हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे, जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:
*************************************************************************
16-17 अगस्त 1946 के कोलकाता का भयानक नरसंहार मैंने अपनी आंखों से देखा था। सड़कों पर बड़ी संख्या में लाशें पड़ी थी और कितनी तो हुगली नदी में तैर रही थीं। मैंने आगजनी और बेकाबू भीड़ के गुस्से के कारण निजी और सार्वजनिक संपत्ति का व्यापक विनाश देखा था।चारों और मृत्यु और विनाश के विचलित करने वाले दृश्य ने मुझे मानव स्वभाव के बारे में निराश कर दिया। लेकिन मैंने इस भयानक आपदा के कारणों का पता लगाने या इसे भड़काने वाले राजनीतिक आंदोलन पर इसकी जिम्मेदारी तय करने की कोशिश नहीं की।इसके बजाय, मैंने एक लंबा लेख, “द डेविल्स डांस इन कोलकाता” लिख दिया,जिसमें मैंने इस अर्थहीन नरसंहार के लिए हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को समान रूप से ज़िम्मेदार ठहराया। यह लेख एक चक्रलिखित सूचीपत्र के रूप में परिचालित किया गया था जिसे दिल्ली से मेरे मित्रों का एक समूह प्रकाशित कर रहा था।इनमें से कुछ दोस्तों ने मेरे द्वारा खींची गई चित्रात्मक तस्वीर और मेरे द्वारा प्रदर्शित साहित्यिक उत्कर्ष की सराहना की।
लेकिन अगले कुछ दिनों में मुझे रामस्वरूप से जो पत्र मिला उसमें उनका लहज़ा काफी अलग था।उन्होंने मेरे “बाड़ पर बैठने” और मुस्लिम हिंसा की समीकृतना हिंदू हिंसा से करने की सराहना नहीं की थी। उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि, जो मैंने एक आंतरिक विवाद के रूप में वर्णित किया है उसमें सही और गलत को स्पष्ट रूप से देखूँ। उनके अनुसार, मुस्लिम हिंसा, भारत के विभाजन के पतित और प्रतिक्रियात्मक अभियान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से बहुत आक्रामक और प्रतिबद्ध है।दूसरी ओर हिंदु हिंसा रक्षात्मक थी और भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिये ,जो कि एक गृह युद्ध के लिये भी एक बहुत ही योग्य कारण था, उन पर थोपी गई थी ।
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं इस बिंदु को नहीं देख सका। मैं हिंदुओं को उस हत्या के तांडव के लिए माफ करने के लिए तैयार नहीं था जिसमें वह भी शामिल थे। अगर यह भी मान लिया जाए कि मुसलमानों ने पहले दंगों की शुरुआत की थी तो भी वह बेहतर नैतिक स्थिति में कैसे हो सकते हैं?
इससे कुछ ही महीने पहले रामस्वरूप ने मुझे एक लंबे संवाद की टंकित प्रति भेजी थी, लैट अस हैव रायट्सः द फिलॉसफी ऑफ दोज़ हू वांट टू डिवाइड इंडिया बाय स्टीट रायट्स, जो कि उन्होंने शैवियन शैली में लिखी थी। इसमें कांग्रेस,मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के कई प्रमुख राजनीतिक नेताओं का उल्लेख था। डॉक्टर अंबेडकर ने भी विभाजन के विषय पर अपना विशिष्ट योगदान दिया था। इसे बार-बार पढ़कर मुझे हंसी आ गई। मुस्लिम लीग के नेताओं, विशेष रुप से श्री जिन्ना ने खुद को पूरी तरह से हास्यास्पद बना दिया था। उसी तरह पंडित नेहरू भी, जो इस मामले को केवल हिन्दू साम्प्रदायिकता की ही दृष्टि से देखते थे, वह अन्य किसी भी विषय पर संगतिपूर्वक बात नहीं कर सकते थे।
रामस्वरूप ने अपने शब्दों को कई नेताओं के मुख में इस प्रकार रखा कि जनता की निगाह में उनकी छवि गिर गईं, और उनकी असली स्थिति जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर दी, जो अधिकाँश समय दयनीय थी। लेकिन मैं फिर से इस संवाद में फैले गंभीर संदेश को पढ़ने में विफल रहा । मैं इस स्थिति की त्रासदी नहीं देख पा रहा था,जिसमें एक पूरे राष्ट्रीय नेतृत्व ने न केवल अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति बल्कि अपने नैतिक निर्णय को, उपद्रवियों ,मसखरों ,दंगाईयों और विक्षिप्त मानसिकता वाले उन्मादियों के समूह के सामने आत्मसमर्पित कर दिया था। त्रासदी और भी बड़ी थी क्योंकि यह राष्ट्रीय नेतृत्व शिक्षित हिंदुओं के एक बड़े हिस्से का भी प्रतिनिधित्व करता था जो बौद्धिक और राजनीतिक विशिष्ट वर्ग के रूप में पारित हुए थे।
अब तक मैं हिंदुओं और मुसलमानों से भावनात्मक और बौद्धिक रूप से तटस्थ हो चुका था।शायद मुस्लिम दृष्टिकोण की ओर झुकाव था। पाकिस्तान के समर्थन में मैंने जो साम्यवादी पर्चे पढ़े थे उन्होंने सभी व्यवहारिक उद्देश्यों से मुझे उदासीन कर दिया था। लेकिन साम्यवादी साप्ताहिक ‘न्यू एज’ जिसे मैं अब नियमित रूप से खरीदता और पढ़ता था, ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था ।इस साप्ताहिक में हमेशा मुसलमानों को शोषित किसानों और सर्वहारा वर्ग के रूप में और हिंदुओं को शोषक ज़मींदारों और
पूंजीपतियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। इसने लगातार कांग्रेस नेतृत्व पर, मुस्लिम लीग नेतृत्व के साथ एक साझा आंदोलन करने और क्रांतिकारी जनकार्यवाही द्वारा सत्ता हथियाने के बजाय, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ एक समझौता,लगभग एक सौदा करने का आरोप लगाया।
अपने परिवार को गांव भेजने के बाद मैं जब अपने लोगों के बीच रहने लगा और उनसे जो कुछ सुना,उससे हिंदुओं के प्रति मेरी घृणा प्रबलित हो गई। यह वही लोग थे जिन्होंने हमेशा एक पढ़े-लिखे बेवकूफ़ के रूप में मेरा उपहास किया था। वे लोग हमेशा महात्मा गांधी की निंदा करते रहते थे,कई बार तो बहुत ही अभद्र भाषा में। महात्मा नोआखाली में घूम रहे थे जहाँ मुस्लिम लीग के जनोत्तेजक नेताओं द्वारा भड़काए गए मुसलमानों द्वारा हिंदुओं का बड़े पैमाने पर नरसंहार और छेड़छाड़ की गई थी। इस सांप्रदायिक उन्माद की आग को बुझाने के लिए वह हर संभव कोशिश कर रहे थे । वह उस आक्षेप और भर्त्सना के पात्र नहीं थे जो मेरे लोग प्रतिदिन उन पर उछाल रहे थे। यह निंदा और अधिक हिंसक हो गई जब महात्मा,बिहार के हिंदुओं को रोकने के लिए,जो अब नोआखाली का बदला लेने पर आतुर थे,आमरण अनशन पर चले गए। मैंने भी महात्मा गांधी के बचाव में उतनी ही हिंसक भाषा का प्रयोग किया। इसका परिणाम ये हुआ कि उस समुदाय से मुझे बहिष्कृत कर दिया गया।वे मुझे “सूअर का बच्चा” कहने लगे।
मैं जिस प्रतिष्ठान में कार्यरत था वहां अब वरिष्ठ अधिकारी बन चुका था । वेतन कम था।लेकिन मेरे पास एक विशेष कक्ष,एक टेलीफोन और मेरे समादेश पर एक चपरासी था।मैं अपने शनाख़्त पर कुछ कम मात्रा में एक रसायन भी बेच सकता था जो कि कम मात्रा में उपलब्ध था।एक युवा मारवाड़ी दलाल मुझे हमेशा एक या दो ड्रम देने के लिये परेशान करता था और मैं हमेशा उसे भगा देता था। मुझे नहीं पता था कि एक दिन यही दलाल मुझे सीधे कोलकाता में साम्यवादी दल की गोद में ले जाएगा। एक दिन मैं लंच ब्रेक के दौरान अपनी कुर्सी पर बैठा था और मेरे सामने ‘नए युग’ का नवीनतम अंक खुला हुआ था।अचानक वो दलाल मेरे कक्ष में आ गया। मेरा चपरासी वहाँ नहीं था इसलिए उसे रोक नहीं सका।जैसे ही उसने वहां अखबार देखा जो मैं पढ़ रहा था, उसके चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी और उसने कहा-” आपके बारे में मैं ये कभी नहीं जानता था। आप प्रगतिशील हैं तब तो आप बुर्रा बाजार में भी कई प्रगतिशील लोगों को जानते होंगे। मुझे उनमें से कुछ के नाम बताइए, मैं उनमें से प्रायः सभी को जानता हूं। मैंने उसे बताया कि मैं अपने अलावा किसी और प्रगतिशील इंसान को नहीं जानता। जाते-जाते उसने मुझे आश्वासन दिया कि वह यह सुनिश्चित करेगा कि मैं बहुत जल्द ही कई प्रगतिशील लोगों से मिलूँ।
उसने अपना वादा निभाया।कुछ दिनों बाद वह मेरे पास एक छाया नाटक देखने के पास लेकर आया, जिसे इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन ,एक साम्यवादी मोर्चा,कोलकाता के एक प्रसिद्ध रंगशाला में आयोजित कर रहा था। मैंने अगले दिन इसे देखने गया और काफी प्रभावित हुआ। यह कांग्रेस नेतृत्व पर एक व्यंग-चित्र था,जो आम लोगों को सांप्रदायिक दंगों की तरफ जाने को फुसला रहा था ताकि उनके पीठ पीछे वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ मिलकर षड्यंत्र रच सके।इसमें दर्शाया गया था कि कैसे कोलकाता की सड़कों को हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए असुरक्षित बना दिया गया था और कैसे अब सुरक्षित महसूस करने वाला एकमात्र व्यक्ति श्वेत व्यक्ति ही था। इसने हिंदुओं और मुसलमानों से एकजुट होने और कोलकाता की सड़कों को एक बार फिर गोरे लोगों के लिए असुरक्षित बनाने की अपील की,जैसा कि लाल किले में आईएनए की सुनवाई के दौरान,और मुंबई में आरआईएन विद्रोह के दिनों में हुआ था।
इस नाट्यशाला में उपस्थिति से मुझे एक बड़ा लाभ ये हुआ कि कार्यक्रम के बाद मेरे दलाल मित्र ने मेरा परिचय कई अन्य मारवाड़ी युवकों से करवाया। उनमें से एक अब कॉफी हाउस में मेरा स्थायी साथी बन गया था। वह भी दलाल था,हालांकि अधिक प्रतिष्ठित शेयर बाजार में। लेकिन भारत के साम्यवादी नेताओं के बारे में उसके ज्ञान ने मुझे वास्तव में बहुत प्रभावित किया। उन्होंने मुझे मुजफ्फर अहमद, पीसी जोशी, डांगे,अधिकारी, रणदेव इत्यादि की कई वीरोचित कथाएँ सुनाईं।अपनी अज्ञानता में मैंने उन्हें सच मान लिया और इन महान व्यक्तियों के प्रति प्रशंसा से भर गया।उस समय मुझे नहीं पता था कि वह ज़्यादातर साम्यवादी पौराणिक कथाएँ थीं जो दल के साथियों के उपयोग के लिए थीं।
लेकिन नागपुर के एक साम्यवादी नेता के बारे में उन्होंने मुझे जो कहानी सुनाई उसे मैं सच मानने से खुद को रोक नहीं सका।उन्हें 1941के दौरान उसी जेल में कै़द किया गया था जहाँ आचार्य विनोबा भावे क़ैद थे। विनोबाजी हर सुबह अपने कपड़े खुद धोते थे जबकि साम्यवादी नेता वहीं पास में बैठ कर सिगरेट पीते रहते थे।उनके कपड़े कभी साफ नहीं रहते थे ।एक दिन विनोबा जी ने उन्हें कपड़े धोने के कार्य में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया और कहा भी कि ये काफी मज़ेदार था।साम्यवादी नेता चुपचाप चले गए,अपने गंदे कपड़ों का एक बंडल लेकर वापस आए,उन्हें विनोबाजी के सामने ढेर कर दिया और कहा-“चलो भावे कुछ और मजे़ करो।”
इन मारवाड़ी साम्यवादीयों से मिलने के कुछ दिनों बाद मेरे घर एक बंगाली कॉमरेड आया जो शायद बुर्रा बाजार में किसी पार्टी इकाई का सचिव था। उसने अपने संदर्भ के रूप में मेरे मारवाड़ी मित्रों के नाम का हवाला दिया और मुझे धार्मिक समागम में आने के लिए आमंत्रित किया जिसमें वह पार्टी के कुछ अन्य सदस्यों के साथ रहता था। मैं उसके साथ एक पास के स्थान पर गया जहाँ एक दर्जन लड़के और लड़कियों से मिला जो एक छोटे से अस्त-व्यस्त कमरे में, जिसमें एक छोटा सा रसोईघर भी था,साथ रहते थे। मुझे बताया गया कि उनमें से तीन विवाहित जोड़े भी थे।ये,किसी धार्मिक समागम में मेरी पहली और आखिरी यात्रा थी। मुझे इसकी आकृति पसंद नहीं आई। ना ही मैं बंगाली साम्यवादीयों से प्रायः मिलता था। इस संपर्क से मेरा एक मात्र लाभ ये हुआ कि एक फेरी वाले ने मुझे बंगाली साम्यवादी दैनिक”स्वाधीनता”की एक मुफ्त प्रति देनी शुरू कर दी और मेरा परिचय प्रगतिशील लेखक संघ से हुआ जो एक साम्यवादी संगठन मुख पृष्ठ था।
उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष प्रख्यात बंगाली उपन्यासकार श्री ताराशंकर बंधोपाध्याय थे। मैंने उनके कुछ उपन्यास पढ़े थे जिससे उनके प्रति मेरे मन में इज्ज़त बहुत बढ़ गई थी। मुझे उम्मीद थी कि मैं जल्द ही एसोसिएशन कार्यालय में उनसे मिल पाऊँगा। लेकिन ये उम्मीद व्यर्थ साबित हुई क्योंकि एक वर्ष से अधिक समय तक चली मेरे लगातार अभ्यागमन के दौरान भी मैं उस कार्यालय में किसी भी लेखक से कभी नहीं मिला। मुझे ताराशंकर के विशेषकर दो उपन्यास , “मनबन्तर” और “हंसुली बांकर उपकोथा”पसंद नहीं आए जिनकी उन कामरेड्स ने अत्यधिक सिफारिश की थी। हालांकि इन महान लेखक ने बाद में मुझे बताया कि केवल यही दो उपन्यास हैं जो उन्होंने साम्यवादी प्रभाव में लिखे थे और दोनों ही विफल हो गए थे।अपने सामान्य पाठकों के लिए स्वीकार्य होने से पहले उन्हें मन्वंतर को काफी संशोधित करना पड़ा था।
प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मेरे जुड़ाव की एक उल्लेखनीय घटना थी रूसी फिल्म “युवान द टेरिबल” का मंचन।इसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रसिद्ध निर्देशक आईजे़स्टीन द्वारा नाजी आक्रमण के खिलाफ रूसी राष्ट्रवाद को उत्तेजित करने के लिए निर्देशित किया गया था। इसे सोवियत चलचित्रकला की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा गया था।संघ में किसी ने मुझे पच्चीस टिकटों की एक किताब दी जो मैं अपने परिचित लोगों के बीच बेच सकूं या कुछ लोगों को प्रभावित कर सकूं कि लोग आकर इस प्रगतिशील कला की अत्युत्तम कृष्ट को देखें । मैं उनमें से कुछ बेचने में सफल हुआ , कुछ मैंने बांट दिये और। बाकि चौंसठ रूपए का भुगतान अपनी जेब से कर दिया।फिल्म रूसी भाषा में थी जिसका लिखित भाषांतर अंग्रेजी में था। मुझे कहानी का सिर पैर समझ नहीं आ रहा था। मैं ऊब गया था और भीड़भाड़ वाले हॉल से बाहर भाग जाना चाहता था।लेकिन जब मैं कॉफी हाउस में अन्य साथियों के साथ बैठा और सबकी चर्चा सुनी तो मुझे अहसास हुआ कि मेरा फिल्म के बारे में प्रशंसा के कुछ शब्द कहना बेहतर होगा। वे सभी इस फिल्म की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे और साथ ही ह्रासवादी हॉलीवुड प्रस्तुतियों की निंदा कर रहे थे।1948 में आईजे़ंस्टीन जब प्रतिछाया में आ गए तो उन्हें अपनी त्रुटियों के लिए एक दयनीय स्वीकारोक्ति करनी पड़ी। “ईवान द टेरिबल” उन त्रुटियों में से एक थी।
मैं पूरे जोश से साम्यवाद की ओर बढ़ रहा था जब मुझे एक गंभीर झटका लगा।ऐल्डयुअस हक्सले का एक उपन्यास था “टाइम मस्ट हैव अ स्टॉप” जो अभी अभी बाज़ार में आया था। इसे देखते ही मुझे रामस्वरूप की याद आ गई और मैं इसे खरीदने से ख़ुद को रोक नहीं सका, हालांकि उसकी कीमत भर ही पैसे थे मेरी जेब में।लेकिन ये लगभग महीने का अंत था और मैं कुछ दिनों के बाद अपने वेतन की प्रतीक्षा कर सकता था। मैंने अब तक हक्सले की कोई किताब नहीं पढ़ी थी। यह किताब उनकी अपूर्व प्रतिभाशाली लेखन का आविर्भाव/प्रकटीकरण था।मैं इस के पात्रों में से एक, ब्रूनो,से मंत्रमुग्ध हो एक अपूर्वबुद्धि विद्वान के अदीप्त भाग्य पर बड़ी संवेदना के साथ चिन्तन कर रहा था। लेकिन जिस चीज ने मेरा मार्क्सवादी सम्मोहन लगभग तोड़ दिया वह अपरिहार्य प्रगति की हठधर्मिता का विध्वंस था जो उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मार्क्सवाद सहित सभी पश्चिमी विचारों का आधार था।उन्होंने चीजों के अधिक न्यायसंगत अनुक्रम को प्राप्त करने के लिए सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक संस्थानों के बार-बार पुनर्निर्माण को “षडयंत्रात्मक भ्रांति” के रूप में भी सवाल किया। उनका निष्कर्ष यह था कि सामाजिक बुराइयों की जड़ें अंततः मानव स्वभाव में ही निहित हैं। मनुष्य की इच्छा आत्मा से वांछित अनुक्रम का निर्माण नहीं किया जा सकता। श्री अरोबिंदो की सोच की झलक… मैंने सोचा ।
इस किताब ने मुझे बहुत बुरी तरह झकझोर दिया जिसका असर दो साल बाद नज़र आने वाला था।। इस बीच मैंने हक्सले को पढ़ना शुरू कर दिया और उनके प्रमुख उपन्यासों के साथ-साथ उनकी दो प्रसिद्ध पुस्तकें “ऐंड्स ऐंड मींस” और “पेरेन्नियल फिलॉसफी” पढ़ कर समाप्त किया। मैं खुद को विचार और भावना के एक अलग आयाम पर रहने के लिए तैयार कर रहा था। मैंने शेयर बाजार के अपने साम्यवादी मित्र के सामने अपनी आशंकाओं को अंगीकार किया।उसने हक्सले की कोई किताब नहीं पढ़ी थी। लेकिन वह इस महान लेखक की पार्टी लाइन को जानते थे। वह बिल्कुल भी प्रशंसापूर्ण नहीं था। इसके बाद मेरे मित्र ने मुझ पर बुद्धिजीवी होने का आरोप लगाया।उनका दृढ़ मत था और अनुभव भी था कि बुद्धिजीवी दल में अधिक समय तक नहीं टिकते। उनका सबसे बड़ा अपराध प्रमुख वैचारिक मुद्दों पर पक्षपातपूर्ण होने में उनकी असफलता थी। वह पूंजीवादी वस्तुनिष्ठता से पीड़ित थे। मुझे बहुत अपमानित महसूस हुआ ये जानते हुए भी कि मेरे दोस्त ने अपने पूरे जीवन में शायद ही कभी कोई किताब पढ़ी थी।
अगस्त 1946 में दंगे भड़कने से कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक अमेरिकी पत्रकार से हुई जो कोलकाता में एक प्रतिष्ठित अमेरिकी समाचार एजेंसी का ब्यूरो मैनेजर था। जब मैंने ये पर्यवेक्षित किया कि ट्रूमैन एक अपराधी था जिसे हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने के अपराध में फांसी दे दी जानी चाहिए तो उसने मेज पर तीव्र आघात करते हुए हमारे कॉफी कपों को हवा में उड़ा दिया। मुझे लगा कि यह हमारी जान पहचान का अंत है लेकिन कुछ दिनों बाद उसने मुझे फोन किया और समझाया कि उसे इस मामले में एशियाई दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करनी चाहिए थी। इसके बाद हम कई बार मिले और दोस्त बन गए। वह उस समय अमेरिकियों की भाषा में एक उदारवादी था जिसे हम भारत में वामपंथी कहते हैं।वही मुझे सबसे पहले कोलकाता के ड्रैकेस लेन में साम्यवादी दल की किताब की दुकान पर ले गया।उसका मानना था कि उन्होंने कुछ अच्छा साहित्य प्रकाशित किया है और अंग्रेजी में उनका साप्ताहिक एक बहुत अच्छी तरह से संपादित अखबार था ।
वह मुस्लिम लीग दैनिक मॉर्निंग न्यूज़ के संपादक जिलानी का भी अच्छा दोस्त था,जिसने बाद में आर एस एस के साप्ताहिक ऑर्गेनाइजर में अक्सर लिखा। लेकिन उसका कोई ऐसा दोस्त नहीं था जो उसे हिंदू दृष्टिकोण समझा सके।अगस्त के दंगों के दौरान उसने पूरे कोलकाता का दौरा किया था और उसे ये लगा कि वहां के मुसलमान,हिंदूओं से अधिक पीड़ित और प्रभावित हुए थे।बाद में उसने नोआखाली का दौरा किया। उसके बाद उसकी यह धारणा बनी कि स्थिति इतनी खराब नहीं थी जितनी हिंदू इसे चित्रित कर रहे थे। बंगाल विधानसभा में नोआखाली पर एक बहस में भाग लेने के तुरंत बाद एक दिन वह मुझसे मिला।वह डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अन्य हिंदू नेताओं से बहुत नाराज था क्योंकि उन्होंने नोआखली में हिंदुओं को गौ मांस खाने के लिए मजबूर किये जाने पर बहुत बवाल मचाया था। “गौ मांस खाने में इतना भयानक क्या है?”, उसने मुझसे पूछा। इस विषय पर मेरी कोई राय नहीं थी। लेकिन जब उसने डॉक्टर मुखर्जी का “तोंदू जनोत्तेजक नेता” कह कर उपहास उड़ाया तो मैं उसके साथ हो गया।कुछ समय बाद यह दोस्त दिल्ली चला गया और रामस्वरूप से मिला। मुझे तुरंत रामस्वरूप का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैंने अपने अमेरिकी मित्र को काफी मुस्लिम लीगर बना दिया है। लेकिन मैं इशारा नहीं समझ सका।
जब मैंने एक अन्य संस्था में प्रबंधक के रूप में नौकरी प्राप्त की तो मेरी व्यक्तिगत स्थिति बेहतर हो गई। वहां वेतन बहुत बेहतर था। लेकिन जो बात मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने रखती थी वह यह थी कि मेरा नया मालिक, मेरी उम्र का एक युवा मारवाड़ी, एक आश्वस्त साम्यवादी था। वह एक बहुत पढ़ा लिखा व्यक्ति था और उसके पास एक निजी पुस्तकालय भी था जिसमें से मैं जो कुछ भी चाहता उधार लेकर पढ़ सकता था। वह कई विदेशी पत्रिकाओं का ग्राहक भी था जो अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी सोच के थे। मुझे याद है कि जब मैं अमेरिकी पत्रिका “न्यू मासेज़” और “न्यू रिपब्लिक” सप्ताह दर सप्ताह पढ़ता था तो कैसै साम्यवाद की बड़ी खुराक को निगल जाया करता था।
मैंने अपने अमेरिकी मित्र के कोलकाता से प्रस्थान की पूर्व संध्या पर अपनी नई नौकरी और अपने नए बॉस के बारे में खुशखबरी दी। कुछ दिनों बाद मुझे रामस्वरूप का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा था “मुझे पता चला है कि तुम्हारा नया मालिक एक साम्यवादी है। यह ये सुनने जैसा है कि एक बौद्ध ने युद्ध किया है लेकिन ऐसा लगता है कि आम आदमी मार्क्स और भगवान बुद्ध से ज्यादा बुद्धिमान है। वह अपनी व्यक्तिपरक निष्ठा के अलावा उन्हें कभी कुछ नहीं देगा।”
लेकिन एक बार फिर मैं इस इशारे को समझने में नाकाम रहा।