कल सुबह एक समाचारआया, जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया। वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में आजतक में एंकर रोहित सरदाना का दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया। रोहित कोरोना से भी संक्रमित थे।
रोहित सरदाना एक वर्ग विशेष को बेहद प्रिय थे तो एक वर्ग को नहीं। वह राष्ट्रवादी पत्रकार माने जाते थे। उनका जाना जैसे राष्ट्रवादी खेमे के लिए एक आघात बनकर आया। और देखते ही देखते आम लोगों के साथ साथ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित कई नेताओं के ट्वीट आ गए। परन्तु जहां एक ओर लोग दुखी थे, तो वहीं कट्टर इस्लामी और वामपंथी, कांग्रेसी आदि रोहित सरदाना के असमय निधन पर जश्न मना रहे थे।
राजदीप सरदेसाई ने जैसे ही रोहित सरदाना के निधन का ट्वीट किया तो वामपंथियों के लाड़ले शर्जिल उस्मानी ने अत्यंत आपत्तिजनक शब्दों का उल्लेख करते हुए उन्हें जनसंहार कराने वाला बता दिया, जबकि यही शर्जिल उस्मानी ही वह व्यक्ति था, जिसने यलगार परिषद की बैठक में हिन्दू समाज को सड़ा गला बताया था, जबकि इसने अभी तक अपने मजहब के बारे में बात नहीं की है जिसमें अब लोगों को पता चल रहा है कि कुरआन से निकाह तक की रस्में होती हैं। इसने रोहित को मनोरोगी बता दिया।
Sociopath, pathological liar and genocide enabler that he was, SHALL NOT BE REMEMEBERED AS JOURNALIST! https://t.co/nbnfcstCcM
— Sharjeel Usmani (@SharjeelUsmani) April 30, 2021
ऐसा नहीं था कि शर्जिल उस्मानी ही अकेला व्यक्ति था। इन्डियन एक्सप्रेस में कार्यरत अन्य शंकर ने रोहित सरदाना के निधन के विषय में लिखा कि मृत को आदर देने के नाम पर सफेदी अभियान शुरू हो चुका है। यह समझ में नहीं आ रहा है कि कौन सा सफेदी अभियान! मृत को आदर देना हमारी परम्परा है। हाल ही में सीताराम येचुरी के पुत्र का निधन हुआ था तो लोगों ने उपहास नहीं उड़ाया था। मृत को श्रद्धांजली देना हमारी परम्परा में सम्मिलित है। महाभारत के युद्ध में भी शत्रु के शव का आदरपूर्ण अंतिम संस्कार किया जाता था। यह तो बाद में जब विदेशियों का आक्रमण आरम्भ हुआ तो शव के अनादर की परम्परा आरम्भ हुई। जिसमें कबीलाई तैमूर आदि आए और जिन्होनें शवों को शहरों से बाहर टांगना आरम्भ किया, जिससे लोगों में खौफ फैले। जबकि महाभारत काल तक ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं प्राप्त होता है।
https://twitter.com/AnyaShankar/status/1388039208330137600
इतना ही नहीं, फिर तो जैसे एक दौड़ आरम्भ हो गयी और रोहित सरदाना को जमकर गाली देनी आरम्भ हो गईं। उसमें हिंदी के प्रगतिशील लेखकों में तो जैसे होड़ मच गयी। वामपंथी लेखक वर्ग में बेहद चर्चित लेखिका गीता यथार्थ ने आज कई पोस्ट डालीं और गौरी लंकेश की मृत्यु के साथ जोड़ दिया। गौरी लंकेश की पत्रकारिता कैसी थी और रोहित सरदाना की पत्रकारिता कैसी है, यह दोनों को देखकर समझा जा सकता है।
रोहित सरदाना के प्रति कुंठा निकालने के लिए हिंदी पत्रकारिता जगत भी तैयार बैठा था। उनके साथ काम कर चुके मुकेश कुमार ने अपनी फेसबुक पोस्ट पर लिखा:
रोहित सरदाना का जाना उसी तरह से दुखद है जैसे किसी और का जाना।
हालाँकि ये अफ़सोस मैं बहुत पहले फेसबुक पर ही ज़ाहिर कर चुका हूँ कि मैंने उन्हें पहचानने में चूक की और सहारा में बतौर ऐंकर चुना।
रोहित ऊर्जा से भरपूर और एक टीम के रूप में काम करने वाले पत्रकार थे। अपने साथी ऐंकरों की मदद करते उन्हें देखा जा सकता था।
सहारा में रहते हुए उन्होंने कभी उस तरह की ज़हरीली बकवास नहीं की जैसी वे ज़ी और आज तक पर कर रहे थे। कभी इस तरह का संदेह भी नहीं हुआ कि उनके अंदर एक फासिस्ट बैठा हुआ है या वे अवसर पाने पर इस तरह की पत्रकारिता करेंगे जो बेहद डरावनी और पत्रकारिता को कलंकित करने वाली होगी। शायद इन चैनलों और उनके संपादकों ने भी उन्हें ऐसा बनने को प्रेरित किया होगा।
लेकिन आदमी जीवित रहता है तो उसके बदलने तथा प्रायश्चित करने की संभावना बनी रहती है। उनकी मृत्यु के साथ वह संभावना भी मर गई।
रोहित के परिजनों को मेरी शोक संवेदनाएं।
जब उनकी इस असंवेदनशील पोस्ट पर उन्हें टोका गया तो उन्होंने फिर से एक पोस्ट की कि उनसे पाखण्ड की उम्मीद न की जाए!
खैर, यह तो संभवतया वैचारिक विरोध थे और रोहित सरदाना तक ही सीमित थे। पर शाम होते होते हिंदी जगत ने रोहित सरदाना के प्रति एक ऐसा फेसबुक पोस्ट देखा, जिसने लगभग सभी को हिलाकर रख दिया। आक्रोश भर दिया। होंगकोंग में एशियन ह्यूमेन राइट्स कमीशन में खाने के अधिकार में प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर के रूप में काम करने वाले और हांगकांग में ही रहने वाले भारत के समरअनार्य ने अर्नब गोस्वमी की मृत्यु की कामना करते हुए लिखा “अब बस कोई तिहाड़ी और गोस्वामी की भी खुशखबरी दे दे!” उसने किसी और की पोस्ट पर जाकर रोहित सरदाना की बेटियों की मृत्यु की कामना की। उसने लिखा, “मर जाएं हरामखोर! हत्यारे बाप की औलादें हैं। रहें तो मुश्किल ही करेंगे!”
यह किस प्रकार की नफरत है?
कांग्रेस के कई नेता भी अपनी जहरीली सोच का प्रदर्शन करते नज़र आए। पिछले वर्ष दिल्ली को दहलाकर रख देने वाले दिल्ली दंगों की मुख्य आरोपियों में से एक सफूरा ज़रगर ने भी अपनी खुशी को छिपाने में देर नहीं की। उन्होंने ट्वीट किया कि यह गोदी मीडिया के लिए एक ट्रेलर है! आपकी मौत का भी तमाशा बना दिया जाएगा। यही आपने अपने लिए चुना था और आपको ही इसके लिए दोष दिया जा सकता है।
This is a trailor for Godi media. Aapki maut ka bi tamasha bna diya jayega. This is what u have chosen for yourself. You have only yourself to blame. https://t.co/FV5H3xIOc7
— Safoora Zargar (@SafooraZargar) April 30, 2021
कुछ कट्टर इस्लामियों की खुशी तो छिपाए नहीं छिप रही थी।
आखिर यह जहरीली सोच क्यों है? क्या रोहित सरदाना ने किसी का खून किया था? क्या जिन लोगों ने रोहित सरदाना के खिलाफ यह सब लिखा रोहित सरदाना ने उनके घर में डकैती डाली थी? नहीं! फिर क्या दोष था? दरअसल दोष था रोहित सरदाना द्वारा उस रेखा पर चलना, जो इनके विचारों और इनके देश तोड़ने वाले एजेंडे के साथ नहीं थी। रोहित सरदाना तर्क से बात करते थे! वह टुकड़े टुकड़े गैंग का एजेंडा नहीं चलाते थे। जैसा जीरो टीआरपी वाले पत्रकार चलाते हैं। वह हांगकांग में रह रहे उस घिनौने व्यक्ति की तरह केवल और केवल हिन्दुओं के खिलाफ एजेंडा नहीं चलाते थे और न ही वह कथित फेमिनिस्ट द्वारा उठाए गए बेहद घिनौने विषयों को उठाते थे।
वह देश की बात करते थे, वह प्रश्न उठाते थे और सभी से प्रश्न करते थे। उन्होंने किसान आन्दोलन के विषय में वह नहीं लिखा और कहा जो विपक्षी दलों ने बुलवाना चाहा! उन्होंने सीएए का समर्थन किया था! इसीलिए कागज दिखाओ गैंग उनसे चिढ़ता था। और यही कारण है कि वह गैंग खुश हैं।
मजे की बात यह है कि मानवता की बात करने वाले यह सभी कथित चेहरे केवल अपने पक्ष की ही मानवता की बात करते हैं आप किसी का भी पोस्ट पढ़ लीजिये! यह इंसानियत की बड़ी बड़ी बातें करेंगे, यह बार बार राष्ट्रवादियों को उकसाएंगे, उन्हें कोसेंगे, और उन्हें ही असहिष्णु बताएँगे, जबकि हांगकांग से लेकर उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव तक फैला इनका वायरस इतना खतरनाक है कि वह दूसरे पक्ष के बच्चों को भी जिन्दा नहीं रहने देंगे? यह इनकी मानवता है? यह इनकी वह इंसानियत है जिसका ढोल वह सुबह से लेकर शाम तक पीटते हैं। यह इनकी वह इंसानियत है, जिसे बचाने के लिए वह मोदी से लेकर हर राष्ट्रवादी के मरने की कामना करते हैं।
इनमें से लगभग सभी ने बेसिक डीसेन्सी अर्थात न्यूनतम मानवता के सिद्धांत को ख़ारिज कर दिया है, फिर चाहे वह सफूरा हों, समर अनार्य हों, गीता यथार्थ हों या फिर मुकेश कुमार। इन्होनें यह प्रमाणित कर दिया है कि इनके लिए अपने से असहमत व्यक्ति का क़त्ल भी मान्य है, वही कबीलाई मानसिकता कि या तो हमारा मत क़ुबूल करो, नहीं तो मरो! अभी मार नहीं पाते हैं तो मरने पर जश्न मना लेते हैं।
पर वह यह भूल रहे हैं, कि विचार के योद्धा तो चले जाते हैं, पर अपने पीछे हजारों और लाखों योद्धाओं को खड़ा कर जाते हैं। आज उनकी यह निर्लज्ज हंसी अपने आप में उनकी असलियत बताने के लिए पर्याप्त है।
यह वही मुग़ल मानसिकता है, यह वही तुर्क मानसिकता है जो छोटे छोटे बच्चों को काटकर माओं को खिलाते थे और यह दौर हाल ही में भारत में कश्मीर में देखा है और ईराक ने आईएसआईएस के शासनकाल में देखा है। यही मानसिकता है जो अपना विचार न मानने वाले इंसान को तडपा तड़पा कर मारती है और यही मानसिकता है जो दूसरे विचार की स्त्री को अपनी रखैल मानती है।
आज इनकी हंसी ने वही पैशाविकता से भरी हंसी दिखा दी है, जो लोग भूल चुके थे, या फिर यह लगता था कि मृत्यु वाले दिन नहीं दिखाई देगी, पर काश कि इतनी समझदारी उनमें होती? काश ज़िन्दगी भर प्रोफेसर गीरी करने वाले प्रोफेसर आदि समझ पाते कि उनके विचार से परे भी एक संसार है, जिसमें रहने वाले व्यक्ति को भी जीने का अधिकार उतना ही है जितना उन्हें!
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