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Friday, April 19, 2024

क्या हिन्दी साहित्य का बड़ा कथित प्रगतिशील वर्ग “नस्लवादी” मानसिकता के प्रति समर्पण कर चुका है?

पाकिस्तान के कई धारावाहिक इन दिनों यूट्यूब आदि पर देखे जा सकते हैं। अधिकतर धारावाहिकों में एक बात बहुत आम है कि शादी करते समय यह लोग “नस्ल” न खराब हो जाए, इसकी बहुत चिंता करते हैं। अब नस्ल कैसे खराब हो सकती है? नस्ल खराब होगी जब बराबर के खानदानों में निकाह नहीं होंगे! “जहेज” नहीं आएगा!

उन धारावाहिकों में यह बार-बार बताया जाता है कि शादी बराबर वालों में ही करनी चाहिए, या फिर आपस में परिवार में ही। यह बहुत ही रोचक बात है क्योंकि हिन्दी साहित्य में बार-बार इस बात पर तो जोर दिया जाता है कि कैसे ब्राह्मणों ने कथित रूप से अत्याचार किये, और कैसे राम तो मिथक थे, परन्तु मिथक राम ने “वास्तविक” शम्बूक को मारा! तमाम विमर्श वह लोग उन ग्रंथों के करते हैं, जो उनके अनुसार झूठ हैं, जो मिथक हैं। परन्तु वह लोग अपने उन भाइयों के साथ खड़े नहीं होते हैं, जो वास्तव में अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में उन्हीं मुस्लिम लेखकों को क्रांतिकारी माना गया जिन्होनें अपनी “नस्लों” की श्रेष्ठता का राग गाया। वामपंथी हिन्दी साहित्य ने उर्दू के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था, जो उर्दू मुख्यतया अशराफों की भाषा थी और है भी! और जिन्हें बहुत महान शायर माना गया है, उन्होंने जमकर उर्दू के माध्यम से नीची जातियों के विषय में विष घोला है, अपमान किया है। इस विषय में पसमांदा अर्थात भारतीय निम्न जाति के मुस्लिमों के लिए आन्दोलन करने वाले डॉ फैयाज़ अहमद फैजी का यह लेख पढ़ा जा सकता है। उन्होंने परत दर परत उर्दू के उसी “नस्लवादी” चरित्र को उधेडा है। उन्होंने कई उदाहरण दिए हैं,

जैसे मीर तकी मीर लिखते हैं

नुक़्त-ए-पर्दाज़ी से इज़लफों को क्या

शेर से बज्जाजो, नद् दाफों को क्या”

नुक़्त-ए-पर्दाज़ी=किसी पॉइंट की आलोचना

इज़लाफ़ो=जिल्फ़ का बहुबचन, इज़लाफ का बहुबचन। अरबी में इसे जमा-उल-जमा (बहुबचन का बहुबचन) कहते हैं।

जिल्फ़= नीच, असभ्य। इस्लामी फिक़्ह (विधि) में अज़लाफ़ कुछ ख़ास जातियों को कहते हैं। भारत सरकार के ओबीसी और एसटी की लिस्ट में ज़्यादातर अज़लाफ जातियां हैं।

बज्जाज= कपड़ा बेचने वाले

नाद् दाफ़ = रूई धुन ने वाले, धुनिया मंसूरी

अब इसे समझिये, वैसे तो डॉ फैयाज़ ने समझाया है, परन्तु इसे और गहराई से समझते हैं। अर्थात मीर तकी मीर यह लिख रहे हैं कि साहित्य में यदि किसी बिंदु पर यदि बात हो रही है तो इससे ज़िल्फ़ अर्थात इजलाफों को क्या? माने जो अजलाफ जातियां हैं, अर्थात नस्लें हैं, उन्हें इस बात से क्या मतलब है कि साहित्य में क्या हो रहा है क्या नहीं, जो शेरो शायरी है उससे बज्जाज या नाददाफ अर्थात रुई धुनने वालों को क्या?

नस्लों की इसी श्रेष्ठता का भाव इस रूप में देखा जा सकता है कि रुई धुनने वाले, कपड़े बुनने वाले जुलाहे कबीर, जिन्होनें वास्तव में ऐसे दोहे लिखे जो उस समय के समाज की कुरीतियों को बताने के लिए पर्याप्त थे, उन कबीर को मुस्लिम जगत ने पूरी तरह से भुला दिया है। क्योंकि यदि वह हिन्दुओं को उनकी जड़गत कुरीतियों के विषय में कहते थे तो वह यह भी कहते थे कि

कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चुनाय।

ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।

तो कबीर यह भी लिखते हैं कि

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।

ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥

इसीलिए कबीर उस नस्लवादी मानसिकता वाले लोगों को पसंद नहीं हैं, जिनका वर्चस्व हिन्दी साहित्य में रहा, जैसे रजिया सज्जाद जहीर जो अपनी नमक कहानी में सैय्यदों की शान में कसीदे पढ़ती हैं:

कि “सैय्यद होकर वादा कैसे तोड़ सकते हैं?”

कबीर को भुला दिया गया या फिर उनका विमर्श मात्र तुलसीदास के राम और कबीर के राम के बीच लड़ाई कराने तक रहा, परन्तु यह षड्यंत्र भी सफल नहीं हो सकता। क्योंकि राम तो सभी के हैं। कबीर इसीलिए “नस्लवादी” हिन्दी वामपंथी साहित्य के लिए त्याज्य हैं क्योंकि वह लिखते हैं कि

ऊँचे कुल में जनमिया, करनी ऊँच न होय ।

सबरं कलस सुरा भरा, साधू निन्दा सोय ।।

क्योंकि हिन्दी का वामपंथी साहित्य तो इसी बात पर विश्वास करता है और चलता है कि एक जुगाडू लेखक का पुत्र या पुत्री जन्म से ही लेखक होगा। वामपंथी हिंदी साहित्य में साहित्यकार बनाने की सप्लाई चेन देखी जा सकती है कि यदि पिता प्रोफ़ेसर और कथित लेखक है तो पुत्री, दामाद, दूसरी पुत्री, दूसरा दामाद, भतीजा, आदि आदि मात्र लेखक ही नहीं होंगे बल्कि सरकारी लाइब्रेरी में किताबें बिकवाने की पहली शर्त भी होंगे और साथ ही ऐसी दूसरी श्रंखला बनती रहे यह सुनिश्चित भी करेंगे!

हम अपने पाठकों को कई ऐसे साहित्यकारों से परिचित भी कराएंगे!

हिन्दी का वामपंथी साहित्य दरअसल हीनभावना से ग्रसित है क्योंकि उसने सब कुछ उधार का ले लिया है। उधार का विमर्श और उधार की “नस्लवादी श्रेष्ठता” तभी ब्राह्मण कहने पर वह पागलों की तरह दौड़ जाते हैं, और सैय्यद कहने पर उन्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनके ऊपर ठंडी फुहार पड़ी हो।

वह उस इकबाल को क्रांतिकारी मानते हैं जिन्होनें अपनी पहचान को पूरी तरह अरबी नस्ल से जोड़ते हुए लिखा था कि

अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मेरी।

नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।

इसके अर्थ को समझना होगा। अजमी अर्थात अरब का न रहने वाला, खुम: शराब रखने का घडा, मय: शराब, परन्तु यहाँ पर मय का अर्थ शराब तो है ही, परन्तु इसकी जो प्रकृति है वह अरबी है। और फिर है हिजाजी: इसका अर्थ है, हिजाज का निवासी, हिजाज सऊदी अरब का प्रांत है, हिजाजी का अर्थ है ईरानी संगीत में एक राग!

पाकिस्तान के अब्बा माने जाने वाले इकबाल जब खुद को अरबी नस्ल का बताकर फख्र महसूस करते हैं तो उसी पाकिस्तान में नस्लों की श्रेष्ठता की बात तो होगी ही, परन्तु भारत और विशेषकर हिन्दी का वामपंथी साहित्य इस “नस्लवाद” के आगे पेट के बल क्यों लेटा हुआ है और क्यों सैय्यदवाद और अरबी नस्लवाद को सिर झुका कर सलाम करता है, यह समझ नहीं आता!

कथित प्रगतिशील वामपंथी साहित्य में इतना हीनताबोध क्यों है? हिन्दी साहित्य से ऐसी आवाज नहीं आती है कि वह अपने पसमांदा भाइयों के साथ हैं! वह सैय्यद की श्रेष्ठता से परे होकर समाज के ऐसे वर्ग के साथ हैं, जो वास्तव में संघर्ष कर रहा है, वह हिजाब से ऊपर शिक्षा को रखना चाहती हैं! क्यों हिन्दी साहित्य पसमांदा या यहाँ की मुस्लिम लड़कियों को हिजाब और बुर्के में धकेलकर उसे ही उनकी पहचान बता देना चाहता है और भारत से अलग करना चाहता है?

क्या वह पूरी तरह से इस “नस्लवाद” के समक्ष नतमस्तक हो चुका है? या अपने जुगाडूपन के चलते प्रतिरोध की हर संभावना को नष्ट कर चुका है?

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