रॉकेट्री: द नम्बी इफ़ेक्ट में लोगों को समस्या हुई कि आखिर पूर्व इसरो वैज्ञानिक को धर्मनिष्ठ हिन्दू क्यों दिखाया गया? बॉलीवुड की लॉबी को धर्मनिष्ठ हिन्दुओं से प्रेम नहीं है, बल्कि हिन्दी साहित्य की भांति हिन्दी फिल्मों में भी हिन्दू पारिवारिक मूल्यों वाली फिल्मों को नीचा और पिछड़ा दिखाया जाता है और साथ ही यह प्रयास भी होता है कि खलनायक हिन्दू मूल्यों वाला एवं हिन्दू धार्मिक प्रतीकों वाला ही हो। परन्तु यहाँ पर नायक हिन्दू प्रतीकों वाला है, तो उन्हें समस्या है!

बॉलीवुड का यह खेल लगातार चलता चला आ रहा था। और मजे की बात यह है कि हिन्दी फिल्मों में सत्य घटनाओं में भी एजेंडे का तडका मार कर पेश किया जाता था। घटनाओं को इस प्रकार गूंथा जाता था कि जिसके कारण या तो हिन्दू या फिर हिन्दू समाज के उच्च वर्ग ही खलनायक के रूप में स्थापित हो जाएँ।
इसमें सबसे बड़ा उदाहरण था चक दे इंडिया फिल्म! कहा गया कि यह फिल्म मीर रंजन नेगी के जीवन पर आधारित है। इसमें मीररंजन नेगी को कबीर खान तो कर ही दिया, साथ ही इसमें पूरे देश को ही दोषी ठहराकर रख दिया कि, चूंकि हिन्दू प्रधान भारत है तो उसने क्ब्रीर खान के मुस्लिम होने के नाते उसे गद्दार कहा।
हालांकि मीर रंजन नेगी ने कहा था कि यह फिल्म उनके जीवन की कहानी नहीं है, तो फिर कहानी का सिरा 1982 के उस एशियन गेम्स का सन्दर्भ क्यों लिया गया था जिसमें वह पाकिस्तान से एशियन गेम्स के फाइनल में हार गए थे और पूरे 7 गोल टीम ने खाए थे, तो उन्हें लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा था और उन्हें गद्दार तक कहा गया था, ऐसा कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं।
मगर जब चक दे इंडिया बनाई गयी तो उसे पूरी तरह से हिन्दू-मुस्लिम कर दिया गया। मीर रंजन नेगी तो हिन्दू थे, परन्तु फिर भी उन्हें गद्दार कहा गया था, तो यह स्पष्ट है कि गद्दार कहे जाने में धर्म या मजहब की कोई बात नहीं थी, परन्तु फिर भी ऐसी कहानी गढ़कर पूरे भारत को कठघरे में खड़ा किया गया।

ऐसी ही एक हिन्दू महिला अधिकारी के एम अभर्ण, जिन्होनें एक आदमखोर शेरनी का मामला सम्हाला था, और जिन्होनें नौ नौ लेडी गार्ड्स की टीम बनाई थी, जो लोगों तक पहुँचने के लिए गाँव वालों के साथ संपर्क रखती थीं। वह बिंदी आदि लगाने वाली हिन्दू महिला थीं, तो वहीं जब उनके इस अभियान पर फिल्म बनी “शेरनी” तो उसमें घटना को वही रखा, मगर धर्म बदल दिए गए।

के एम अभर्ण का चरित्र विद्या विसेंट अर्थात एक ईसाई में बदल दिया गया। विद्या विंसेट, अर्थात एक ईसाई महिला, जिसे गहने आदि पसंद नहीं हैं और अधिकारी के रूप में वह बिंदी आदि लगाना पसंद नहीं करती है। चूंकि बिंदी लगाने से महिलाएं कमज़ोर हो जाती हैं, तो एक सशक्त औरत को बिंदी नहीं लगानी चाहिए, इस फेमिनिज्म को और पुष्ट करने के लिए असली अधिकारी के एम अभर्ण के बिंदी वाले लुक को नहीं लिया गया। जिन्होनें अवनि को पकड़ने का अभियान ही नहीं चलाया था, बल्कि उसके लिए जमीन आसमान एक कर दिया था।
मगर इससे भी अधिक, जो खेल किया गया था, वह था शिकारी का धर्म बदलना। जिसने उस शेरनी को मारा था उसका नाम था शफात अली खान, न कि कलावा पहनने वाला रंजन राजहंस, जैसा फिल्म में दिखाया गया। शफाक अली की छवि विवादित शूटर की थी न कि किसी हिन्दू की!

मजे की बात यह है कि इस फिल्म में कहानी लेकर मनचाहे तोड़फोड़ ऐसे किए गए थे, जिससे हिन्दू धर्म का अपमान हो, जैसे शेरनी को मारने/पकड़ने के लिए कार्यालय में हवन हो रहा है और विद्या विसेंट और एक मुस्लिम चरित्र उसे देखकर उपहास पूर्ण तरीके से हंस रहे हैं। और वह हिन्दू शिकारी भी उस हवन का हिस्सा है।
जबकि वास्तविक जीवन में शिकारी मुस्लिम था, और गार्ड की टीम बनाकर काम करने वाली के एम अभर्ण हिन्दू!
इतना ही नहीं इस मामले में मुकदमा लड़ा था वन्यजीवन कार्यकर्ता संगीता डोगरा ने, जिन्होनें यह कहा था कि गाँव वालों ने ही पेशेवर शिकारी के लिए जश्न मनाया था। मगर फरवरी 2021 में संगीता डोगरा ने मुम्बई उच्च न्यायालय से अपील वापस ले ली थी क्योंकि न्यायालय ने यह अपील खारिज कर दी थी, जबकि इस फिल्म में क्या दिखा दिया गया कि विद्या विन्सेंट और नूरानी जी मामला लड़ रहे हैं। जबकि मुकदमा लड़ा संगीता डोगरा ने! और यह भी नहीं बताती है फिल्म कि आखिर अवनि के बच्चों का क्या हुआ?
इन उदाहरणों में एक और फिल्म है जिसे कतई भी नहीं भूला जा सकता है और वह आर्टिकल 15! बहायूं में दो बहनों के गैंगरेप और हत्या पर फिल्म बनी थी। उसमें हत्या का आरोप लगा था पप्पू यादव पर, और सीबीआई भी शायद किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुँच पाई थी, परन्तु इस फिल्म में अर्थात आर्टिकल 15 में दोषी किसे ठहराया गया, “ब्राहमण समाज को!” ब्राहमण समाज के पुरुषों को दरिंदा बनाकर पेश किया गया, पूरी छवि बर्बाद करने का कुप्रयास इसी रचनात्मक स्वतंत्रता के आधार पर किया।
जिस ब्राह्मण समाज का उस मामले से कोई लेनादेना नहीं था, उसे सबसे बड़ा खलनायक उस फिल्म में प्रस्तुत कर दिया गया और फिल्मनिर्माता ने अपने दिमाग का सारा कूड़ा करकट उस एजेंडा फिल्म में डाल दिया था। हिन्दू समाज में विघटन कारी षड्यंत्र को रचते हुए एक अनुभव सिन्हा ने भारतीय जनता पार्टी को निशाना बनाते हुए भगवा पार्टी को दोषी ठहराया था, जबकि बदायूं की घटना के समय तो मुख्यमंत्री सपा के अखिलेश यादव थे, और यादवों पर ही आरोप था इस जघन्य घटना का! हालांकि सीबीआई भी किसी परिणाम पर नहीं पहुँच पाई थी, फिर भी तथ्यों को तोड़मरोड़ कर अपने राजनीतिक एजेंडा और आकाओं के इशारों पर चलकर हिन्दू समाज के प्रति इतना बड़ा षड्यंत्र बॉलीवुड ने खेला था!

इसका विरोध भी अखिल भारतीय ब्राम्हण महासभा ने यह कहते हुए किया था कि इस फिल्म में जानबूझकर गलत तरीके से दिखाया गया है।
ऐसे में जब नम्बी नारायण यह प्रश्न करते हैं कि मैं एक हिन्दू हूँ, तो मेरी कहानी भी हिन्दू के ही रूप में दिखाई जाएगी न? तो वह बॉलीवुड के हिन्दू घृणा वाले चेहरे से अपरिचित हैं, वह यह कल्पना ही नहीं कर सकते हैं कि यदि उन्होंने स्वयं अपनी कहानी न लिखी होती, अपनी लडाई न लड़ी होती तो शायद यह हो भी सकता है कि उनकी कहानी के साथ भी सेक्युलर खेल कर दिया जाता, उनकी कहानी विकृत कर दी जाती!
नम्बी सर बहुत भोले है, यदि बॉलीवुड फिल्म बनाता तो कहीं न कहीं तड़का लगाता, जैसे कश्मीरी पंडितों की कथित पीड़ा पर एजेंडा फिल्म “शिकारा” बना दी जाती है।
हिन्दू पहचान के चिह्न खोज खोज कर बॉलीवुड में मिटाए जाते हैं! “कश्मीर फाइल्स का विरोध इसीलिए हुआ क्योंकि उसमें सत्य दिखाया गया, नम्बी नारायण पर विरोध इसलिए हुआ क्योंकि उसमें उन्हें धार्मिक हिन्दू दिखाया गया, और आरआरआर जैसी फिल्म तो बॉलीवुड में बनाने की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता है, जिसमें हिन्दू होने के गौरव को प्रदर्शित किया गया है!
नम्बी सर बहुत भोले हैं, बॉलीवुड सब कुछ कर सकता है, सब कुछ! यदि उन्होंने अपनी कहानी न लिखी होती तो वह उनकी कहानी को भी एजेंडे का शिकार बना चुका होता!
उन्होंने प्रश्न किया कि क्या हिन्दू होना पाप है? तो सर, वास्तव में बॉलीवुड और हिन्दी साहित्य में हिन्दू होना, धार्मिक हिन्दू होना, धार्मिक पक्ष रखना पाप के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, यहाँ हिन्दुओं को उनके ही नायकों की फिल्म बनाए जाने के नाम पर कोसना आम बात है, शेष तो छोड़ ही दिया जाए!