कश्मीर से दो समाचार आए हैं, और वह दोनों ही परस्पर कई प्रकार के विमर्श उत्पन्न करते हैं। पहला समाचार बहुत ही सुन्दर है, गुलाबी-गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत करता है तो दूसरा समाचार, ऐसा है जो दिल में दर्द उत्पन्न करता है, वह शताब्दियों की पीड़ा को बताता है, एवं एक ही ऐसी विवशता को उत्पन्न करता है जो हिन्दुओं के अस्तित्व पर प्रश्न उठाती है।
पहले गुलाबी समाचार की तरफ जाते हैं। यह गुलाबी समाचार बहुत ही गुलाबी है क्योंकि इसमें विकास है, इसमें अर्थव्यवस्था है, इसमें वह सब कुछ है, जो एक कथित उभरती हुई या कहें विकसित अर्थव्यवस्था में होना चाहिए। इस समाचार में वह सब कुछ है, जो किसी भी समृद्ध राज्य के लिए होना चाहिए। जैसे पर्यटन बढ़ रहा है, पर्यटक आ रहे हैं।
आनंद रंगनाथन ने टाइम्स नाउ में एक पैनल डिस्कशन अर्थात चर्चा में कहा कि
“इस्लामिस्ट कश्मीर में रह रहे हिन्दुओं को ही निशाना बना रहे हैं, मगर उन हिन्दुओं को नहीं जो कश्मीर आ रहे हैं। कश्मीर में पिछले दस महीने में सबसे ज्यादा पर्यटक आए हैं, 15 मिलियन पर्यटक आए हैं। व्यापार फल फूल रहा है। वह चाहते हैं, कि हिन्दू भाग जाएं और वापस आए तो पर्यटक बनकर!”
अब इसी ट्वीट में अच्छी और बुरी दोनों सूचनाएं हैं।
धारा 370 हटने के बाद से कश्मीर में पर्यटकों की आवाजाही खूब हुई है। लोग खूब आ रहे हैं। पर्यटन का दौर वापस आ गया है, व्यापार बढ़ रहा है, कई मुस्लिम देशों का भी निवेश हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे वास्तव में जन्नत उतर आई है। जी हाँ, जन्नत, स्वर्ग नहीं! जन्नत ही उतरेगी! क्योंकि जन्नत ही काफिरों से रहित होती है।
काफिर तो जन्नत में स्थानीय रूप से रह नहीं सकता।
यही कारण है कि वहां पर स्थाई रूप से रहने वाले काफिरों अर्थात कश्मीरी पंडितों को उस जन्नत से बाहर निकाले जाने की प्रक्रिया जारी है। वह किसी को भी नहीं देख पाते हैं। दिन ब दिन कश्मीर से हिन्दुओं का मारा जाना जारी है। हर रोज कश्मीर से लोगों के मारे जाने की बातें आ रही हैं।
कश्मीर में हिन्दू प्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें जम्मू में नौकरी दी जाए, परन्तु उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। हाल ही में एक कश्मीरी पंडित सुनील कुमार की हत्या उन्हीं के बाग़ में शोपियां में में कर दी गयी। 46 वर्षीय सुनील कुमार, पेशे से किसान थे और और उनके परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त तीन बेटियाँ हैं। उनके भाई पीताम्बर भी उन्हीं के साथ बाग़ में थे, जिनके भी गोली लगी है और उन्हें विशेष उपचार के लिए श्रीनगर में अस्पताल ले जाया गया।
जनता के मस्तिष्क में कश्मीर फाइल्स का वह दृश्य अभी तक जीवंत होगा, जिसमें हिन्दुओं को चुन चुन कर अलग किया जाता है और फिर गोली मार दी जाती है। ऐसा ही कश्मीर में अब रोज हो रहा है। उन्हें भी नाम पूछकर अलग करके मारा जा रहा है। यह एक प्रचलित तरीका है, कि नाम पूछो और यदि जन्नत में कोई काफिर है, तो उसे मार डालो!
मगर वह काफिर जिसका जन्नत में निवास है! जो जन्नत को जन्नत बनाए रखने के लिए पैसे लाने वाला काफ़िर है, उससे कुछ नहीं कहना है। वह तो उनके लिए फ़रिश्ता है। क्योंकि उनके आते और जाते रहने से केवल पर्यटन ही नहीं बढ़ता है बल्कि साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि भी सुधरती है कि इतने हिन्दू तो जा रहे हैं, उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता! परन्तु उसी बीच में किसी दिन किसी गोलगप्पे वाले को गोली मार दी जाती है तो कभी किसी बाग़ में आकर गोली मार दी जाती है।
इधर आन्दोलन करने वाले कश्मीरी पंडित कह रहे हैं कि सरकार उनकी बात नहीं सुन रही है, सरकार न ही उन्हें सुरक्षा दे रही है और उनकी सैलेरी भी रोक ली है।
मगर फिर भी सरकार उनकी मांग नहीं सुन रही है। सरकार की यह उदासीनता समझ से परे है। यह बात सत्य है कि ऐसी हर घटना के बाद एनकाउंटर हो जाता है, परन्तु उससे उस परिवार की वह कमी तो पूरी नहीं हो जाएगी और न ही जो जीनोसाइड निरंतर चल रहा है, वह रुक जाएगा? वह कैसे रुकेगा?
यहाँ तक कि कश्मीरी हिन्दुओं के मारे जाने का समाचार विदेशी मीडिया में भी प्रमुखता से स्थान उठा पाने में विफल है!
यह अत्यंत दुखद एवं त्रासद स्थिति है जहाँ भारत में कश्मीर में एक ऐसी स्थिति है जहां पर गुलाबी रंग तो लोग देख रहे हैं, विश्व देख रहा है विकास की गाढ़ी होती अवधारणा, मगर गुलाबी रंग कश्मीरी हिन्दुओं के खून के चलते ही और गहरा होता जा रहा है, वह नहीं दिख रहा!
विकास की नींव में कश्मीरी हिन्दुओं का खून कितना जमा होता जा रहा है, वह कौन देखेगा? क्या उसे देखने का समय या साहस है? क्या पश्चिमी मीडिया उसी प्रकार से हिन्दुओं की आंसुओं को दिखाएगा जैसे वह औरों के आंसू दिखाता है?
शायद नहीं! या फिर हम यह मानकर चलते रहे कि विकास का गुलाबी रंग धीरे धीरे कश्मीरी हिन्दुओं के रक्त से और भी गाढ़ा होता रहेगा?