होली आ गयी है और हर साल की तरह इस बार भी वामपंथी एवं फेमिनिस्ट रोना शुरू हो गया है। यह रोना आखिर क्यों शुरू हो जाता है? अब तो ऐसा लगता है जैसे हर त्यौहार ही किसी न किसी एजेंडे के साथ शुरू होता है। पर एक बात यह भी है कि जब से हिन्दुओं ने थोडा मुखर होकर विरोध करना आरम्भ किया है, तब से इन सब प्रोपेगंडा वालों को लाज आई है, फिर भी दो तीन पहले से लोग उठ खड़े हुए हैं और एजेंडे को लेकर आ गए हैं।
होली पर पिछ्ले कई वर्षों से ‘स्त्री विरोधी त्यौहार’ होने का आरोप लगाया जा रहा है। और होलिका दहन के नाम पर इसे स्त्री विरोधी ठहरा दिया गया है। अब एक बात समझ नहीं आती है। एक तरफ तो वामपंथी, आंबेडकर वादी जैसे लोग हिन्दू इतिहास को मानते नहीं हैं, परन्तु फिर भी हर प्रसंग और सन्दर्भ को वह आर्य और अनार्य के सिद्धांत एवं मूल निवासी के आधार पर जोड़ देते हैं। कहानियां जोड़ देते हैं और इतने वर्षों से चल रहे अधिप्रचार (प्रोपोगैंडा) को अब जाकर लोग मानने लगे हैं एवं शैक्षिक (अकेडमिक) स्तर पर भी इसी प्रकार के प्रपंचों का शोर है।
आज हम बात करेंगे कुछ लेखों की जिन्होनें यह सारे झूठ फैलाए हैं। उनके अनुसार एक स्त्री का अपमान किया गया और उसे जिंदा जलाया गया। कहानी यह है कि हिरणाकश्यप नामक असुर ने वरदान पाकर धरती पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिए थे एवं लोगों को स्वयं को ही भगवान मानने पर विवश कर दिया था। जो ऐसा नहीं करता था, उसे वह मार डालता था। फिर उसके पुत्र प्रहलाद ने ही विष्णु पूजन की हठ ठानी और जब उसने अपने पिता की बात नहीं मानी तो उसके पिता ने उसे मारने के कई प्रयास किए।
इसी क्रम में बुआ होलिका द्वारा उसे लेकर अग्नि में बैठना सम्मिलित था, कि वह उसे लेकर आग में बैठेगी क्योंकि उसे अग्नि में न जलने का वरदान है या फिर उसके पास एक चादर है जिसे वह ओढ़ लेगी तो वह नहीं जलेगी। परन्तु विष्णु कृपा से प्रहलाद बच गया और वह जल गयी और इस प्रकार पाप के जलने के रूप में हम होलिका दहन करते हैं।
इस बात को लेकर दलितों के लिए तथाकथित कार्य करने वालों एवं फेमिनिस्ट का शोर चालू है और बार बार वह यह कहते हैं कि एक स्त्री को कैसे जला सकते हैं? अब बहुत समस्या है इन फेमिनिस्ट के सामने। क्योंकि होलिका, हिरणाकश्यप आदि मूलनिवासी कैसे हो सकते हैं? और प्रहलाद कैसे ब्राह्मण हो सकता है? दरअसल इनका जो यह स्त्रीविमर्श जहाँ से आया है, वहाँ पर स्त्री को पुरुषों के समान नहीं माना जाता था, और औरत को महज मनोरंजन के लिए मर्द की पसली से पैदा हुई बताया जाता था। तो वहीं हिन्दू दर्शन में कर्म महत्वपूर्ण है, बल्कि आत्मा का तो लिंग ही नहीं होता। जब आत्मा स्त्री है और न ही पुरुष तो कर्म के आधार पर ही निर्णय लिया जाएगा। महाभारत में भी मोक्षपर्व में जनक-सुलभा संवाद में सूक्ष्म शरीर और स्त्री की स्वतंत्रता का उल्लेख है।
दरअसल वह लोग जीवन की स्थूलता में विश्वास करते है, इस प्रकार ऐसे प्रसंग लाते हैं और ऐसे विमर्श लाते हैं। जबकि गीता में दूसरे अध्याय में आत्मा के विषय में कहा गया है कि वह अविनाशी है, न ही वह उत्पन्न होती है और न ही वह मरती है बल्कि यह निरंतर कर्मों की यात्रा है। जिनके लिए कर्म महत्वपूर्ण न होकर मात्र यह महत्वपूर्ण होता है कि अपराधी का लिंग क्या है, वर्ण क्या है, उनके लिए यह सतही विमर्श होते हैं।
हमारे यहाँ जो भी धर्मग्रंथों में लिखा गया इतिहास है वह बार बार कर्म की ओर इंगित करता है। तभी जब ताड़का का वध करने के लिए राम हिचकते हैं कि वह स्त्री पर अस्त्र कैसे उठाएँ तो ऋषि विश्वामित्र उनकी शंका का समाधान करते हैं एवं उनसे कहते हैं कि वह केवल राक्षसी है जो यज्ञ में बाधा डालने के लिए आई है। जबकि यही मूल निवासी वाले न जाने क्यों रावण को मूलनिवासी मानकर बैठे हैं और उसी के आधार पर अपने सिद्धांत गढ़ते हैं।
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय तो ऐसे जहर भरे पोस्टर्स के लिए कुख्यात ही था जब वर्ष 2016 से ही होली के त्यौहार को बहुजन स्त्री के विरुद्ध एक त्यौहार बताया जाता था। और इसी आशय के कई पोस्टर भी वहां पर लगा करते थे।
इनका स्त्री विमर्श कितना खोखला है कि एक ओर यह होलिका दहन के नाम पर अपनी चूड़ी तोड़ते हैं, तो वहीं सीता के अपहरण को सही भी ठहराते हैं क्योंकि राम और लक्ष्मण ने शूपर्णखा का ‘अपमान’ किया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब शूपर्णखा ने सीता पर आक्रमण किया तो लक्ष्मण ने उसे दंड दिया था। क्या इनका “नो मीन्स नो” केवल स्त्रियों के लिए है? क्या इनके अनुसार किसी पुरुष को यह आधिकार नहीं है कि वह इंकार कर सके और अपनी पत्नी के प्रति समर्पित रह सके?
इतना ही नहीं इनका कथित स्त्री विलाप एक तरफ होलिका को लेकर रोता है तो वहीं यही लोग हैं जो माँ दुर्गा को ‘वैश्या’ कहते हैं। याद रखिये कि यह एक ही लॉबी है, जो घूम फिर कर मूल निवासी और स्त्री विमर्श ले आते हैं। इतना ही नहीं कुछ दीदी लेखिकाएँ भी हैं, जो कहने के लिए कहती हैं कि वह वामपंथी नहीं हैं, पर अपने लेखों और कविताओं से उनके ही विमर्श को आगे बढ़ाती हैं।
माँ दुर्गा को वैश्या कहने वाले लोगों के मंच पर वह लेखिकाएँ और कवयित्रियाँ जाकर होली को स्त्री विरोधी कहती हैं, जो स्वयं को स्त्री विमर्श का पुरोधा साबित करती हैं।
स्त्रीकाल, फॉरवर्ड प्रेस जैसी कई ऐसी वेबसाईट हैं, प्रकाशन हैं, जो इस प्रकार का जहर भरते हैं। आवश्यक है कि इन जहर भरे विमर्श के सम्मुख यह बहुत ही मजबूती से साबित किया जाए कि जो भी गंदगी आई है वह नैतिक मूल्यों के पतन के कारण आई है, वह मूल्य जो हमारे समाज का मूल स्तम्भ थे और जिन पर आज से नहीं बल्कि सदियों से प्रहार होता आ रहा है। जब आप आत्मा को ही स्त्री और पुरुष में बाँट देंगे तो कहाँ से कोई विमर्श पैदा करेंगे?
इसलिए बहुत आवश्यक है कि इनके हर दुष्प्रचार का उत्तर हम अपने हिन्दू धर्म के विमर्श के साथ दें और अपने त्योहारों को अपने रंग में मनाएं।
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