भारत में इतिहास लेखन में नायकों को खलनायक एवं मुस्लिमों को नायाक बनाने की परम्परा रही है। मुगलों के प्रति वाम और इस्लामी इतिहासकारों का यह अतिशय प्रेम भारत के सम्मान को चोट पहुंचाने वाला रहा है। बार-बार आक्रमणकारी और हिन्दू हन्ता मुगलों को महान बताया गया, यहाँ तक कि उन्हें हिन्दुओं का मित्र और हिन्दुओं से बेहतर बताया गया।
परन्तु उन हिन्दू शासकों का वर्णन अत्यंत अल्प रहा, जिन्होनें मुगलों की महानता के गढ़े हुए महिमामंडन पर तो प्रहार किया ही, साथ ही उन्होंने हिन्दू वीरता को इस प्रकार परिभाषित किया कि उससे प्रेरणा कई शताब्दियों तक ली जा सकती है। ऐसे ही एक नायक थे महाराणा प्रताप, जिनका जन्म हुआ था ज्येठ माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जो उस वर्ष 9 मई को थी, को हुआ था। हमने अपने पाठकों के लिए 9 मई को भी एक लेख प्रस्तुत किया था। परन्तु उनका जीवन ऐसा है कि जितना भी लिखा जाए उतना ही कम है।
एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या कारण है कि अकबर के प्रति तो वाम और इस्लामी इतिहासकार इस सीमा तक मोहित हैं कि हजारों निर्दोष हिन्दुओं की ह्त्या को भी उचित ठहरा देते हैं, तो वहीं अंतिम सांस तक अकबर का विरोध करके स्वतंत्र जीवन जीने वाले महाराणा प्रताप को एक पराजित योद्धा बता देते हैं।
जब नए तथ्य यह बताते हैं कि हल्दीघाटी का युद्ध अकबर ने नहीं जीता था, तो ऐसे में इन इतिहासकारों की मानसिकता का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। परन्तु आज महाराणा प्रताप की वीरता पर बात करने का दिन है।
महाराणा प्रताप, जिन्होनें मुगल आक्रान्ताओं के सामने घुटने न टेकने का निर्णय लिया था और जिन्होनें हार को जीत में बदल दिया, उन्हें नीचा दिखाया जाता रहा है इतिहास में! हर युद्ध में दो पक्षों में एक ही सही होता है। और हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ही सत्य की ओर थे और जो सत्य है वह पराजित कैसे हो सकता था? वह पराजित हो ही नहीं सकता!
रक्त से सने जनेऊ के ढेर लगते जाते, सिरों की मीनारें बनती जातीं! वैसे भी हेमू का वध करके ही उसने गाजी की उपाधि धारण की थी। ऐसे में मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप के लिए यह बहुत आवश्यक था कि वह अकबर को दूर रखें। अकबर से लोहा लेते रहें। वह लोहा लेते रहे, अपनी अंतिम सांस तक!
हल्दी घाटी के युद्ध में जिसके विषय में यह कहा गया है कि मुगलों ने जीता, वह झूठ है क्योंकि मुगलों की सेना की हानि हुई थी, हालांकि महाराणा प्रताप युद्ध से चले गए थे, परन्तु वह जीवित थे और उनके जाने के बाद मुगल सेना भी सही सलामत नहीं रह पाई थी। उसकी भी हानि हुई थी और शीघ्र ही महाराणा प्रताप ने अपना खोया हुआ साम्राज्य लगभग पूरा प्राप्त कर लिया था।
विसेंट स्मिथ ने लिखा है कि
“यह युद्ध जून 1576 में खमनौर के गाँव के निकट हुआ। उस समय बदाऊंनी, जो अकबर के दरबार में इमाम था, उसने इस पाक जंग में जाने के लिए विशेष छुट्टी ली थी और उसने आसफ खान के अनुयायी के रूप में भाग लिया था। युद्ध में उसका वर्णन एकदम सटीक है। उसने गर्मी के बावजूद जंग का लुत्फ़ उठाया।
एक ऐसा क्षण आया जब इस युद्ध में यह समझ नहीं आया कि दोस्त और दुश्मन राजपूतों को कैसे पहचाना जाए क्योंकि वह कहीं अपने ही खेमे के राजपूतों को न मार दे तो उससे कहा गया कि “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस ओर के राजपूत मारे जा रहे हैं; जो भी मारे जाएं यह इस्लाम के लिए फायदा है!”
अर्थात हिन्दुओं को ही एक दूसरे से लड़वा कर उनकी ही भूमि पर उन्हें मारा गया।
यह युद्ध बहुत भयानक था। दोनों ही ओर राजपूत लड़ रहे थे और साथ ही लड़ रहे थे अकबर की ओर से वह रहीम, जो हिन्दुओं के आराध्यों के लिए दोहे लिखते थे और फिर जाकर हिन्दुओं को ही मारने के लिए युद्ध का हिस्सा बने थे। इस युद्ध में लगभग पांच हजार राजपूत महाराणा प्रताप की सेना के वीरगति को प्राप्त हुए और महाराणा प्रताप घायल होकर वहां से चले गए!
क्योंकि उन्हें अपने मेवाड़ को मुक्त कराना था। इतिहास में मुगल सेना को विजयी घोषित कर दिया, जबकि सत्यता विसेंट स्मिथ भी लिखते हैं कि मुगल सेना पराजय की कगार पर पहुँच गयी थी।
इसके साथ ही यह भी इतिहास में लिखा है कि जब राजपूत ही दोनों ओर से मार रहे थे तो, मुगलों की ओर के राजपूतों में कई प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो गए थे और इस कारण मुगलों की हानि अधिक हुई!
महाराणा प्रताप ने बाद में मेवाड़ के लगभग सभी क्षेत्रों को मुगल सेना से मुक्त कर लिया था। और बाद में अकबर का ही साहस उनसे टकराने का नहीं हुआ क्योंकि वह शेष राज्यों में विद्रोह को दबाने में लगा हुआ था।
पूरे मुग़ल काल में हर कथित बादशाह के शासनकाल में हिन्दुओं ने संघर्ष किया है और नायकों से भरा हुआ है इतिहास, परन्तु गुलाम और वाम मानसिकता ने हमें सदा पराजित ही दिखाया है, समय आ गया है इतिहास को अपनी चेतना से लिखने का, क्योंकि श्रुति अमर रहती है, श्रुति चेतना में रहती है और चेतना का इतिहास सबसे महत्वपूर्ण होता है!