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Monday, June 5, 2023

शेरशाह सूरी से इतना प्रेम क्यों?

हिंदी पट्टी के साहित्यकारों में शेरशाह सूरी को लेकर प्रेम की एक ऐसी धारा बहती है, जो हतप्रभ करने वाली है। वह किसी से भी प्रेम कर सकते हैं, इससे आपत्ति नहीं है, परन्तु उसके आधार पर हमारे बच्चे ऐसे लोगों को नायक मान बैठते हैं, जिनके हाथ हिन्दुओं के खून रंगे होते हैं और क्यों? क्योंकि गद्दी पाते ही उनका मजहबीपन जाग जाता है और वह हिन्दुओं के लिए “बुत-परस्त” और काफिर जैसे शब्द प्रयोग करने लगते हैं।

शेरशाह सूरी से प्यार में वह इतने पागल हैं कि जिस सड़क को उसने बनवाया तक नहीं था, उसे भी उसके नाम पर सौंप दिया है। आत्मघाती हिन्दू लेखकों के भीतर मुस्लिम आतताइयों को ही अपना उद्धारक बनाने की चाह ऐसी रही है कि उन्होंने अपने स्वर्णिम इतिहास को भी शेरशाह जैसे व्यक्ति की झोली में डाल दिया।

शेरशाह सूरी का जो कार्यकाल था वह मुश्किल से पांच वर्ष रहा। उसने हुमायूं को कन्नौज के पास युद्ध में वर्ष 1540 में पराजित किया था और वह एक दुर्घटना में वर्ष 1545 में मारा गया था। इसका अर्थ यह हुआ कि उसके पास केवल 5 वर्ष का ही शासन करने का समय था, और उस पर भी उसने यह एक वर्ष का समय कलिंजौर के किले पर अधिकार करने में लगा दिया था। और शेष चार वर्षों में वह विद्रोह को शांत करने में जुटा रहा था, तो वह ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण कैसे करा सकता था? वह पथ जिसे संस्कृत में उत्तरपथ बोला जाता था, और जिसका उल्लेख पाणिनि ने किया, जो काबुल से कलकत्ते तक जाता है, और जिसका उल्लेख मेगस्थनीज ने इंडिका में किया है, उसके निर्माण का श्रेय मात्र चार साल शासन करने वाले शेरशाह के हवाले कैसे कर दिया?

इंटरकोर्स बिटवीन इंडिया एंड द वेस्टर्न वर्ल्ड, एच जी रौलिंसन , कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस 1916 (INTERCOURSE BETWEEN INDIA AND THE WESTERN WORLD, H. G. RAWLINSON, Cambridge University Press 1916) में इंडिका के माध्यम से मेगस्थनीज द्वारा उसी मार्ग का वर्णन है, जिसे किसी और के नाम पर प्रचारित किया गया है। इसमें लिखा है “मेगस्थनीज ने जैसे ही भारत में प्रवेश किया, वैसे ही जिसने उसे सबसे पहले प्रभावित किया, वह था शाही मार्ग, जो फ्रंटियर से पाटलिपुत्र तक जा रहा था।

उसके बाद वह इस पूरे मार्ग का वर्णन करते हैं।  इसमें लिखा है “यह आठ चरणों में बना हुआ था और वह पुष्कलावती अर्थात आधुनिक अफगानिस्तान से तक्षशिला तक था: तक्षशिला से सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक था; उसके बाद व्यास नदी तक था, वहीं तक जहां तक सिकन्दर आया था, और फिर वहां से वह सतलुज तक गया है, और सतलुज से यमुना तक। और फिर यमुना से हस्तिनापुर होते हुए गंगा तक। इसके बाद गंगा से वह दभाई (Rhodopha) नामक कसबे तक गया है और उसके बाद वहां से वह कन्नौज तक गया है।

कन्नौज से फिर वह गंगा एवं यमुना के संगम अर्थात प्रयागराज तक जाता है और फिर वह प्रयागराज से पाटलिपुत्र तक जाता है। राजधानी से वह गंगा की ओर चलता रहता है।”

संभवतया उसके आगे मेगस्थनीज नहीं गए इसलिए इंडिका में यहीं तक का वर्णन है।

इसके अतिरिक्त शेरशाह ने गद्दी पर बैठते ही हिन्दुओं को मारा था। रायसेन पर आक्रमण किया था और जब उसने देखा कि वह राजपूतों से वीरता से नहीं जीत सकता तो उसने छल और विश्वास घात का सहारा लिया था। राजा पूरनमल ने जब यह देखा कि विश्वासघात के कारण वह घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी प्रिय रानी रत्नावली की गला काटकर हत्या कर दी जिससे शेरशाह सूरी की सेना के हाथों जिंदा न लग सके। और फिर राजपूत योद्धाओं ने यही किया। उन्होंने अपने परिवार वालों की हत्या कर दी, क्योंकि उन्हें पता था कि यदि गलती से भी कोई हिन्दू लड़की उनके हाथों में पड़ गयी तो क्या करेंगे वह! THE HISTORY OF INDIA, BY ITS OWN HISTORIANs – THE MUHAMMADAN PERIOD में सर एम एम इलियट TARTKH-I SHER SHAHI के हवाले से लिखते हैं कि “जब हिन्दू अपनी स्त्रियों और परिवारों को मार रहे थे तो अफगानों ने हर ओर से हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। पूरनमल और उनके साथी बहुत वीरता से लड़े परन्तु वह पराजित हुए और पूरनमल की एक बेटी और उनके बड़े भाई के तीन बेटे अफगानी सेना के हाथों जिंदा लग गए तो बेटी को तवायफ बना दिया और बेटों को हिजड़ा बना दिया, जिससे राजपूतों का वंश समाप्त हो जाए।” (! THE HISTORY OF INDIA, BY ITS OWN HISTORIANs – THE MUHAMMADAN PERIOD पृष्ठ – 417)।

फिर उसके बाद शेरशाह ने मारवाड़ पर आक्रमण किया और उसे लगा कि वह आसानी से जीत जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ। राजा मालदेव और शेरशाह सूरी की सेनाएं आमने सामने रहीं और  राजा मालदेव की सेना देखकर वह साहस नहीं जुटा पाया। यहाँ भी उसने छल किया और फूट डालने के लिए कुछ जाली पत्र मालदेव की सेना में डलवा दिए,जिसका सार यह था कि मालदेव की सेना राजा को शेरशाह के हवाले कर देगी, और ऐसा सुनते ही वह घबरा गया और चला गया। हालांकि राजा को उनके सरदारों ने आश्वास दिया, पर वह नहीं रुके और अपनी सेना लेकर चले गए। मगर उसके बाद जब शेरशाह को लगा कि वह जीत जाएगा क्योंकि राजपूत वापस चले गए हैं। मगर फिर दो राजपूत सरदारों जैता और कूम्पा ने युद्ध करने का निश्चय किया।

एक ओर थी मात्र दस हज़ार की राजपूत सेना और दूसरी ओर शेरशाह की अस्सी हज़ार की सेना। मगर भयानक युद्ध हुआ और गिरी-सुमेल के युद्ध में अफगान सेना लगभग हार की कगार पर पहुँच गयी थी। मगर कूम्पा और जैता के माने जाने की खबर सुनकर शेरशाह की जान में जान आई और उसने कहा “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली की सल्तनत गँवा देता!”

और उसके अगले ही वर्ष वह कालिंजर के किले पर आक्रमण के दौरान बारूद के गोले का शिकार हो गया। और उसके जीवन और शासन का अंत हो गया, तो मात्र पांच वर्ष में क्या वह इतनी लम्बी सड़क बना सकता था? नहीं! परन्तु अपनी ही उपलब्धियों और इतिहास को शेरशाह को अपने हाथ से सौंपने में कुछ कथित मध्यमार्गी और वामपंथी साहित्यकार हर सीमा पार कर गए है!

और इन्हीं चार वर्षों को वामपंथी इतिहासकार सबसे बड़े प्रशासनिक सुधार के वर्षों के रूप में लिखते हैं। इतिहास में ही नहीं इतिहास के बाहर साहित्य में भी, यही कारण है कि हमारे बच्चे उन हिन्दू योद्धाओं के नाम नहीं जानते हैं, जिन्होनें इन आतताइयों को रोके रहने के लिए न ही स्वयं की और न ही अपने परिवार की परवाह की। और वह बहादुरी के लिए अपने ही भाइयों को उन लोगों की पहचान दे देते हैं, जिनके हाथ हिन्दुओं के खून से रंगे हुए हैं!

छल से हिन्दुओं को मारने वालों को नायक बनाने का कार्य केवल और केवल भारत के कथित छद्म राष्ट्रवादी ही कर सकते हैं! क्योंकि हिन्दू पीड़ा का सच्चा इतिहास लिखने वाले सीताराम गोयल तो शेरशाह द्वारा तोड़े हुए मंदिरों की सूची बना चुके हैं, बस हम पढ़ना ही नहीं चाहते हैं!


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