन्हीं हथेलियों के इस आश्वासन से निश्चिन्त थीं कि उनके पुत्र को कुछ नहीं होगा! उन्हें शिवाई माँ और माँ भवानी पर पूर्ण विश्वास था और इसी विश्वास के चलते मुगलों की सेना के कैद में आने के बाद भी वह भय से पूर्णतया निरपेक्ष थीं।
यह बात जीजाबाई को नहीं ज्ञात हो पाई थी कि क्या यह सूचना किसी मुखबिर ने दी थी या फिर उनके ही किसी प्रिय ने! परन्तु यह सोचने और विचारने का समय था ही नहीं! समय था आगे बढ़कर शांत रहकर अपने कार्य करने का! मुग़ल सेना का लक्ष्य जीजाबाई नहीं शिवाजी थे। परन्तु यह शिवाजी का माँ को दिया गया आश्वासन ही था जिसके चलते वह पूरे तीन वर्षों तक स्वयं को छिपाए रखे रहे! मुग़ल कभी कभी कहते भी कि शिवा आखिर कब्ज़े में क्यों नहीं आ रहा? क्या उसे जमीन खा गयी है या आसमान निगल गया है? वह है कहाँ? क्या उसे गायब होने की कोई तरकीब आती है? जब जब मुग़ल शिविर में शिवाजी को लेकर यह चर्चाएँ होतीं तो जीजाबाई का मन होता कि वह कह दें कि मुग़ल कभी भी शिवाजी को नहीं पकड़ पाएंगे! न ही अभी और न ही कभी!
शिवाजी को अभी तक याद है कि कैसे हर रात उन्हें अपनी माँ की लोरी का अभाव अनुभव होता था। इस पहाड़ी पर उपस्थित दुर्ग में वह अकेले थे अब! जंगली जानवरों से घिरे इस दुर्ग में अब वह नितांत अकेले थे! उनके पास पिता थे नहीं, माँ अब मुगलों की कैद में थीं और उनके पास था एक स्वप्न! एक ऐसा स्वप्न जिसे पूरा करने के लिए वह इस संसार में आए थे। एक ऐसा स्वप्न जो उनकी माँ का जीवन था, एक ऐसा स्वप्न जिसके कारण लहू उनकी नसों में संचारित होता था।
परन्तु जो इस स्वप्न का संवाहक थी वह अब उनके साथ नहीं थी। वह अब दुश्मनों की कैद में थीं। शिवा को माँ साहेब के बने भोजन का स्मरण हो आता, उनकी नन्ही आँखों में अश्रु झिलमिला उठते! परन्तु यह समय अश्रु बहाने का नहीं था, यह समय रणनीति बनाने का था, स्वयं को सुरक्षित रखने का था। जहां संपन्न से संपन्न एवं शक्तिशाली हिन्दू मुगलों या आदिलशाही की अधीनता स्वीकार कर एक सुख सुविधा संपन्न जीवन जी रहे थे, उसी समय शिवा एक ऐसे सपने का पीछा कर रहे थे, जिसकी कल्पना ही स्वयं में नहीं की जा सकती थी।
“तीन वर्ष हो गए हैं? आप लोग न ही तो शिवा को खोज पाए हैं, और न ही शाहजी का कुछ अमंगल कर पाए हैं? ऐसे में जीजाबाई को कैद में रखना आपको नहीं लगता कि सर्वथा गलत कदम है?” जगदेव राव ने मुगलों से कहा
“वह पति पत्नी साथ नहीं रहते हैं, यदि साथ रह रहे होते, तो क्या शाह जी उन्हें रिहा कराने नहीं आते?” मुग़ल शिविर में जाधवराव के भाई जगदेव थे जो बार बार यह कहते हुए जीजाबाई को हिरासत में रखे जाने का विरोध करते रहते थे, वह बार बार कहते कि जाधवराव और उनके जमाई में संबंध सही नहीं थे और यहाँ तक कि शाहजी ने तो अपनी नई पत्नी के लिए जीजाबाई और उसके पुत्र को त्याग रखा है, ऐसे में शाहजी की कारगुजारियों का बदला जीजाबाई से लेना, उचित नहीं! माँ ने शिवा को बताया कि ऐसी किसी भी बात पर मुग़ल नहीं पिघले! और उन्होंने शिवाजी की तलाश जारी रखी थी। इधर इन तीन वर्षों में अपनी माँ के न होने पर शिवाजी ने दुर्ग में सामने आने वाली कठिनाइयों को प्रत्यक्ष अनुभव किया एवं स्वयं को मजबूत बनाए रखा!
वह रोज़ संकल्प लेते, रोज अपनी माँ साहेब के सही सलामत आने की प्रार्थना करते! नन्हे शिवा को यह विश्वास था कि उनकी माँ साहेब अवश्य आएंगी! परन्तु उनके पास हनुमान जैसा कोई दूत न था! जो उनकी माँ का पता ला देता, वह रोज हनुमान जी के सामने अपनी नन्ही हथेलियों में अपनी माँ का साथ मांगते! और दुर्ग की दीवारों पर बैठकर अपनी माँ की प्रतीक्षा करते! यह प्रतीक्षा बहुत लम्बी होती जा रही थी। उनके दो जन्मदिन भी माँ साहेब के आशीर्वाद के बिना ही निकल गए थे! जीजाबाई भी उतना ही व्यग्र थीं कि उनका शिवा कैसे रह रहा होगा! कैसे वह नन्हा बालक अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता होगा? कौन उसके तिलक करता होगा? परन्तु उन्होंने आस नहीं छोड़ी थी। उन्होंने स्वयं को मुग़ल शिविर में धार्मिक क्रियाकलापों में व्यस्त कर लिया था। इन्हीं धार्मिक क्रियाकलापों के कारण वह मुग़ल शिविर में कुछ दूरी तक जा भी सकती थीं। पहले तो उनके साथ कुछ सैनिक होते भी थे परन्तु बाद में शिथिलता आ गयी थी। इसी शिथिलता का लाभ उन्होंने उठाया और एक दिन वह उस गिरफ्त से भागकर अपने पुत्र के समक्ष खड़ी हो गईं! शिवाजी जो रोज दुर्ग की दीवार पर बैठकर अपनी माँ की प्रतीक्षा करते थे उस दिन भी दुर्ग की दीवार पर अपनी माँ साहेब की स्तुति में उनका नाम लिख रहे थे कि उन्होंने सामने से कुछ स्त्रियों के समूह को आते हुए देखा! कुछ स्त्रियाँ भजन गाते हुए आ रही थीं। सफ़ेद वस्त्रों में स्त्रियों का समूह शीघ्र ही शिवाजी के सम्मुख आ गया!
“”राजकुमार हमसे भजन सुन लीजिए! हमारी माँ के पास बहुत शक्ति है! आपकी हर इच्छा को वह पूर्ण करेंगी!””
शिवा ने सफ़ेद वस्त्रों में भजन गाती हुई उन स्त्रियों की कथित माँ को देखा! देहयष्टि से तो कुछ परिचित लग रही थीं! तीन वर्ष हुए थे माँ को गए हुए! क्या उनकी माँ हो सकती है यह? उन्हें माँ के अतिरिक्त और क्या चाहिए होगा?
“क्या आपकी माँ मेरी माँ साहेब को ला सकती हैं?” शिवा ने उन स्त्रियों से प्रश्न किया!
“क्यों नहीं! हो सकता है आपकी माँ साहेब यहीं हों, हम सबके मध्य हों!” उन स्त्रियों में से ही कोई स्वर आया “हम सब आपकी माएं ही तो हैं! और आप हमारे पुत्र, जिसकी सुरक्षा का अधिकार हम पर है!”
“पुत्र अपने नेत्र बंद कर लो!” एक स्वर गूंजा और अचानक से शिवाजी को अपने कंधे पर एक स्पर्श अनुभव हुआ! ओह, यह तो, यह तो————————————
शिवा इस स्पर्श को पहचानने में गलती नहीं कर सकते थे! ““माँ, माँ,””कहते हुए नन्हे शिवा ने अपनी माँ को कसकर पकड़ लिया! पूरे तीन वर्ष उपरान्त माँ और पुत्र का मिलन हुआ था! शिवनेरी का दुर्ग जहां पहले एक बार शिवाजी के जन्म का साक्षी बना था वहीं आज एक और अद्भुत घटना का साक्षी बन रहा था। यह इतिहास की सबसे दुर्लभ घटनाओं में से एक घटना थी!
शिवा की आँखों से आंसू बह बहकर अपनी माँ की चरणों में स्थान पा रहे थे तो वहीं जीजाबाई के आंसू अपने पुत्र के केशों में घुले जा रहे थे!
संभवतया यह प्रथम बार था जब शिवाजी को हर्ष के आंसुओं का मोल पता चला था। यह इतिहास की कतरनों में सम्मिलित होने की घटना नहीं थी बल्कि यह घटना शिवाजी के जीवन को प्रेरणा देने वाली घटना थी। इस घटना के उपरान्त शिवाजी और जीजाबाई और सतर्क हो गए थे!
“शिवा! तुम माँ साहेब को लेकर आज कुछ ज्यादा ही विचलित नहीं हो रहे हो?” शिवाजी को लगा जैसे उनकी माँ साहेब ही उनके समक्ष खड़ी हो गयी हों!
वह जय सिंह के शिविर की तरफ चलते चलते पुन: एक बार रुक गए!
माँ साहेब जैसे उनके सम्मुख उपस्थित हो गयी थीं! “जीवन का अर्थ है चलना, और सकारात्मक रूप से चलना! “मैं तीन वर्षों तक मुगलों की कैद में रही, मैंने हिम्मत नहीं खोई! और मैं नहीं चाहती कि मेरे पुत्र को लोग एक निर्बल शासक के रूप में स्मरण करें! दो कदम आगे चलने के लिए एक कदम पीछे करने में क्या बुरा है!”
स्रोत: महानायक शिवाजी उपन्यास