दिल्ली विश्व विद्यालय में इन दिनों महाश्वेता देवी की कहानी द्रौपदी को हटाने के बहाने एक नया विवाद पैदा हो गया है, कि दलित कहानीकारों की कहानियों को हटाया जा रहा है। महाश्वेता देवी की विचारधारा क्या है, वह उनकी रचनाओं से स्पष्ट होती है, और उनकी ऐसी एकतरफा सोच वाली रचनाओं को एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तकों में भी सम्मिलित किया गया था। अब आप सोचेंगे कि इतिहास में क्यों? क्योंकि इतिहास में तो तथ्य होते हैं, फिर तथ्यों में कहानी का क्या स्थान?
मगर ऐसा नहीं था, महाभारत जिसे यह वामपंथी इतिहास नहीं मानते हैं, उस पर लिखी गयी “कुंती ओ निषादी” का जहर बच्चों के दिमाग में भरा गया जिससे वह महाभारत को झूठ ही न मानें बल्कि उससे घृणा भी करें।
यदि एनसीईआरटी को ऐसे किसी अध्ययन के विषय में बताना ही था तो नरेंद्र कोहली कृत महासमर का भी उदाहरण दिया जा सकता था, मगर चूंकि नरेंद्र कोहली की महासमर में कोई एजेंडा नहीं था तो एनसीईआरटी ने इसका उदाहरण नहीं दिया, बल्कि कक्षा 12 की इतिहास की पुस्तक में वैकल्पिक अध्ययन के नाम पर कुंती और निषादी के बीच संवाद कराकर यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि कुंती ने जानते बूझते ही उस निषादी को जलाया था।
परन्तु महाभारत में आदिपर्व में लिखा है कि हे भारत, स्त्रियाँ रात्रि को वहां पूरे सुख से खा पीकर आनंदपूर्वक कुंती की आज्ञा से अपने अपने घर को पधारीं। काल की प्रेरणा से एक बहेलिन अपने पांच पुत्रों के साथ अपनी इच्छा से उस भोज में खाने की इच्छा से आई थी।
हे पृथ्वीनाथ! वह बहेलिन अपने बेटों के साथ मदिरा पीकर और उन्मत्त और नशे से विह्वल होकर ज्ञान रहित होकर मृत के समान उस घर में ही सो गयी।
इनमें एक शब्द पर ध्यान दीजिये कि क्या कहा गया है कि वह अपनी इच्छा से आई थी। कई धारावाहिकों या मान्यताओं के विपरीत वह अपनी इच्छा से आई थी। कुंती या पांडवों ने उन्हें बुलाने के लिए कोई षड्यंत्र नहीं किया था, और वह मदिरा पीकर वहीं अपने आप सोई थी, कुंती ने उन्हें मदिरा नहीं पिलाई थी।
पर महाश्वेता देवी की कहानी का उद्धरण जो इतिहास की पुस्तक में है वह देखिये “कि कुंती ने उन्हें मदिरा पिलाई थी इतनी कि वह सब बेसुध हो गए थे जबकि वह अपने पुत्रों के साथ निकल गयी थी।”
बच्चों के दिमाग में यह बात बैठ जाएगी कि कुंती ने जानबूझकर उस बहेलन को जलाया, जबकि महाभारत में ऐसा नहीं है।
अब आते हैं, जिस कहानी को हटाए जाने पर बवाल हो रहा है उस पर, और वह है द्रौपदी। नाम से यही लगेगा कि महाभारत के चरित्र द्रौपदी पर है। पर नहीं यह मात्र द्रौपदी के बहाने हिन्दू धर्म को अपमानित करने के लिए एक कहानी है। अंग्रेजी साहित्य में इस कहानी का जो अनुवाद है, उसमें गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक द्वारा एक लंबा परिचय भी इस कहानी का है। और यही परिचय सबसे अधिक विवादित है। इसमें गायत्री चक्रवर्ती ने अपने मन से भी काफी कुछ लिखा है। और उन्होंने इस कहानी के बहाने बंगाली मुस्लिमों की पहचान आदि पर भी बात की है। और कहानी में अनुवाद से पहले नक्सल आन्दोलन को महिमामंडित किया है और इसमें वह लिखती हैं कि भारत द्वारा बांग्लादेश निर्माण वाला युद्ध जीता जाना दरअसल भारत द्वारा उसके हज़ारों सालों के इतिहास में युद्ध में पहली विजय थी।
मात्र इस पंक्ति से यह समझा जा सकता है कि अनुवादक की विचारधारा भारत के प्रति कैसी है और किस दृष्टि से अनुवाद किया होगा, क्योंकि किसी भी रचना के अनुवाद में प्रयोजन और अनुवादक की दृष्टि सबसे महत्वपूर्ण कारक होती है!
दरअसल विस्तारवादी राजनीति का सबसे बड़ा दोष यही है कि उसने कभी भारत को भारत की दृष्टि से देखा ही नहीं। भारत के विजय इतिहास पर बात करेंगे तो लेख की दिशा बदल जाएगी। अत: विद्यार्थी इस प्रकार के परिचय के बाद जब द्रौपदी कहानी पढ़ते हैं, तो उनके मस्तिष्क में क्या छवि बन रही होगी भारत की, और हिन्दू समाज की, यह हम और आप बेहतर समझ सकते हैं। वह बच्चे जो अपनी उम्र के एक संवेदनशील दौर से गुजर रहे होते हैं, वह इतिहास में साहित्य पढेंगे और विध्वंसात्मक सोच वाला साहित्य, और साहित्य में तो कहानी और अनुवादक द्वारा कहानी का परिचय भी उसे विध्वंसात्मक विमर्श पर बना है, जो भारत को हारा हुआ प्रमाणित करना चाहता है।
इस कहानी में सिख धर्म के लिए आपत्तिजनक लिखा हुआ है। गायत्री चक्रबर्ती लिखती हैं कि महाश्वेता देवी ने सिख और बंगाली लोगों के बीच चरित्र में अंतर रखा है। ………………………………. लम्बे, मर्दाने और पगड़ी बांधे हुए एवं दाढ़ी बनाकर रखा हुआ सिख, पढ़े लिखे बौद्धिक बंगालियों के सामने ऐसा चुटकुले जैसा लगता है, जैसे उत्तरी अमेरिका में पोलिश समुदाय दिखता है या फिर फ्रांस में बेल्जियम।
फिर वह आगे लिखती हैं कि “अर्जन सिंह की ताकत केवल बन्दूक के मर्दाने अंग से ही मिलती थी। बन्दूक के बिना “पांच क” अर्थात सिखों के पांच प्रतीक केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण भी आज बन्दूक के बिना बेकार हैं।
यह सब तो अभी कहानी के अनुवादक द्वारा कहानी के विषय में परिचय है। फिर वह लिखती हैं कि नक्सलियों को दबाने की प्रक्रिया ऐतिहासिक क्षण के सिद्धांत के साथ आती है।
यह कहानी दरअसल एक वनवासी युवती के बारे में है, जिसका सामूहिक बलात्कार भारतीय सेना ने किया है।
तो इस कहानी में एजेंडा है हिन्दू धर्म का अपमान, क्योंकि द्रौपदी नाम को मूल चरित्र का नाम रखा है, भारतीय सेना का अपमान, क्योंकि इस कहानी के आधार पर पढ़ने वाले बच्चे सेना के प्रति हिंसक भावना से भर जाते हैं और सिख धर्म का अपमान, स्वतंत्र सनातनी चेतना का अपमान!
कहानी की समीक्षा अपने पाठकों के लिए कल प्रस्तुत करेंगे। अभी तो आप मात्र बच्चों की कच्ची भूमि पर इस जहरीले विचारों के प्रभाव का अनुमान लगाइए, जो उन्हें पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से प्रदान किया जा रहा है और जा रहा था। गायत्री चक्रबर्ती ने यह स्थापित करने का भी प्रयास किया है कि भारत ने नक्सल आन्दोलन और किसानों को मारने के लिए बंगलादेश के निर्माण वाले युद्ध का प्रयोग किया।
इस कहानी को हटाने को लेकर विवाद है जबकि महाश्वेता देवी खुद भारत को रक्त रंजित करने वाली विचारधारा नक्सलवाद को भारत की सबसे बड़ी आतंरिक समस्या नहीं मानती थीं।
डॉ. गायत्री चक्रबर्ती एक अनुवादक होने के साथ साथ अमेरिका में अंग्रेजी की प्रोफ़ेसर हैं।
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