कुछ वर्षों से भाषा को लेकर एक नया विमर्श आरम्भ हुआ है। वह यह कि हिन्दी भाषा उर्दू के बिना नहीं चल सकती। और इस कुतर्क को आगे बढ़ाने में हिंदी साहित्यकार और कई कथित राष्ट्रवादी पत्रकार सम्मिलित हैं। यह एक विडंबना है कि हिन्दी को मजबूत बनाने वाले लोग ही हिन्दी को उर्दू की बैसाखी के सहारे चलाना चाहते हैं। पर क्या वाकई उर्दू की आवश्यकता हिंदी को है? हालांकि ऐसा कहा जाता है कि हिंदी और उर्दू के बीच जो विवाद है वह अंग्रेजों के आने के बाद आरम्भ हुआ। परन्तु यदि उर्दू भाषा का इतिहास देखें तो यह बात कुछ अधूरी लग सकती है।
औरंगजेब की मृत्यु के उपरान्त जब उर्दू साहित्य लखनऊ की ओर मुड़ा तो उर्दू साहित्य को और परिष्कृत करने के लिए उसमें अरबी और फारसी के शब्दों को प्रविष्ट करने की एक प्रक्रिया का आरम्भ हुआ। जिसमें नासिख का नाम सबसे महत्वपूर्ण था। उन्होंने नित्य प्रयुक्त सरल हिंदी शब्दों को निकालकर अरबी और फारसी के अप्रयुक्त क्लिष्ट एवं बड़े बड़े शब्दों को प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। नासिख को ऐसा कवि माना जाता है जिसने उर्दू को सजाया और संवारा।
श्री रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी द्वारा रचित उर्दू भाषा और साहित्य में नासिख के विषय में लिखा गया है कि “उर्दू भाषा की साज सँवार तो प्रत्येक कवि ने अपने जमाने में कुछ न कुछ की है, किन्तु नासिख की इस बारे में जो देन है, उससे उर्दू संसार कभी भी उऋण नहीं हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने बुजुर्गों की परम्परा छोड़कर उर्दू में अरबी फारसी शब्दों और शब्द विन्यासों की बहुतायत कर दी और परिष्कार के नाम पर हिंदी के बहुत से मधुर शब्दों को वर्जित कर दिया, परन्तु फ़ारसी का निचोड़ लेकर उन्होंने उर्दू को ऐसा टकसाली बना दिया कि वह ऊंचे से ऊंचे विषयों के प्रतिपादन के योग्य हो गयी और उसमें आगे के लिए बड़ी गुंजाइशें पैदा हो गईं।”
इस प्रकार हिंदी साहित्य में यह कहा जाता है कि हिंदी में संस्कृत निष्ठ हिंदी का चलन द्विवेदी युग के बाद हुआ और हिंदी और उर्दू विवाद भी अंग्रेजों की ही देन है। परन्तु यदि हम आज के सन्दर्भ में उर्दू के कुछ शब्दों को देखें तो पाएंगे कि वह देखने में समान भले ही लगें पर वह हिंदी में प्रयोग नहीं किए जा सकते हैं और वह एक मज़हब विशेष के बन गए हैं क्योंकि वह उनके मजहबी विचारों को बताते हैं और हिंदी के शब्द संस्कृत से उपजे हैं तो वह हिन्दू संस्कृति को परिलक्षित करते हैं।
कुछ शब्दों के उदाहरण से इसे समझते हैं। जैसे एक शब्द है जिसे फिल्मों के माध्यम से बहुत ही अधिक प्रचारित किया जाता है और वह है ‘काफिर’! काफिर को रोमांस से भरा शब्द बना दिया गया है, जबकि काफिर का अर्थ उर्दू में अर्थात कुरआन में एकदम अलग है। खुद को काफिर कहना अर्थात आपका स्वयं को मजहब विशेष से नीचा दिखाना। नीचा अनुभव करना! यह बहुत ही दुखद है कि एक ऐसे शब्द को रूमानी बना दिया गया, जो एक बड़े वर्ग के लिए अत्यंत हिंसक ही नहीं अपितु अपमानजनक शब्द है।
इसी प्रकार विवाह शब्द को जैसे marriage नहीं कह सकते हैं उसी प्रकार हम विवाह को निकाह नहीं कह सकते क्योंकि दोनों की ही अवधारणाओं में भिन्नता है। विवाह जहाँ एक संस्कार है तो वहीं निकाह एक अनुबंध! जिसे मेहर की रकम के आधार पर तय किया जाता है। इसी प्रकार उर्दू में एक शब्द है भीख और भिखारी। जो शब्द आज भीख के लिए प्रयोग होता है, उसे भिक्षा के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा किया तो भिक्षुक का अर्थ भिखारी हो जाएगा जो किसी की दया पर निर्भर है। तमाम साधु संत भिखारी साबित हो जाएंगे।
एक शेर देखते हैं और फिर अंतर समझते हैं (जाँ निसार अख्तर का है):
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुजारा ही न हो!
यहाँ पर भीक शब्द का अर्थ लाचारी से है। जबकि भिक्षा का अर्थ लाचारी नहीं है। भिक्षा ब्राह्मणों तथा सन्न्यासियों को दी जाती थी, जिसे समाज उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए देता था और उससे भी पहले शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल जाने से पहले राजकुमार भी भिक्षुओं के जैसे वस्त्र धारण कर अपने ही घर से भिक्षा मांगते थे। आध्यात्मिक व्यक्ति इसलिए भिक्षा माँगता है जिससे वह अहम् का त्याग करके मुक्ति के पथ की ओर बढ़ सके। जबकि साधारण भिखारी ऐसा नहीं करता। भिक्षा देने का भाव और भीख देने का भाव भी अलग अलग होता है। जैसे चैरिटी (charity) और दान। यदि भिक्षुक को आज के प्रचलित सन्दर्भ में भिखारी कहेंगे तो गौतम बुद्ध भी भिखारी हो जाएंगे। भीख, खैरात से जुड़ी होती है, भिक्षा नहीं।
ऐसे ही एक और शब्द लेते हैं गुरु। जिसका कोई भी उर्दू समतुल्य नहीं है। इसे किसी भी स्थिति में फकीर नहीं लिख सकते। इसे किसी भी स्थिति में मौलवी नहीं लिख सकते।
ऐसे ही उर्दू में एक शब्द है जिहाद जिसका हिंदी अर्थ लोग धर्म युद्ध से कर देते हैं। परन्तु जैसे ही यह शब्द धर्म युद्ध में बदलता है वैसे ही आप अपने रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों को नीचा दिखा देते हैं। अपमानित कर देते हैं। जो जिहाद वाला धर्म युद्ध है वह महाभारत वाले धर्म युद्ध का समतुल्य नहीं है। हो ही नहीं सकता है।
इसी प्रकार जो भी उर्दू के बिना हिंदी के न होने की वकालत करते हैं वह बुत और मूर्ति एवं प्रतिमा का अंतर नहीं जानते, तभी ‘सब बुत गिरवाए जाएंगे’, बहुत ही जोश से गाते हैं। हिन्दुओं में बुत नामक शब्द नहीं है क्योंकि हम प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और वह बुत गिरवाकर अपने मजहब का प्रचार प्रसार करते हैं।
अत: जो भी उर्दू की बैसाखी के आधार पर हिंदी को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, फिर वह कथित राष्ट्रवादी ही क्यों न हों उनका विरोध करें। यहाँ पर मेरा अभिप्राय छोटे छोटे शब्दों से न होकर उन अवधारणात्मक शब्दों से है जिनमें एक सभ्यता के माध्यम से परम्परागत विकास हुआ है। जो एक विशेष तहजीबी लफ्ज़ हैं, वह सभ्यतागत शब्द नहीं हो सकते हैं। इसका ध्यान हमें रखना होगा तथा यह विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि हिन्दी उन भाषाओं के मेल से तो समृद्ध हो सकती है जिनका उद्गम भारतीय भूमि पर हुआ और भारतीय संस्कृति की गोद में हुआ, परन्तु इसी भूमि पर जन्म लेने वाली और बाद में अरबी फारसी के प्रभुत्व वाली जुबां से नहीं!
अपने अवधारणात्मक शब्दों के प्रति हमें सम्मान बढ़ाना होगा और समझना होगा। हिन्दी के अवधारणात्मक शब्दों को उर्दू के अतिक्रमण से बचाना ही होगा।
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