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सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम को लेकर भारत में विवाद छिड़ा हुआ है। केंद्रीय कानून मंत्री, किरण रिजिजू ने कई बयानों में कहा है कि कॉलेजियम प्रणाली संविधान से प्रतिकूल है।
सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने कानून मंत्री की टिप्पणी पर आपत्ति जताई है। कुछ विपक्षी नेताओं ने भी कानून मंत्री की आलोचना की है।
तो क्या कानून मंत्री गलत है?क्या उन्होंने अनावश्यक टिप्पणी की ?
मैं यह तर्क रखता हूं कि वह बिल्कुल सही हैं और न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली वास्तव में हमारे संविधान से बिल्कुल प्रतिकूल है। मैं यहां समझाता हूं कि कैसे।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका संविधान के अनुच्छेद 124(2) में दिया गया है, जो कहता है:
“सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर और मुहर के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद की जाएगी, जिन्हें राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझ सकते हैं, और वह पैंसठ वर्ष की आयु तक इस पद पर पदस्थापित रह सकते हैं, बशर्ते की मुख्य न्यायाधीश के अलावा, किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश से हमेशा परामर्श किया जाएगा।
इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाना है (जो, हमारी शासन प्रणाली के तहत, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं) और राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करना होता है, जैसा वह आवश्यक समझें। वह,न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों से परामर्श करने के लिए बाध्य नहीं है (सिवाय इसके कि उन्हें, भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा,किसी भी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना चाहिए)। वह न्यायालय के कनिष्ठ न्यायाधीश,या यहां तक कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से भी परामर्श कर सकते हैं।
और हां,उन्हें केवल परामर्श करना है, उनकी सहमति लेना आवश्यक नहीं है ।
लेकिन, द्वितीय न्यायाधीशों के मामले में (सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 1993)सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति केवल कॉलेजियन नामक निकाय (जिस निकाय में सुप्रीम कोर्ट के तीन सबसे वरिष्ठ जज हों)की सिफारिश पर, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की नियुक्ति कर सकते हैं। तृतीय न्यायाधीशों के मामले में (1998 के विशेष संदर्भ 1 में), कॉलेजियम न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाकर पांच कर दिया गया। यह भी कहा गया कि सरकार एक बार पुनर्विचार के लिए कॉलेजियम की सिफारिश वापस कर सकती है लेकिन अगर कॉलेजियम वो नाम दोहराता है तो उस व्यक्ति की नियुक्ति की जानी चाहिए।
अब, संविधान के अनुच्छेद 124 में कॉलेजियम का कोई उल्लेख नहीं है।यह विधियों की व्याख्या का एक स्थापित सिद्धांत है कि, न्यायालय, व्याख्या की आड़ में, किसी कानून में संशोधन नहीं कर सकता है, या इसे अपने स्वयं के रचना के साथ प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है। न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वह कानूनों की व्याख्या करें और उन्हें अपने सामने आने वाले मामलों में लागू करें।कानून बनाना,या उसमें संशोधन करना, विधायिका का काम है। हमारे संविधान के तहत राज्य के तीन अंगों के बीच शक्तियों का व्यापक पृथक्करण है और कोई भी अंग एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अवैध रूप से अतिक्रमण नहीं कर सकता है (डिविजनल मैनेजर,अरावली गोल्फ क्लब बनाम चंद्रहास देखें)
लेकिन, द्वितीय और तृतीय न्यायाधीशों के मामलों में, जिसे लॉर्ड कुक ने “हाथ की चालाकी” कहा है, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 124(2) को अपने स्वयं के आविष्कार से प्रतिस्थापित किया। (देखें लॉर्ड का लेख, ‘व्हेयर एंजेल्स फियर टू ट्रैड’ उनकी पुस्तक ‘सुप्रीम बट नॉट इनफॉलीबल’से।)
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर और न्यायमूर्ति रूमा पाल, दोनों सर्वोच्च न्यायालय के अत्यंत सम्मानित पूर्व न्यायाधीश हैं, ने कहा है कि कॉलेजियम के फैसले अक्सर ‘ट्रेड-ऑफ’ यानी ‘आप मेरे आदमी से सहमत हैं, और मैं आपके से’ द्वारा पहुंचा जाता था जिसके परिणाम स्वरूप अक्सर अयोग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था।
2014 में, निन्यानवे संवैधानिक संशोधन ने एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग द्वारा कॉलेजियम प्रणाली को बदलने की मांग की, लेकिन 4-1 के बहुमत के फैसले से सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया।
इस मामले में जस्टिस चलमेश्वर ने जोरदार असहमति जताते हुए लिखा कि, कॉलेजियम सिस्टम में जवाबदेही और पारदर्शिता का घोर अभाव है। प्रणाली पूरी तरह से अपारदर्शी है, क्योंकि कॉलेजियम की बैठकों में क्या हुआ, यह दिखाने के लिए कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता, इसलिए किसी बाहरी व्यक्ति को कुछ भी पता नहीं चलता है।उन्होंने यह भी कहा कि संविधान में किसी भी श्रेष्ठता का कोई उल्लेख नहीं है, और अलोकतांत्रिक होने के अलावा चयन प्रक्रिया से सरकार का पूर्ण बहिष्करण तो दुनिया में कहीं देखा ही नहीं गया है। भारत के सिवा दुनिया में कहीं भी, जज दूसरा जज नियुक्त नहीं करते।
मैं यह तर्क प्रस्तुत करता हूं कि कानून मंत्री ने जो कहा है उस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है और द्वितीय और तृतीय न्यायाधीशों के मामलों को सर्वोच्च न्यायालय के कम से कम ग्यारह माननीय न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा फिर से देखे जाने की आवश्यकता है ,(क्योंकि न्यायाधीशों के मामलों का फैसला नौ सदस्यों के बेंच द्वारा किया गया था )ऐसा करने में विफलता का मतलब होगा कि मौजूदा गतिरोध और टकराव जारी रहेगा जिससे संस्था को और नुकसान होगा।
मार्कंडेय काटजू (जस्टिस मार्कंडेय काटजू 2011 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए हैं)
Had collegium system been successful why pending cases all over reached to 6 crores & 60 lakhs in SC, apart SC judiciary Collegium has to be accountable like MLA MP etc …only solution is reforms in Judiciary including replacing collegium with Judicial commission like UPSC etc…fix accountability