अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एक बार फिर से हम महिलाओं के लिए काफी कुछ करने की बात करते हैं, परन्तु ध्यान से देखने में एक महीन अंतर परिलक्षित होता है कि कुछ महिलाएं खुले आम हिन्दू धर्म को अपशब्द कह रही हैं और कुछ भोली महिलाएं उन्हीं को सत्य मानकर अपने धर्म का विरोध करने लगती हैं। इस लेख में कुछ कारणों पर दृष्टि डालने का प्रयास किया गया है, समझने का प्रयास किया गया है।
“फक हिंदुत्व, हिन्दू राष्ट्र मुर्दाबाद, हिंदुत्व की कब्र खुदेगी, हम राजनीतिक हिंदुत्व के खिलाफ हैं!” यह सब वह नारे हैं जो पिछले कई दिनों से मीडिया का हिस्सा बने हुए हैं और यह नारे लगाने वाले कोई और नहीं बल्कि हिन्दू लडकियां ही हैं। क्या यह लडकियों के साथ हिंदुत्व ने कुछ गलत किया है? क्या हिन्दू लड़की होने के नाते उन्हें किसी भेदभाव का सामना करना पड़ा है? तो उत्तर आएगा नहीं।
स्वरा भास्कर, सोनम कपूर, दीपिका पादुकोण जैसी स्त्रियाँ जिनका जीवन काफी संपन्न है फिर भी यह लोग भारत की मूल अवधारणा का विरोध करती नजर आती हैं। फिल्मों में विशेषकर भारतीयता का विरोध होता है इसके साथ ही भारतीय प्रतीकों का उपहास उड़ाया जाता है।
इन दिनों कई बार मन में यह प्रश्न आता है कि आखिर वह क्या कारण है कि जो हमारी बच्चियां देश तोड़ने वाली एवं धर्म विरोध के नाम पर देश विरोधी गतिविधियों का हिस्सा बन जाती हैं? क्या कारण है कि जब उन्हें देश के लिए खड़ा होना चाहिए होता है वह देश के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती हैं? क्या कारण है कि जब उन्हें समलैंगिकता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भारतीय खुले दृष्टिकोण की सराहना करनी चाहिए, और यह बताना चाहिए कि भारतीय दृष्टिकोण में ही इन सम्बन्धों को बुरी दृष्टि से नहीं देखा जाता है, वह लडकियां यह साबित करने लग जाती हैं कि भारतीय दृष्टिकोण ही सबसे पिछड़ा है! यह हाल ही में हुए कई आन्दोलनों में विशेषकर सीएए के विरोध में हुए आन्दोलनों में यह बात उभर कर आई है। ऐसा आखिर क्यों होता है?
इस क्यों के उत्तर में वैसे तो कई उत्तर मिलेंगे, परन्तु मुझे जो सबसे बड़ा कारण नजर आता है वह है इतिहास से विमुखता! जी हाँ, स्त्री इतिहास को जानबूझकर विकृत करने वाले लोग सबसे बड़ा कारण हैं, भारतीय स्त्रियों के इतिहास को न दिखाना एवं उसकी जानकारी न होना।
हिन्दू स्त्रियों का समृद्ध इतिहास के प्रति ज्ञान का अभाव:
आम तौर पर यह देखा गया है कि मनुस्मृति के एक दो श्लोकों को आधार मानते हुए वृहद स्तर पर धारणा बनाई गयी कि भारतीय स्त्रियाँ बहुत ही पिछड़ी हुआ करती थीं। उन्हें जरा भी अधिकार नहीं थे एवं उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त करने की जाती थी आदि आदि!
साहित्य में कक्षा 9 से कक्षा 12 तक जो कवितायेँ हमारी लड़कियों को पढ़ाई जाती हैं, उनमें स्त्री का एक स्वतंत्र पहलू नहीं दिखाया जाता है। स्त्री का स्वतंत्र साहित्य तो है ही नहीं!
स्त्रियों की लड़ाई दो तरफ़ा रही है। एक तरफ तो उन्हें उस पूरी मानसिकता से लड़ना पड़ा है जो उन्हें दोयम दर्जे का मानती थी और दूसरा षड्यंत्र था वामपंथियों द्वारा उनकी कहानियों को जानबूझ कर दबाए रखना ताकि स्त्रियाँ इसी अबला मानसिकता का शिकार बनी रहें एवं इस प्रकार पूरी भारतीय संस्कृति को बदनाम किया जा सके।
यदि वैदिक युग की स्त्रियों पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वेदों में कई ऋषिकाओं ने कई सूक्तों की रचना की है, जिनमें अदिति से लेकर विश्ववारा एवं रोमशा, सूर्या सावित्री आदि ऋषिकाएं हैं जिनके नाम से आज की लडकियां वंचित हैं, उनके लिए भारतीय स्त्रियों में केवल सीता और द्रौपदी हैं और सीता को वह बेचारा और अबला मानती हैं। जब से राम पर कथित रूप से प्रश्न उठने आरम्भ हुए तब से सीता का चरित्र और निर्बल होता चला गया। लड़कियों की नज़र में सीता एक निर्बल स्त्री थी जिसे उनके पति ने निकाल दिया एवं उसने अंतत: आत्महत्या कर ली!
यह जो लड़कियों में फिल्मों तथा सीरियल आदि से विमर्श उत्पन्न हुआ है उसने इन्हें हमारी पूरी संस्कृति से दूर कर दिया है।
जबकि सीता से बढ़कर आज तक पूरे विश्व के इतिहास में कोई भी मजबूत स्त्री नहीं हुई, जिसने विश्वविजेता पति तथा न्यायप्रिय पिता के घर न जाकर ऋषि के आश्रम में शरण ली एवं अपने पुत्रों को तत्कालीन सर्वोत्तन शिक्षा देने के साथ ही स्वाभिमान की शिक्षा दी। परन्तु तथाकथित स्त्री वादियों के लिए इसलिए सीता स्वतंत्र स्त्री नहीं है क्योंकि उसने अपने पुत्रों को अपने पिता के विरुद्ध खड़ा नहीं होना सिखाया। यदि सीता ने अपने पुत्रों के मन में उनके पिता अर्थात श्री राम के प्रति विषवमन किया होता एवं समाज की व्यवस्था से इतर जाने की शिक्षा दी होती तो सीता आज की स्त्री वादियों की आदर्श होती, पंरतु ऐसा नहीं है।
यदि सावित्री सत्यवान को बीमार छोड़कर चली गयी होती और अपने निजी जीवन को दाम्पत्त्य पर प्राथमिकता दी होती तो सावित्री आज आधुनिक स्त्रियों के लिए आदर्श होती।
समस्या यह नहीं कि सावित्री को उनके विमर्श ने पिछड़ा घोषित किया, समस्या यह है कि एक आधुनिक, अपने आप प्रेम और विवाह और फिर अपने पति की बीमारी को ठीक करने वाली मजबूत स्त्री को आपने वट सावित्री तक ही क्यों समेट दिया? हर स्त्री सावित्री चाहिए, मगर पति का साथ केवल वट सावित्री की पूजा करके नहीं मिलता? जो दाम्पत्त्य का सबसे आदर्श रूप था, उसे आडम्बर क्यों बना दिया गया और आज जिस भूमि पर सावित्री और कैकई जैसी स्वतंत्र निर्णय लेने वाली स्त्रियों ने जन्म लिया, वही धरती प्यार के आदर्श के रूप में सोहनी महिवाल का नाम सुनती है।
सीता और सावित्री का देश कहने वालों से शिकायत नहीं है, शिकायत है सीता और सावित्री को आडम्बर में समेट देने वाले अपने लेखकों से।
मानवीय रूप में सावित्री का प्रेम क्यों नहीं आया, क्यों हिंदी में हमें इस तरह से सावित्री पर कोई कविता नहीं मिलती जो 21 वर्षीय तोरू दत्ता ने अंग्रेजी में लिख दी थी,
She saw some youths on sport intent,
Sons of the hermits, and their peers,
And one among them tall and lithe
Royal in port,—on whom the years
Consenting, shed a grace so blithe,
So frank and noble, that the eye
Was loth to quit that sun-browned face;
She looked and looked,—then gave a sigh,
And slackened suddenly her pace।
What was the meaning—was it love?
Love at first sight, as poets sing,
तोरू दत्ता की यह कविता लन्दन में पढ़ाई जाती है, तोरू दत्ता की अंग्रेजी कविताएँ भारतीयता की भावना से ओतप्रोत हैं, और उस बच्ची ने हर चरित्र को मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया, आडम्बर के साथ नहीं!
आज हमारी नन्ही लडकियां सीता और सावित्री या फिर उर्मिला का रोता हुआ रूप पढ़ रही हैं! कलपती हुई स्त्रियाँ, जबकि यह सभी स्वतंत्र निर्णय लेने वाली स्त्रियाँ थीं। क्या होगा यदि स्त्रियों के सामने मजबूत स्त्रियों का रोता हुआ रूप ही हमेशा प्रस्तुत किया जाएगा! वह भारतीय स्त्रियों के प्रति हमेशा ही ऐसी दृष्टि रखेंगी जिनके पास जरा भी अधिकार नहीं थे।
वामपंथियों का मूल चरित्र है विवाद उत्पन्न करना एवं फिर उस विवाद का हल अपने अनुसार खोजना। पहले उन्होंने विवाद खोजा, वेदों को झूठ साबित किया, और जब वेदों को ही मिथ्या साबित कर दिया तो उसमें लिखने वाली स्त्रियाँ कैसे वास्तविक हो सकती हैं। अब इस पर विवाद कि क्या वह स्त्रियाँ हैं भी या नहीं?
विवादों को लच्छों में पकाकर खाना वामपंथियों की आदत है। मनुस्मृति के कुछ श्लोकों से आपत्ति हो सकती है, एवं कई घोर आपत्तिजनक हो भी सकते हैं, परन्तु यह भी बात सत्य है कि यह संहिताएँ और स्मृतियां एक निश्चित समय के लिए होती थीं, एवं काल तथा परिस्थिति के अनुसार उनमें पर्याप्त परिवर्तन हो सकता था। यह बात वामपंथी बहुत ही शातिरता से छिपा जाते हैं तथा मनुस्मृति को आधार बनाकर देश तोड़ने की चाल चल जाते हैं। यह बात वह नहीं बताते कि मनु स्मृति के अतिरिक्त और भी कई स्मृतियाँ हैं जिन्होनें अपने अपने काल खंड के अनुसार नियम बनाए।
वैदिक काल की मुख्य स्त्रियों पर नज़र डालने से पहले भी यदि हम जीवन और उत्पत्ति की बात करें तो पाएंगे कि एक यह धारणा कि स्त्री इसलिए पुरुष से कमतर है, क्योंकि भगवान से उसे पुरुष की पसली से बनाया है और उसका मुख्य कार्य पति को प्रसन्न करना है, पूरी तरह बाइबिल की अवधारणा है। इसी अवधारणा पर जो स्त्रीवाद है, उसी आधार पर बनी कवितायेँ हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं, जबकि मनुस्मृति के अनुसार जब सृष्टि का सृजन हुआ एवं जब भगवान ने सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए विचार किया तो ब्रह्म जो कि स्वयं ही एक दाने के रूप में था उसने स्वयं अर्धनारीश्वर का रूप लिया। मनुस्मृति में लिखा है
द्विधा कृत्वा-अत्मनो देहम अर्धेन पुरुषो अभवत, अर्धेन नारी तस्यां स विराजम असृजत प्रभु: 1-32 मनुस्मृति
अर्थात अपनी स्वयं की देह को विभाजित करते समय प्रभु आधे पुरुष एवं आधे नारी में परिवर्तित हो गए।
जबकि बाइबिल में लिखा है कि
पुरुष और स्त्री को परमात्मा ने अपनी छवि से बनाया, अर्थात पहले पुरुष को बनाया और फिर उसके लिए स्त्री को बनाया,
हमारे धर्म में मनुष्य को स्वर्ग से बाहर किसी स्त्री के कारण नहीं होना पड़ा, परन्तु जहां से कथित स्त्री विमर्श उत्पन्न होकर पूरी दुनिया में फैला वहां के धार्मिक ग्रन्थ में यह लिखा है सांप के बहकावे में आकर स्त्री ने जो फल चखा और पुरुष को चखने को विवश किया, उस कारण पुरुष को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया गया तथा जो प्रसव है उसकी पीड़ा शापित है।
जब इन विचारों के आधार पर उत्पन्न हुआ वैश्विक स्त्रीवाद भारत आया तो स्त्री के साथ वीरता और श्रद्धा वाला भाव विलोपित हो कर उसे मात्र एक ऐसे जीव के रूप में देखा जाने लगा जिसके प्रति पूरी मानवजाति दोषी है।
जब इस विचार के साथ उत्पन्न कविताएँ थीं तो जाहिर है कि उन्होंने भारतीय स्त्रियों को भी इसी दृष्टि से देखा और भारत की एक समृद्ध स्त्री विचार की परम्परा को समझा नहीं!
वैदिक काल में कम से कम 25-30 ऋषिकाओं का उल्लेख है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है रोमशा! रोमशा पहली ऐसी स्त्री थी जिसने इस विमर्श को आरम्भ किया कि स्त्री के सौन्दर्य से इतर उसकी बुद्धि और गुण के आधार पर आंकलन किया जाना चाहिए।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के सातवें मन्त्र की रचयिता रोमशा लिखती हैं
“उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।
सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥“
रोमशा को स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर मानते हुए सुमन राजे अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का आधा इतिहास में, लिखती हैं कि जिस प्रकार रोमशा ने अपने पति से कहा है कि वह उनके रूप के स्थान पर गुणों पर ध्यान दें, वह स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर है।
शेष हम अगले लेख में पढ़ेंगे कि स्त्रियों का वैदिक स्वर और कितना मुखर था एवं ऋषिकाओं की यात्रा आधुनिक काल में स्त्रियों तक कहाँ तक आती है।
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