राहुल गांधी के राजनीति में कदम रखने के बाद से ही उन्हें भावी प्रधानमंत्री ही नहीं माना गया, बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री की तरह ही माना गया। ऐसा कहा गया कि प्रधानमंत्री का पद उनका स्वाभाविक अधिकार है। यह भी सर्वविदित ही है कि कैसे मनमोहन सरकार के अलोकप्रिय समय में राहुल गांधी को ही आशा की किरण बनाकर प्रस्तुत किया गया। पाठकों को याद होगा कि कैसे राहुल गांधी की छवि को सुधारने के लिए मनमोहन सरकार द्वारा पारित अध्यादेश फाड़कर फेंक दिया था, जिसमें दागी नेताओं को बचाने को लेकर बात की गयी थी। और इसके बाद मनमोहन सिंह इस्तीफा देना चाहते थे।
राहुल गांधी का विरोध करने के कारण शहजाद पूनावाला ने कांग्रेस छोड़ दी थी क्योंकि उन्होंने कहा था कि कांग्रेस में चुनाव नहीं होता बल्कि चयन होता है और केवल एक ही परिवार के इशारे पर पार्टी चलती है। और उन्होंने पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता के हवाले से कहा था कि “कांग्रेस के अधिकृत प्रवक्ता ने दस दिन पहले ही बयान दिया है कि अगले 100 सालों तक कांग्रेस के अध्यक्ष गांधी ही रहेंगे। जबकि अभी तक उन्होंने नामांकन भी नहीं भरा है। इससे भी साबित होता है कि यह सिस्टम फिक्स्ड है।”
यह एक परिवार और मुख्यत: राहुल गांधी के अकुशल नेतृत्व को लेकर बढ़ रहा विरोध था
राहुल गांधी को ही सर्वोच्च नेता मानने की हठ थी या फिर कुछ और, या फिर एक परिवार की गुलामी की गुलाम मानसिकता। कांग्रेस में जो भी राहुल गांधी के समक्ष उभर सकता था, उसे पहले अपमानित किया गया, और फिर उसने स्वत: ही कांग्रेस छोड़ दी। इसी क्रम में सबसे महत्वपूर्ण नाम है, वर्तमान में असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री श्री हिमंत बिस्व सरमा!
यह सभी जानते हैं कि हिमंत बिस्व सरमा कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी में आए हैं। परन्तु उन्होंने पार्टी क्यों छोड़ी थी? उन्होंने पार्टी इसलिए छोड़ी थी क्योंकि वह असम के लिए कार्य करना चाहते थे। वह असम की समस्या समझते थे, और यही कारण था कि वह राहुल गांधी के साथ मामले की चर्चा करने गए थे। परन्तु जब वह गए थे तो उस समय राहुल गांधी अपने कुत्ते को बिस्किट खिला रहे थे।
इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा और आज वह हिन्दुओं की समस्या पर, असम में बदलती डेमोग्राफी पर जो काम कर रहे हैं, वह किसी ने सोचा नहीं था।
जैसे सोनिया गांधी को चुनौती देने वाले नेता धीरे धीरे या तो रहस्यमयी स्थितियों में मारे गए या फिर वह अपने ही आप कांग्रेस को छोड़कर चले गए, ऐसे ही राहुल गांधी के सामने कांग्रेस में चुनौती बनने वाले नेता भी धीरे धीरे कांग्रेस छोड़कर जा रहे हैं।
यह सिलसिला मध्यप्रदेश के कद्दावर नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ और आगे बढ़ा। राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की नजदीकियां सभी को पता थीं। और जब संसद में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को गले लगाने वाला कार्य किया था तो उसके बाद अपनी सीट पर बैठकर उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही आँख से इशारा किया था।
सिंधिया के पार्टी छोड़ने पर कांग्रेस के ही एक और संभावनाशील नेता सचिन पायलट ने हताशा व्यक्त की थी:
और यह भी माना जाता है कि मध्यप्रदेश के चुनावों में उनका ही चेहरा आगे रखकर चुनाव लड़ा गया था, परन्तु बाद में कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। धीरे धीरे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस से विमुख होते हुए त्यागपत दे दिया। उस समय इसे राहुल गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका बताया गया था। ज्ञात हो कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधव राव सिंधिया भी कांग्रेस के बहुत बड़े नेता रहे थे और उनकी मृत्यु एक हवाई दुर्घटना में हो गयी थी।
जितिन प्रसाद
कांग्रेस के एक और युवा नेता थे उत्तर प्रदेश के जितिन प्रसाद। उन्होंने भी पार्टी में अपनी उपेक्षा के चलते कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। जितिन प्रसाद के पिता भी कांग्रेस के बड़े नाम थे, और जितिन प्रसाद को प्रियांका गांधी का नजदीकी माना जाता था। जितिन प्रसाद ने भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और हिमंत बिस्व सरमा की तरह भाजपा का दामन थाम लिया था
पंजाब से अमरिंदर सिंह
पंजाब में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह को किस प्रकार पार्टी छोड़ने के लिए विवश किया गया, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। वह कांग्रेस के कद्दावर नेता थे और उनका ही चेहरा आगे रखकर कांग्रेस ने चुनाव जीते थे।
रायबरेली से विधायक अदिति सिंह
रायबरेली से कांग्रेस विधायक अदिति सिंह ने भी कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया
आरपीएन सिंह
इसी सिलसिले में दिनांक 25/01/2020 को एक और बड़ा नाम जुड़ गया। व हैं मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री रह चुके आरपीएन सिंह। वह पूर्वांचल की राजनीति का एक बहुत बड़ा चेहरा हैं और साथ ही वह वर्ष 1996 से 2009 तक कांग्रेस की ओर से विधायक भी रहे हैं, वर्ष 2009 में वह कुशीनगर से लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे थे।
गांधी परिवार से अलग किसी और का व्यक्तित्व नहीं
कांग्रेस में “इंदिरा इज इंडिया” का नारा आपातकाल के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने दिया था। परन्तु यह धीरे धीरे स्थापित सा होता गया कि देश के प्रधानमन्त्री का पद मात्र एक ही परिवार के पास रहना चाहिए, जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद “ठुकरा” कर डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था तो भी यह कथित रूप से कहा गया और कई बार कई कांग्रेस नेताओं और मंत्रियों ने कहा भी कि उनकी नेता सोनिया गांधी हैं।
उससे भी पहले यदि देखा जाए तो सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष का पद सम्हाला था तो दलित सीताराम केसरी के साथ कैसा व्यवहार किया गया था। जब सोनिया गांधी को अध्यक्ष चुना गया तो सीताराम केसरी को बाथरूम में बंद कर दिया गया था।
हालांकि बुजुर्ग नेताओं के साथ या फिर नेहरू गांधी परिवार के सामने खड़े होने की हिम्मत करने वाले नेताओं को किनारे करने की परम्परा तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं के साथ ही आरम्भ हो जाती है, जिन्होनें नेहरू जी को चुनौती दी थी।
खैर, जब हम सोनिया गांधी के दौर में आते हैं तब पाते हैं कि प्रणव मुखर्जी का नाम भी प्रधानमंत्री के नाम के लिए आगे आया था। कांग्रेस ने अपने ही प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिम्हा राव के साथ क्या किया, यह भी सबने देखा था। यहाँ तक कि उनका शव आधे घंटे तक कांग्रेस के मुख्यालय के बाहर खड़ा रहा था, परन्तु कार्यकर्ताओं के लिए अंतिम दर्शन के लिए भी उनका शव पार्टी कार्यालय में नहीं अनुमत किया गया था और उनका अंतिम संस्कार भी दिल्ली में नहीं होने दिया गया था।
एक परिवार के ही सदस्यों का कद बढ़ा रहे, एक ही परिवार के सदस्यों का कद बना रहे, इसलिए नेताओं को हर संभव प्रकार से किनारे लगाया गया, प्रतिभाशाली नेताओं का कद बौना किया गया, और जो नेता परिवार से बाहर के थे, उनकी उपलब्धियों को छोटा किया गया और इस प्रकार सोनिया, राहुल एवं प्रियांका ने पार्टी पर कब्ज़ा किया, जिसकी गिरफ्त से धीरे धीरे लोग जा रहे हैं।
ऐसे ही प्रियंका चतुर्वेदी शिव सेना में तो सुष्मिता मुखर्जी तृणमूल कांग्रेस में जा चुकी हैं!