दीपावली के उपरांत बिहार, उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल क्षेत्र एवं छत्तीसगढ़, झारखंड आदि में छठ पर्व मनाया जाता है। इसकी अपनी महत्ता है। हिन्दुओं का कोई भी पर्व बिना कारण, बिना किसी विशेष पूजा पद्धति के नहीं होता है। हर पर्व की अपनी महत्ता है, हर पर्व की अपनी विशेषता होती है एवं स्वच्छता आदि के विचार होते हैं। ऐसे ही छठ के हैं, ऐसे ही दीपावली के हैं, ऐसे ही होली के हैं! परन्तु यह देखा गया है एवं सोशल मीडिया के आने के बाद से इस पर्व के हिन्दू रूप को नकारने का प्रयास किया जा रहा है। एजेंडे वाली पोस्ट्स साझा की जा रही हैं:
इसे कहा जा रहा है कि यह लोक और आस्था का पर्व है और इसमें किसी भी प्रकार से पंडित पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें आडम्बर नहीं होता है। इसमें कोई बाह्य प्रपंच नहीं होता है आदि आदि! ऐसा इस पर्व के लिए कहा जाता है। छठ के विषय में छोटे छोटे पोर्टल से लेकर सोशल मीडिया तक इन्हीं तथ्यों से भरे पड़े है। यह ऐसा है जैसे कुछ देहवादी एवं वामपंथी लेखक तथा लेखिकाएँ कहते हैं कि “हम धार्मिक नहीं हैं, आध्यात्मिक हैं! धर्म नहीं प्रकृति की पूजा करते हैं!”
परन्तु यह कोई स्पष्ट नहीं करता है कि किस धर्म में प्रकृति को ही ईश्वर मानकर पूजा गया है। यह पूरी की पूरी वामपंथी अवसरवादी लॉबी इस समय भेष बदलकर हर पर्व मना रही है। वह रक्षाबंधन पर प्रश्न उठाती है, वह विवाह पर प्रश्न उठाती है और मजे की बात यही है कि यही लोग अपने या अपने बच्चों के विवाह में एक एक धार्मिक परम्परा का पालन करते हैं, अपने प्रियजनों के स्वास्थ्य के खराब होने पर हर प्रकार के ज्योतिषी की शरण में जाते हैं। अपने अपने घरों में गृहप्रवेश की पूजा भी विधि विधान से कराते हैं, और यही कहते हैं कि उन्होंने अपने जीवनसाथी या घरवालों के मत की स्वतंत्रता का पालन किया। यहाँ तक कि उनके अंतिम संस्कार भी उन्हीं रीतिरिवाजों से होते हैं, जिनके विरुद्ध वह जीवन भर गालियों से भरे रहते हैं!
ऐसे ही छठ पर वह थेथरई करते हैं कि चूंकि यह पर्व संस्कृति से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे हर प्रकार से सिन्दूर अदि लगाकर मनाया जा सकता है। दरअसल सोशल मीडिया के आने के बाद ऐसे लेखकों एवं लेखिकाओं की सिन्दूर लगी तस्वीरें वायरल होने लगीं तो लोगों ने प्रश्न उठाए कि आखिर वह जिस मंगलसूत्र और सिन्दूर का विरोध करते हैं, उसे उनकी पत्नियाँ और परिवार की स्त्रियाँ क्यों लगा रही हैं, एवं वह भी साथ में यह पर्व मना रहे हैं।
तो एक नया सिद्धांत गढ़ा गया कि यह चूंकि लोक और आस्था का पर्व है, इसका धर्म के साथ कोई लेना देना नहीं है। इसलिए सिन्दूर लगाया जा सकता है। पांच वर्ष पूर्व लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने बस इतना कह दिया था कि आखिर छठ पर बिहारी महिलाएं माथे तक सिन्दूर क्यों लगाती हैं?
इस पोस्ट पर विवाद हुआ एवं लेखकों तथा लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग जो कुछ ही दिन पहले करवाचौथ के सिन्दूर को कहीं न कहीं पिछड़ा कह रहा था, वह सिन्दूर के गुण गाने लगा तथा कई लेखिकाएं तो माथे तक सिन्दूर लगाकर तस्वीरें पोस्ट करने लगी थी? किसी भी विचार का लेखक था, वह चिढ गया और मैत्रेयी पुष्पा को गाली पड़ने लगीं? परन्तु क्या यह अपमान मात्र प्रांत विशेष के पर्व का होगा, जिससे उनकी पहचान जुडी हुई है या फिर यह पवित्र सिन्दूर का अपमान था? यदि पवित्र सिन्दूर का अपमान था तो करवाचौथ आदि पर क्यों हिन्दू स्त्रियों का उपहास उड़ाया जाता है?
सिन्दूर को भी क्या धार्मिक या सांस्कृतिक प्रतीकों के रूप में विभाजित किया जाएगा? यदि सिन्दूर सांस्कृतिक है तो क्या मुस्लिम या ईसाई महिलाऐं सिन्दूर लगाती हैं?
एक प्रकार से छठ को बुद्धिजीवी वही बना रहे हैं, जैसा वह बंगाल में दुर्गापूजा के साथ खेल कर चुके हैं और जब वह धार्मिक रूप से दुर्गापूजा को नष्ट कर चुके हैं, तो वह पंडाल लगाते समय कभी जूते में बैठा देते हैं, कभी सैनिटरी पैड में बना देते हैं, कभी माँ को हिजाब में दिखा देते हैं और कभी उनके पंडाल को वैश्यालय का रूप भी दे देते हैं।
क्योंकि इतने वर्षों के निरंतर बौद्धिक आक्रमण के चलते बंगाल के एक बड़े वर्ग ने पूजा और पूजो को अलग अलग कर दिया है, और माँ को संस्कृति मान लिया, धर्म से अलग कर दिया। जबकि संस्कृति तभी जीवित है जब तक धर्म जीवित है। जब तक धर्म का पालन हो रहा है, तभी तक उससे सम्बन्धित सांस्कृतिक परम्पराओं का पालन हो रहा है।
जैसे गरबा तभी तक गरबा है, जब तक माँ की भक्ति उसके साथ है, अन्यथा वह एक प्रकार का नाच है! हाल ही में गरबा में मुस्लिमों के प्रवेश को लेकर इसी कारण विवाद हुआ था कि अंतत: उन्हें क्यों हिन्दुओं की पूजा में सम्मिलित होना है क्योंकि यह पूजा का नृत्य है!
आज अफगानिस्तान में केवल बुर्के वाली तहजीब है, संस्कृति मारी जा चुकी है। पाकिस्तान में मुट्ठीभर हिन्दुओं के कारण अभी धार्मिक संस्कृति शेष है, जब दानिश कनेरिया यह खुलकर कहते हैं कि वह अयोध्या में राम मंदिर आएँगे, दीपावली की शुभकामनाएँ:
आइये देखते हैं कि छठ पर कैसे कैसे झूठ फैलाए जाते हैं और सत्य क्या है?
जैसे ही छठ के विषय में आप नेट पर सर्च करेंगे वैसे ही पन्ने खुलेंगे कि यह ऐसा एकमात्र पर्व है जिसमें पंडित या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है! यहाँ तक कि एएनआई में भी यही लिखा है
“एक महत्वपूर्ण बात यह है कि छठ में किसी भी पंडित या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है। कोई मूर्तिपूजा नहीं और पूजा कराने के लिए कोई पंडित पुजारी नहीं चाहिए!”
ऐसे ही एक पोर्टल पर लिखा है कि
छठ पूजा पहले द्विजेतर जातियों में प्रचलित थी, धीरे धीरे सार्वभौम हो गयी। छठ पूजा सारे भेदभाव मिटाने वाला पर्व है! इसमें भगवान और भक्त के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है!”
ऐसे एक नहीं कई पोर्टल हैं, ऐसी एक नहीं तमाम पोस्ट्स हैं, जो सोशल मीडिया पर वायरल होने लगती हैं। परन्तु सत्य क्या है? एक प्रश्न उठता है कि क्या पंडित या पुरोहित होना अपराध है? जबकि सोशल मीडिया पर ही कई यूजर्स ने कहा कि पुरोहितों द्वारा पूजा कराई जाती है!
इस व्रत की प्रक्रिया बहुत कठिन है, यह बहुत कठिन व्रत है, शुद्धता का ध्यान रखना होता है। बिहार की ही लेखिका उषाकिरण खान लिखती हैं कि
“पांच दिनों का यह व्रत बेहद कठिन है, खासकर सर्वभक्षियों के लिए। पूरे कार्तिक मास में छठव्रती शाकाहारी बने रहते हैं। चौथ के दिन, जिसे नहाय-खाय कहते हैं, सबसे कीट-सुरक्षित कद्दू (लौकी)-भात का विधान है, वह भी सादा, बिना प्याज-लहसुन का। पर्व करनेवाली, जिसे परवैतिन कहा जाता है, के लिए यह दिन भी व्रत ही ठहरा। दूसरा दिन खरना का होता है- दिनभर उपवास के बाद रात को खीर का भोजन। इसके बाद अगले करीब छत्तीस घंटे तक निर्जला व्रत। इसी दौरान ठेकुआ पकाना और अर्घ के लिए भांति-भांति के सरंजाम सूप-टोकरा में जमाना भी पड़ता है। इसमें परिवार की स्त्रियां साथ देती हैं। अर्घ से पहले पुरुष सदस्य दौरा सिर पर लेकर घाट तक पहुंचाते हैं।
जो लोग कहते हैं कि इसमें संस्कृत के मन्त्र नहीं होते है, वह उषा किरण खान का ही यह लेख देखें जिसमें वह सूर्यदेव की आराधना करने वाले मन्त्रों का वर्णन कर रही हैं
“”आदिदेव नमस्तुभ्यम्, प्रसीद मय भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यम्, प्रभाकर नमस्तुते।।“
हर पर्व की अपनी पूजा पद्धति है तो एक की प्रगतिशील और दूसरे की पिछड़ी कैसे हो सकती है?
कई और लेखक हैं, जो वामपंथी लॉबी द्वारा फैलाए गए झूठ का खंडन करते हैं और छठ को पूर्णतया हिन्दू पर्व प्रमाणित करते हैं। पंडित भवनाथ झा ने अपनी वेबसाईट पर लिखा है कि इसकी परम्परा कहाँ से मिलती है। वह लिखते हैं कि छठ पर्व में भगवान् सूर्य की उपासना के साथ स्कन्द की माता षष्ठिका देवी एवं स्कन्द की पत्नी देवसेना इन तीनों की पूजा का महत्त्वपूर्ण योग है। इसी दिन कुमार कार्तिकेय देवताओं के सेनापति के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे, अतः भगवान् सूर्य के साथ-साथ इन सभी देव-देवियों के नाम इस पर्व के साथ जुड गये हैं और कालान्तर में इसका स्वरूप बृहत् हो गया है।
धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में इसे स्कन्दषष्ठी, विवस्वत्-षष्ठी इन दोनों नामों से कहा गया है। उन्होंने बताया है कि यह व्रत द्रौपदी द्वारा भी किए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है!
बिहार की लोक-परम्परा में सूर्य षष्ठी में छठी मैया की पूजा से सम्बद्ध अनेक गीत तथा लोक-कथाएँ प्रचलित हैं। इस परम्परा का सम्बन्ध भविष्य-पुराण की एक कथा से है, जिसमें कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को कार्तिकेय तथा उनकी माता की पूजा का विधान किया गया है। भविष्य-पुराण के उत्तर पर्व के 42वें अध्याय में कहा गया है कि कार्तिकेय ने इस दिन तारकानुसार का वध किया गया था। इसलिए यह तिथि कार्तिकेय की दयिता कही जाती है। इस अध्याय के प्रारम्भ में मार्गशीर्ष अर्थात् अग्रहायण मास का नाम है-
येयं मार्गषिरे मासि षष्टी भरतसत्तम।
पुष्या पापहरा धन्या शिवा शान्ता गुहप्रिया।।
निहत्य तारकं षष्ठ्यां गुहस्तारकाराजवत्।
रराज तेन दयिता कार्तिकेशस्य सा तिथिः।।
यहाँ उल्लिखित मार्गषीर्ष को अमान्त मासारम्भ की गणना के अनुसार समझना चाहिए, क्योंकि इसी अध्याय में कार्तिक मास का भी उल्लेख है।
एवं संवत्सरस्यान्ते कार्तिके मासि शोभने।
कार्तिकेयं समभ्यर्च्य वासोभिर्भूषणैः सह।।
इस अध्याय में इस षष्ठी तिथि को सूर्य की पूजा करने का भी विधान किया गया है।
साथ ही एक अन्य कथा के अनुसार शिव की शक्ति से उत्पन्न कार्तिकेय को छह कृतिकाओं ने दूध पिलाकर पाला था। अतः कार्तिकेय की छह मातायें मानी जाती हैं और उन्हें षाण्मातुर् भी कहा जाता है।
वह एक और लेख में यह उल्लेख करते हैं कि ऐसा नहीं है कि इस पर्व के लिए पुरोहितों की आवश्यकता नहीं होती! सच्चाई यह है कि छठ-पर्व में पण्डित/पुरोहित पर्याप्त संख्या में मिलते नहीं हैं। जो हैं वे बड़े-बड़े लोगों के द्वारा अपने घाट पर बुला लिये जाते हैं। ये बड़े-बड़े लोग पर्याप्त दक्षिणा देकर विधानपूर्वक पूजा कराते हैं, प्रातःकाल कथा सुनते हैं। पण्डित/पुरोहित को आकृष्ट करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सबका प्रयोग तक कर बैठते हैं।
धर्मायण पत्रिका के सूर्य उपासना के लिंक में विख्यात विद्वान श्री अरुण कुमार उपाध्याय ने इस पर्व की वैज्ञानिकता पर बात की है। उन्होंने कई मन्त्रों के माध्यम से बताया है कि कैसे भारत में सूर्योपासना भारतीय ऋषि मुनियों की वैज्ञानिक सोच का परिणाम है एवं कार्तिक माह एवं छ संख्या का आपस में क्या सम्बन्ध है?
सोशल मीडिया पर भी कई पोस्ट्स इस विषय में कई साझा की कि कैसे वामपंथियों के इस जाल एवं वैचारिक कुचक्र से बचना है और छठ के प्रति दुष्प्रचार से बचें।
डॉ जितेन्द्र कुमार सिंह ने अपनी पोस्ट में लिखा कि
“छठ के बारे में दुष्प्रचार से बचें!
छठ के सम्बन्ध में कतिपय बातों का ध्यान रखें, जिससे कोई आपके भ्रमित न कर सके।
- हिन्दुओं का प्रत्येक पर्व लोक-आस्था का पर्व है, केवल छठ (सूर्यषष्ठी) ही नहीं। होली, दीपावली, दशहरा जैसे लोक-आस्था के महापर्वों के सम्मुख छठ की व्यापकता बहुत ही कम है।
- वैदिक ऋषियों की ही देन है सूर्यषष्ठी। षडानन स्कन्द की षण्मातृकाओं में से एक हैं षष्ठी (छठी) मैया। स्कन्द का एक नाम कार्त्तिकेय है और यह कार्त्तिक मास उन्हीं के नाम पर है। षण्मातृकाओं में से छठी माता हैं। इनका नाम देवसेना है। सन्तान जन्म होने के बाद छठे दिन छट्ठी (छठियार) में भी इन्हीं की पूजा होती है। षष्ठी देवी सन्तान के लिए अत्यन्त कल्याणकारी हैं और कुष्ट जैसे दुःसाध्य रोगों का निवारण करती हैं। ये सूर्य की शक्ति की एक अंश हैं, जो कार्त्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन सूर्यास्त के समय और सप्तमी के सूर्योदय के समय तक विशेष रूप से प्रस्फुटित रहती हैं। यह सब ज्ञान और विधान ब्राह्मण ऋषियों की देन है। शाकद्वीपीय (मगद्विज) अर्थात् सकलदीपी ब्राह्मणों से पहली बार यह विधि श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने सीखी थी। श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब के जीवन की रक्षा के लिए उन्हें निमन्त्रित कर के उसे यह सिखवाया था।
- छठ व्रत में बिचौलिए ही नहीं, कईचौलियो की ज़रूरत पड़ती है यानि अकेले कर पाना अत्यन्त दुष्कर है। इसका कर्मकाण्ड बहुत ही विस्तार लिए चार दिनों तक फैला हुआ है। बहुत सारे लोग रहें तभी कोई व्रती इसे सही ढंग और सहूलियत से कर सकता है। यह कोई आसान पूजा नहीं है, जिसे बस एक पुरोहित बुलाकर झट से निपटा दिया।
- डूबते सूर्य को अर्घ्य देना तो हिन्दुओं का अनिवार्य दैनिक कर्म है। दैनिक गायत्री सन्ध्याह्निक में प्रतिदिन डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। त्रिसन्ध्या जो नहीं करता वह व्रात्य है यानि धर्मपतित। और त्रिसन्ध्या में उदय होते, अस्त होते सूर्य के अतिरिक्त मध्याह्न में भी सूर्यार्घ्य दिया जाता है।
- किसी भी कर्मकाण्ड और पूजा-विधान में पुजारी की आवश्यकता नहीं है, यदि आप उसे स्वयं ही कर पा रहे हैं। यज्ञ एवं अनन्त प्रकार के जो विधान ब्राह्मण ऋषियों ने दिये हैं उन सबमें से लगभग सभी को व्यक्ति द्वारा स्वयं ही करने का विधान है। जो स्वयं कर पाने में अक्षम हैं, उन्हें ही मदद के लिए पुरोहितों की व्यवस्था है। पर यह स्पष्ट बताया गया है कि स्वयं करने से ही अधिकतम लाभ है।
- छठ में जटिल मन्त्रों की आवश्यकता नहीं!! केवल जटिल भोजपुरी गीतों की आवश्यकता है, जिनका अर्थ अधिकांश लोग समझते ही नहीं!! आज तक शायद ही किसी ने छठ में ‘बहँगी’ का उपयोग देखा हो पर ‘कॉंच ही बाँस के बहँगिया।।।’ गाये बिना छठ सम्पन्न हो ही नहीं सकता!—————-ये मन्त्र भोजपुरी में हैं।
- एक बात और। केवल छठ में ही नहीं, सनातन धर्म के किसी भी पूजा-पाठ में ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। रक्षाबन्धन, दशहरा, दीपावली, होली, रामनवमी, एकादशी, कीर्त्तन, जागरण, सत्यनारायण कथा आदि किसी में आपने ऊँच-नीच का भेदभाव देखा है क्या? फिर केवल छठ में ही ऐसा यह झूठ क्यों बोलना!!“
यह जो छठ पर जातिगत भेदभाव न होने की बात कहकर इसे प्रगतिशील अर्थात वामपंथी घोषित किया जाता है, वह कितना बड़ा झूठ है, वह इस तथ्य से पता चल जाता है कि ऐसा कौन सा हिन्दुओं का पर्व है जिसमें ऐसा भेदभाव होता है? क्या दीपावली पर पटाखे चलाते समय, या होली पर रंग लगाते समय जाति देखकर रंग लगाया जाता है?
वरिष्ठ लेखक श्री भृगुनंदन त्रिपाठी जी ने भी सोशल मीडिया पर इस पर्व के हिन्दू स्वरुप के विषय लिखते हुए कहा कि लोकआस्था एवं शास्त्र का जब संगम हुआ तभी यह शक्ति बनी! अत: जो वामपंथी लोग आस्था एवं शास्त्र को अलग कर रहे हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि इस पर्व का वास्तविक स्वरुप क्या है?
यह कैसा कुचक्र पर्वों के माध्यम से रचा जा रहा है? यह ठहरकर सोचने की आवश्यकता है। हिन्दुओं का हर पर्व आस्था का ही पर्व है, क्या बिना आस्था के श्री कृष्ण जन्माष्टमी, या महाशिवरात्रि को मनाया जा सकता है? क्या दीपावली में आस्था नहीं है? क्या सकट में आस्था नहीं है?
अरुण कुमार उपाध्याय ने अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी इस पूरे पर्व के हिन्दू रूप को प्रस्तुत किया है:
वामपंथियों का कुचक्र पहले ही बंगाल में दुर्गा पूजा को सेक्युलर बना चुका है, अब निशाना छठ पूजा के बहाने बिहार है, समय रहने चेतना होगा, नहीं तो पर्व को मात्र संस्कृति तक सीमित करने का दुष्परिणाम क्या हो सकता है, यह अभी तक लोग समझ नहीं पा रहे हैं! क्या लेखकों एवं विचारकों का एक बड़ा वर्ग अपनी क्षुद्र राजनीति के चलते उसी प्रकार का वोकिज्म छठ पूजा में लाना चाहता है, जो लाकर पहले ही ओणम जैसे पर्व हिन्दुओं की धार्मिक पहचान से अलग किए चुके हैं? जैसे दुर्गो पूजा पर जब पूजोफॉर आल चलाया जाता है तो वह लोग बांग्लादेश में अपने पीड़ित हिन्दू भाइयों के लिए बात नहीं करते हैं क्योंकि “पूजो फॉर आल” की अवधारणा पर चोट लगेगी?
यह पर्व ही नहीं सभी पर्व पूरी तरह से हिन्दू आस्था के पर्व हैं, एवं जो भी इनमें अब अपना एजेंडा चलाएगा उसका उत्तर भी इसलिए देना अनिवार्य है जिससे पर्व हिन्दू बने रहें!