भाजपा नेता सुधांशु त्रिवेदी ने एक कार्यक्रम में कहा कि हिंदी के सरलीकरण के नाम पर उसे संस्कृत निष्ठ शब्दों से दूर किया गया, और यही कारण है कि हिंदी आम जनता से दूर हो गयी।
भाजपा नेता सुधांशु त्रिवेदी को यदि विस्तार दिया जाए तो कहा जाए कि जैसे ही हिंदी में वामपंथी सोच वाले लेखकों ने और संस्कृत से घृणा करने वाले लोगों ने हिंदी को सरल करने के नाम पर अरबी और फारसी शब्दों से भरने का प्रयास किया, और उसके बाद लोगों की अरुचि हिंदी में उत्पन्न हो गयी। कई ऐसे शब्द थे, जिनकी हिंदी में आवश्यकता नहीं थी, परन्तु उन्हें हिंदी में बलात सम्मिलित किया गया, इसके कारण हिंदी की मधुरता खो गयी। कई ऐसे विचारक बैठे हुए थे जिन्होनें संस्कृत को मात्र ज्ञान की भाषा घोषित कर दिया, तथा यह कहा कि संस्कृत में तो प्रेम रचा ही नहीं जा सकता। अरबी और फ़ारसी निष्ठ उर्दू को प्यार की जुबां घोषित किया जाने लगा। उसे तहजीब की भाषा बना दिया गया।
संस्कृत के सामान्य शब्दों को भी कठिन एवं जटिल कह कह कर हिंदी से दूर कर दिया, जबकि प्राचीन साहित्य बार बार प्रमाण दे रहा था कि संस्कृत के प्रयोग के साथ ही हिंदी आगे बढ़ेगी एवं परस्पर भारतीय भाषाओं के साथ निर्विवाद रूप से आगे बढ़ेगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। आज संस्कृत के कुछ श्लोकों के माध्यम से यह देखते हैं कि संस्कृत में किस प्रकार शारीरिक सौष्ठव का वर्णन है एवं प्रेम, श्रृंगार का वर्णन है
रामायण के बालकाण्ड में जब राजा जनक के महल में यज्ञ में विश्वामित्र जी प्रभु श्री राम एवं लक्ष्मण को लेकर पहुंचे हैं, तो उन्हें देखकर जनक अभिभूत हो गए हैं, वह प्रश्न करते हैं
“पुनस्तं परिपप्रच्छ प्रांजलि: प्रयतो नृप:
इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ
गजसिंहगति वीरौ शार्दूलदृपभौपमौ
पद्मपत्रविशालाक्षौ खंगतूणीधनुर्धरौ
अर्थात
और हाथ जोड़कर वह बोले आपके आशीर्वाद से इन कुमारों का कल्याण हो, यह तो बतलाइये ये दोनों कुमार जो देवताओं के समान पराक्रमी हैं, गज, सिंह, शार्दूल और वृषभ के समान चलने वाले, कमल जैसे नेत्र वाले, खंग, तरकस और धनुषधारी,
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवानौ
यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ
सौन्दर्य में जो अश्विनीकुमार हैं, स्वेच्छापूर्वक देवताओं की तरह स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरे हुए,
कथं पद्म्यामिह प्राप्तौ किमर्थ कस्य वा मुने
पुण्डरीकविशालाक्षौ वरायुधधरौवुभौ
क्यों और किस लिए पैदल यहाँ पर आए हुए हैं और किसके पुत्र हैं? इनके विशाल और कमल सृदश नेत्र हैं, श्रेष्ठ आयुध धारण किए हुए हैं।
ऐसा नहीं था कि यह शब्द मध्यकाल में समझ में नहीं आते थे, आते थे, तभी जब तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखी तो संस्कृत जानते हुए भी उन्होंने उसे अवधी में लिखा। परन्तु शब्द संस्कृतनिष्ठ ही थे। जैसे इसी प्रसंग के सन्दर्भ में वह लिखते हैं:
प्रेम मगन मन जानि नृप, करि बिबेक धरि धीर,
बोलेउ मुनि-पद नाइ सर, गदगद गिरा गंभीर
कहहुनाथ सुन्दर दोउ बालक, मुनिकुल तिलक कि नृप पालक,
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा, उभय बेश धरि की सोई आवा
सहज बिराग रूप मन मोरा, थकित हॉट जिमि चन्द चकोरा,
ता तैं प्रश्न पूछऊँ सतिभाऊ, कहहु नाथ जनि करहि दुराऊ!
अर्थात
राजा जनक ने मुनि के चरणों में सिर झुकाकर गदगद होकर गंभीर वाणी से कहा “हे नाथ, कहिये, ये दोनों सुन्दर बालक, मुनिकुल के भूषण हैं या राजा के वंश के पालने वाले हैं, जिस ब्रह्म को वेद इति नहीं कहकर गाते हैं, क्या वही दो रूप धारण करके आए हैं।
संस्कृत निष्ठ हिंदी जब तक रही तब तक वह आम जन की भाषा बनी रही, विद्रोह की भाषा बनी रही और पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने की भाषा बनी रही। यह स्पष्ट है कि हिंदी ने चूंकि अपना मूल रूप संस्कृत से लिया, जिसमें हर शब्द की अपनी एक सांस्कृतिक अवधारणा थी, अत: वही प्रयोग हो सकता था। जैसे जल! जल का अर्थ सरलीकरण के माध्यम से पानी ले लिया, परन्तु गंगा जल को गंगा का पानी कहते ही सारा अर्थ नष्ट हो गया। जल स्वयं में पवित्रता का द्योतक है। गुरु का अर्थ टीचर या शिक्षक लेते ही गुरु शब्द का ह्रास हो गया।
साधारण जो सहजता का पर्याय था, उसे आर्डिनरी बनाकर मामूली कर दिया गया। अत: इस सरलीकरण ने हिंदी को उसकी भव्यता और संस्कृति से दूर कर दिया।
हिंदी की संस्कृति थी उसका हिन्दू धर्म से सम्बन्ध। उसकी लिपि ही देव नागरी थी अर्थात देवों की लिपि। जैसे ही प्रभु इच्छा के स्थान पर “ऊपर वाले की मर्जी” लिखा गया, हिंदी धर्म अपने मूल अर्थात हिन्दू धर्म से अलग हो गयी। क्योंकि हिन्दू धर्म में तो कण कण में भगवान का वास है, वह ऊपर तो है ही नहीं, वह तो कण कण में हैं। इसी प्रकार जैसे ही रामायण और महाभारत को माइथोलॉजी अर्थात मिथक कहना आरम्भ किया, वैसे ही रामायण और महाभारत के साथ साथ स्वयं को जड़ों से काट लिया।
हिंदी का मूल संस्कृत एवं हिन्दू धर्म था। क्योंकि मुस्लिमों ने तो अपनी भाषा पहले ही चुन ली थी और वह थी अरबी और फारसी मूल के शब्दों की उर्दू! जिसमें इस्लाम की अवधारणा वाले शब्द हों। जब उन शब्दों को डालकर हिंदी को सरल बनाया गया, वैसे ही हिंदी अपनी उन भाषाओं से दूर हो गयी जो संस्कृत के निकट थीं।
जबकि संस्कृत में सौन्दर्य का वर्णन देखिये:
भृतहरि के श्रृंगार शतक से कुछ उदाहरण दे रही हूँ,
मुग्धे! धानुष्कता केयमपूर्वा त्वयि दृश्यते ।यया विध्यसि चेतांसि गुणैरेव न सायकैः ॥ 13॥
अर्थ:हे मुग्धे सुन्दरी !
धनुर्विद्या में ऐसी असाधारण कुशलता तुझमे कहाँ से आयी, कि बाण छोड़े बिना, केवल गुण से ही तू पुरुष के ह्रदय को बेध देती है ?
अनुष्टुभ्सति प्रदीपे सत्यग्नौ सत्सु नानामणिष्वपि ।विना मे मृगशावाक्ष्या तमोभूतमिदं जगत् ॥ 14 ॥
अर्थ: यद्यपि दीपक, अग्नि, तारे, सूर्या और चन्द्रमा सभी प्रकाशमान पदार्थ मौजूद हैं, पर मुझे एक मृगनयनी सुन्दरी बिना सारा जगत अन्धकार पूर्ण दिखता है ।
अत: एक झूठ रचा गया कि संस्कृत निष्ठ हिंदी जटिल है, हम आगे के लेखों में कई नीरस सरल शब्दों और उनके पीछे के षड्यंत्र का उल्लेख करते रहेंगे
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