हाल ही में एक शोधपत्र एक पत्रिका में पढ़ा। हालांकि वह पुराना है, परन्तु उसमें जो लिखा गया है, वह जहर न पुराना है और न नया, वह भारत की पहचान के साथ शाश्वत है, वह उस पहचान को नष्ट करने के लिए है, जो इस देश के लोक से जुडी है। वह इस पर बार बार प्रहार करता है। यह शोध है प्रीतम सिंह का लिखा हुआ “Hindu Bias in India’s ‘Secular’ Constitution: probing flaws in the instruments of governance” अर्थात भारत के “धर्मनिरपेक्ष” संविधान में हिन्दू पूर्वाग्रह: शासन के साधनों में त्रुटियों की जांच करना
इस पेपर में लेखक ने भारत के धर्म निरपेक्ष ताने बाने पर प्रश्न उठाने के लिए ‘भारत’ शब्द का सहारा लिया है। वह लिखते हैं कि यह पेपर दर्शाता है कि भारत के संविधान का सेक्युलरिज्म हिन्दुओं की ओर झुका हुआ है।
इस पेपर में इस बात पर आपत्ति व्यक्त की गयी है कि भारत में हिन्दू राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत को अपने नाम करने का प्रयास किया है, जैसे सरदार पटेल, के एम मुंशी आदि।
पाठकों को स्मरण करा दें कि के एम मुंशी हिन्दू लोक को अंगीकार करने वाले एवं हिन्दू लोक के अनुसार ही लिखने वाले लेखक थे, चूंकि उन्होंने सोमनाथ पर लिखा, सोमनाथ की पीड़ा पर लिखा, सोमनाथ के विध्वंस पर लिखा तो वह हिंदूवादी हुए, क्योंकि वह भारत के हिन्दुओं की बात करते थे तो उन पर तो कोई बात होनी ही नहीं चाहिए थी।
जिन कन्हैया लाल मुंशी के आलोचक प्रीतम सिंह हैं, जो यह पेपर लिखते समय ऑक्सफ़ोर्ड ब्रूक्स यूनिवर्सिटी, यूके में बिजनिस स्कूल में थे, उन्हीं कन्हैया लाल मुंशी के आलोचक प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन अर्थात प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद जहीर भी हैं। वह प्रगतिशीलता में से सोमनाथ विध्वंस के इतिहास को ही मिटा देना चाहते हैं।
भारत में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना का सपना लेकर सज्जाद जहीर आए तो उन्होंने के एम मुंशी से बात की, परन्तु कुछ ही देर की ही बात-चीत में सज्जाद ज़हीर किस निर्णय पर पहुंचे स्वयं उन्हीं से पढ़िए–
“हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था। हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे। जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे।”
वही इकबाल जो सोमनाथ विध्वंस का सपना लिए बैठे हैं, वह सेक्युलर हैं, भारत से जुड़े कन्हैया लाल उर्दू के लेखकों और कथित बाहर के लोगों के लिए अछूत हैं, वहीं जिन इकबाल के नाम पर उर्दू दिवस मनाया जाता है, वह क्या कहते हैं सोमनाथ के विषय में:
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
कथित प्रगतिशीलता मात्र हिन्दू धर्म को ही नष्ट करने में है, तभी प्रीतम सिंह लिखते हैं कि भारत का सेक्युलर संविधान हिन्दुओं के प्रति पूर्वाग्रह वाला है। जबकि वह यह भूल जाते हैं कि अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट न होते हुए भी भारत का संविधान बहुसंख्यकों के प्रति बहुत हद तक पक्षपाती भी प्रतीत होता है।
फिर भी प्रीतम सिंह लिखते हैं कि
आर्टिकल 1- इंडिया युनियन का नाम और भूभाग, जो कि भारत है, वह राज्यों का संघ है!
प्रीतम सिंह को आपत्ति है कि जो यह भारत कहा गया है वह दरअसल मुगल काल से पहले की हिन्दू पहचान को ध्यान में रखते हुए कहा गया है। उनका कहना है कि पहले ही आर्टिकल में जब भारत शब्द आया है तो वह “न्यू इंडिया” पर हिन्दू स्वामित्व की बात करता है, वह इंडिया जिसे अपना शासन कई शताब्दियों के विदेशी शासन के बाद मिला है।
वह कहते हैं कि भारत एक ऐसे नए इंडिया के जन्म की बात करता है, जिसकी सरकार और राज्य में हिन्दू एक पहचान का अनुभव करता है। इस पेपर में वह एक और पेपर Secularism in India: a critique of the current discourse’ का भी उल्लेख करते हैं, जिसे किसी अनवर आलम ने लिखा है और वह हिन्दू कोड बिल के हवाले से बताते हैं कि हिन्दू कोड बिल को ऐसा बनाया है, जिसमें से वह भी बाहर नहीं जा सकता है जो हिन्दू धर्म को नहीं मानता है, अर्थात उन्हें दुःख है कि हिन्दू को कानूनी रूप दे दिया गया है।
इसके बाद प्रीतम जी को इस बात पर भी आपत्ति है कि आर्टिकल 48, जो कृषि एवं पशुपालन के संगठन से सम्बन्धित है, तो उसमें गाय एवं बछड़े के वध पर प्रतिबन्ध की बात कही गयी है, इसे लेकर वह कहते हैं कि यह निर्णय अपर कास्ट हिन्दुओं के वर्चस्व को दिखाता है, कि उनका कितना प्रभाव है!
यहाँ तक कि उन्हें हिन्दी से भी समस्या है, संस्कृत शब्दों वाली हिन्दी से समस्या है, वह उस हिन्दी को काटकर फेंक देना चाहते हैं!
ऐसे ही कई कुतर्कों से भरा हुआ यह शोधपत्र है, जो हिन्दुओं का वह अधिकार भी छीन लेना चाहता है जो उन्हें संविधान से मिला है और वह भी “सेक्युलर” संविधान से!
जब मुस्लिमों ने अपने लिए मजहब के आधार पर एक नया मुल्क मांग लिया था और उसके लिए उन्होंने हिन्दुओं की लाशें बिछा दी थीं, उसके बाद भी हिन्दुओं ने यह नहीं कहा कि वह धर्म के आधार पर भारत का निर्माण कर रहे हैं। हिन्दुओं के मंदिर सरकार के कब्जे में हैं, हिन्दू होने की परिभाषा तक उच्चतम न्यायालय निर्धारित करते हैं, हिन्दू जो कि स्वभाव से ही सेक्युलर है, जो स्वभाव से ही सर्व कल्याण की भावना को आत्मसात किए हुए है, जो चींटी तक में परमात्मा को देखता है, हिन्दू जिसने सरकार को ही सब कुछ मानते हुए अपने विवाह, आदि जैसे मामलों में भी सरकारी हस्तक्षेप स्वीकार किया, उसने समय के साथ आई कुरीति को भी समाज के स्थान पर क़ानून के आधार पर हल करने का प्रयास किया, फिर भी वही हिन्दू जिसकी भूमि, जिसका विमर्श और जिसका ज्ञान सभी कुछ बाहरी आक्रमणों से नष्ट हो गया, विकृत हो गया, उसी पर कथित बौद्धिक जगत में यह कहा जाता है कि एकमात्र देश जहाँ वह शरण ले सकता है, जहाँ पर वह आ सकता है, वहीं पर उसका विमर्श नहीं रहेगा?
अर्थात भारत में भी हिन्दू, हिन्दू पहचान के साथ नहीं रहेगा!
और सबसे अधिक दुःख की बात यह है कि ऐसे बेसिरपैर के और विकृत विमर्श वहां प्रकाशित होते हैं, जहां पर संविधान में देश का रिलिजन घोषित है, और भारत जैसा देश, जो हिन्दुओं का एकमात्र देश है, वहां की हिन्दू पहचान से घृणा है!
हिन्दुओं के साथ विमर्श की सबसे बड़ी समस्या है और यह आवश्यक है कि हमारा अपना विमर्श हो, हमारी अवधारणाओं के आधार पर! जबकि अकादमिक जगत में लोग अनुमोदन चाहते हैं उन लिब्रल्स का जो हिन्दू चेतना वाले हिन्दुओं को जीने का भी अधिकार नहीं देना चाहते हैं!