कहने के लिए 6 दिसंबर 1992 को एक कलंक से मुक्ति मिली थी, पर क्या वास्तव में उस कलंक से मुक्ति पा पाए, क्योंकि हर वर्ष ही हिन्दुओं को एक विवादित ढाँचे के लिए लज्जित किया जाता है और इतिहास में ऐसा धर्म बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, जो हिंसा में विश्वास करता है और जो दूसरे समुदाय के धर्म स्थलों को तोड़ता है। जबकि है इसके विपरीत। सीताराम गोयल की पुस्तक “what happened to hindu temples” में 2000 मुस्लिम स्मारकों की सूची है, जो या तो हिन्दू मन्दिरों पर बने हैं या फिर जिनमें हिन्दू मंदिरों की सामग्री थी।
परन्तु उन सबकी चर्चा नहीं होती है और हो भी नहीं सकती है क्योंकि ऐसा करने से वह साम्प्रदायिक हो जाएंगे और बाबरी की चर्चा करने से प्रगतिशील! और एक बात समझ से परे है कि जब बाबरनामा में ही बाबर द्वारा की गयी हिंसा को लिखा है और केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि पठानों को भी मारा, उनके सिरों की भी मीनारें बनाईं, तो ऐसे में बाबर और उसके नाम पर बना ढांचा प्रगतिशीलों के लिए ऐसा सम्माननीय स्मारक कैसे हो सकता है कि उसे बनाए जाने की कसमें, खाई जाने लगें।
बाबरनामा में बाबर काबुल के युद्ध के विषय में स्वयं एक स्थान पर लिखता है
“अफगानों के खिलाफ हमने युद्ध किया और उन्हें हर ओर से घेर कर मारा। जब चारों ओर से हमला किया तो वह अफगान लड़ भी नहीं सके; सौ-दो सौ को पकड़ा गया। कुछ ही जिंदा आए, अधिकांश का केवल सिर आया। हमें बताया गया कि जब पठान लड़ने से थक जाते हैं, तो मुंह में घास लेकर अपने दुश्मन के पास जाते हैं कि हम तुम्हारी गायें हैं। यह रस्म वहीं देखी गयी है!” यहाँ भी हमने यह प्रथा देखी, हमने देखा कि अफगान अब आगे नहीं लड़ सकते हैं तो वह मुहं में तिनका रखकर आए। मगर जिन्हें हमारे आदमियों ने बंदी बनाया था, हमने उन सभी का सिर काटने का हुकुम दिया और उनके सिरों की मीनारें हमारे शिविरों में बनी गयी!”
*इसके अंग्रेजी अनुवाद में यह भी लिखा है कि एक कट्टर हिन्दू से तो गाय बन कर याचना करने से बच सकते थे, पर बाबर से नहीं!
उसके बाद बाबर लिखता है कि अगले दिन वह हंगू की ओर गया, जहाँ स्थानीय अफगान पहाड़ी पर एक संगुर बना रहे थे। उसने पहली बार इसका नाम सुना था। हमारे आदमी वहां गए, उसे तोड़ा और एक या दो सौ अफगानियों के सिरों को काट लिया और फिर मीनारें बनाई गईं!”

हिन्दुओं का उल्लेख यहाँ हम इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वामपंथियों के लिए हिन्दू मायने ही नहीं रखते हैं, फिर भी बाबरनामा में वह लिखता है
“हिन्दुओं में बहुत बड़ा राजा बड़े मुल्क और बड़े लश्कर वाला बीजा नगर है और दूसरा राणा सांगा है, इन्हीं दिनों अपनी बहादुरी और तलवार से इतना बड़ा हो गया है कि उसकी असली वलायत तो चित्तौड़ है मगर मंडू की बादशाहों की बादशाहत में खलल पड़ने से बहुत सी वलायतें जो मंडू से इलाका रखती थीं, दबा बैठा है जैसे रणथम्भौर, भेलसा चंदेरी। मगर चंदेरी कई वर्षों से दारुल हरब हो रही थी, और राणा सांगा के बड़े आदमियों में से मेदनी राय वहां रहता था और मैंने संवत 1580 में 2 घड़ी में ही उसके अपने जोर में ले लिया था और हिन्दुओं का कत्ले आम करके मुसलमानों का घर बना लिया”
राणा सांगा के युद्ध के समय बाबर ने हिन्दुओं के सिर की मीनारें बनाई थीं। बाबरनामा में ही लिखा है –
“हिन्दू अपना काम बनाना मुश्किल देखकर भाग निकले, बहुत से मारे जाकर चीलों और कौव्वों का शिकार हुए, उनकी लाशों के टीले और सिरों के मीनार बनाए गए। बहुत से सरकशों की ज़िन्दगी खत्म हो गयी जो अपनी अपनी कौम से सरदार थे। ”
राणा सांगा के साथ युद्ध में हिन्दुओं का कत्लेआम करने के बाद बादशाह ने फतहनामे में खुद को गाजी लिखा है! (गाजी अर्थात इस्लाम के लिए काफिरों का कत्ले आम करने वाला)
इसी गाज़ी के नाम पर बने ढाँचे को लेकर बेचैन है बायाँ खेमा या कहें कथित प्रगतिशील छात्र
इसी गाज़ी के नाम पर बने ढाँचे को लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू) द्वारा जवाहर लाल नेहरु विश्व विद्यालय में नारे लगाए गए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के उपाध्यक्ष साकेत मून द्वारा उसे दोबारा बनाने की बात की गयी और साथ ही नरेंद्र मोदी और योगी जी के विरोध में नारे लगे है।
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों ने बाबरी ढांचे को दोबारा बनाने की मांग की। इससे यह एक बार फिर से स्पष्ट हुआ कि इनमें न ही इतिहास बोध है, न ही हिन्दू बोध और न ही इनमें नागरिकता बोध है। क्योंकि यह निर्णय भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया था, जिसकी इस प्रकार खुले आम अवमानना की जा रही है। वैसे इस ढांचे के बदले, मस्जिद के लिए स्थान दिया जा चुका है। कुछ हिन्दू विचारकों का यह भी कहना है कि यद्यपि मस्जिद के लिए स्थान दिया जा रहा है, परन्तु क्यों दिया जा रहा है यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह ऐतिहासिक प्रमाणों से ही प्रमाणित हुआ था कि यहाँ पर प्रभु श्री राम का मंदिर था, जिसे तोड़कर मस्जिद बनाने का कुप्रयास किया गया। तो ऐसे में मस्जिद के लिए भूमि देना ऐसा ही जैसे उस आक्रमण की वैधता को स्थापित कर देना।
परन्तु किसी भी हिन्दू ने इस दृष्टि से नहीं देखा और न ही इस निर्णय पर आवाज उठाए। उनके लिए उनके प्रभु श्री राम का जन्मस्थान पाया जाना ही पर्याप्त था।
लोग पूछ रहे हैं कि क्या विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर यही होगा? या क्या अब समय आ नहीं गया है जब इन कथित विमर्शों में कथित शोध के लिए दिए जाने वाली छात्रवृत्ति पर भी पुनर्विचार किया जाए? क्या देश की जनता का पैसा ऐसे कथित विद्यार्थियों पर व्यय करना उचित है?
और रह रह कर प्रश्न उभर कर आता है कि बाबर से वामपंथ को इतना प्रेम क्यों है?