साहित्य का नाम आते ही लोगों के मस्तिष्क में अचानक से ही अजीबोगरीब विचार आने लगते हैं। जैसे ही कोई साहित्यकार का नाम लेता है तो लोगों को लगता है कि यह फिर वही से व्यवस्था के खिलाफ रोना रोएगा, फिर से कोई दुखड़े आएँगे, फिर से वही काली और अंधेरी छवि प्रस्तुत की जाएगी और फिर से निराशा के गर्त में धकेला जाएगा! मुख्यधारा का कथित स्त्री विमर्श अर्थात स्त्री को औरत बनाकर पेश करने का विमर्श होगा, जिसमें वह हमेशा अपने पति, भाई, आदि के विरुद्ध कविता और कहानी लिखेगी!
परन्तु ऐसा कैसे हुआ कि जिस साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, जिस साहित्य में कभी तुलसीदास जी ने लिखकर अमर कर दिया था शब्दों को, जिस साहित्य में मीराबाई ने एक अद्भुत विमर्श दिया, जिस साहित्य ने भक्ति के द्वार खोले, जिस साहित्य ने भारत के सबसे अँधेरे समय में आशा की लौ जलाए रखी, वह पिछले कुछ वर्षों से मात्र हिन्दू धर्म को कोसने का ही एक जैसे माध्यम बन गया था।
जो अल्पसंख्यक विमर्श और तुष्टिकरण राजनीति में चल रहा था, वही विमर्श साहित्य में आकार ही नहीं ले रहा था, बल्कि काल्पनिक रूप से उसने हिन्दू धर्म को ऐसा दानव बना कर प्रस्तुत किया था, कि जैसे सारे पापों की जड़ यही है और जैसे कांग्रेस का तुष्टिकरण था कि वह तीस्ता आदि को पलक पांवड़ पर बैठाती थी, राजनीति से दिशा पाता साहित्य भी उसी को महान मानता था, जो प्रभु श्री राम, महादेव को जितना अपशब्द कह सकते थे, जितना गाली दे सकते थे।
एक समय में प्रभु श्री राम की भक्ति में रचा बसा साहित्य अब उनके विरोध में खड़े लोगों का साहित्य हो गया गया, एवं लोक से कट गया था। परन्तु चूंकि बौद्धिक जगत पर उसी विचारधारा का कब्जा था, सब कुछ उन्हीं के हाथ में था, मंच, टीवी, अकादमिक विमर्श, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, सब कुछ तो, हर जगह वही तो थे, जो आजादी को इतना नीचे ले आए थे कि स्वयं भी देश के टुकड़े करने वालों के पक्ष में जाकर खड़े ही नहीं हुए थे, बल्कि नारे भी लगा रहे थे।
नरेंद्र कोहली जैसे लेखक, जो राष्ट्रवाद और धर्म की राह पर चल रहे थे, जिनके लिए साहित्य का अर्थ अपने धर्म को कोसना नहीं था, उन्हें इस वाम और इस्लामी साहित्य लॉबी ने साहित्यकार माना ही नहीं, और मजे की बात है कि “बस नाम रहेगा अल्लाह का” इनका क्रांतिकारी वाक्य है और यह कि “हम देखेंगे!”
कई बार ऐसा लगता था कि जैसे साहित्य में हिन्दू-विरोधी विमर्श ही सर्वोपरि रहेगा और उस रात की सुबह कभी नहीं आएगी। परन्तु कहते हैं कि जब अँधेरा सबसे अधिक होता है तो सुबह उतनी ही निकट होती है। ऐसा ही हो रहा है। अब लोग उठ रहे हैं, हिन्दू लोक के साहित्य पर बात हो रही है, साहित्य का अर्थ होता है जनता की बात करना, जनता की समस्याओं की बात करना, अपने समाज का दर्द बताना, परन्तु एजेंडा नहीं!
अब मंच पर उन्हें बुलाया जा रहा है जो वह लिख रहे हैं, जो जनता के स्वर हैं, जो हिन्दुओं और भारत के लोक के साथ हुए अन्याय को ज्यों का त्यों लिख रहे हैं। जिनके लिए लिखना एक जूनून है, परन्तु एजेंडे वाला नहीं, वास्तविक लेखन! जिनकी कहानियों का अंत किसी वामपंथी या नवबौद्ध आलोचक की निजी राय पर बदलता नहीं है, वह लोग जो कह रहे हैं, वह लोग जो अंतर्राष्ट्रीय गैंग से जूझ रहे हैं, और लिख रहे हैं अनछुए विषयों पर!
ऐसा ही एक साहसिक आयोजन उत्तराखंड में हल्द्वानी में हुआ, जहां पर हल्द्वानी लिटरेचर फेस्टिवल अर्थात हल्द्वानी साहित्योत्सव का आयोजन कराया गया। इस आयोजन में पांचजन्य भी मीडिया पार्टनर था।
2 और 3 जुलाई 2022, दो दिनों में कुल मिलाकर 12 से अधिक सत्रों का आयोजन इस उत्सव में किया गया था। एवं उन नामों को प्रमुखता दी, या कहें देने का साहस जुटाया जिन्हें कम से कम नेटवर्की और “स्व-घोषित मुख्यधारा” के मंचों पर नहीं बुलाया जाता है। इसमें शांतनु गुप्ता, पीए सबरीश को बुलाया गया था, और इनसे बात की थी पांचजन्य के सम्पादक हितेश शंकर ने। इस आयोजन में बुलाया गया था अंशुल सक्सेना को, और इसमें बुलाया गया था डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ पत्रकार अशोक श्रीवास्तव को, जिन्होनें अपने उस साक्षात्कार की कहानी फिर से सुनाई जो उन्होंने वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तब लिया था, जब वह प्रधानमंत्री नहीं थे और उस साक्षात्कार को पहले तो चलाया नहीं गया था, और फिर बाद में काट छांट कर चलाया गया था एवं इस साक्षात्कार पर बहुत विवाद हुए थे।
उन्होंने इसके साथ ही उस समय की कई और बातों को साझा किया एवं साथ ही कहा कि अब दूरदर्शन में आप खुलकर काम कर सकते हैं। हितेश शंकर ने राष्ट्रवाद और पत्रकारिता पर बात की, और कहा कि पत्रिका के चूंकि लाखों फॉलोअर्स हैं तो पत्रिका के लिए तथ्यों की सत्यता सबसे महत्वपूर्ण होती है
शांतनु गुप्ता, पी ए सबरीश और हितेश शंकर, अशोक श्रीवास्तव, अंशुल सक्सेना ने ही पहले से बने नैरेटिव की सारी कलई खोली और अशोक श्रीवास्तव ने तो यह तक बताया कि कैसे यूपीए सरकार के दौरान “सोनिया गांधी” के जन्मदिन पर दूरदर्शन में मिठाई बंटा करती थी।
इससे पहले महिलाओं का रुचिकर साहित्य सत्र हुआ था, इसमें लेखिका प्रीतपाल कौर, सोनाली मिश्रा के साथ वरिष्ठ पत्रकार सर्जना शर्मा ने बात की थी। इस सत्र में भी नैरेटिव तोड़ने का प्रयास किया गया। जो पहले से एक कथित फेमिनिज्म का या कहें नारी विमर्श का बना बनाया ढांचा था, उसकी जड़ों पर प्रहार किया गया तथा यह बताया था कि जिस देश में पहले से ही अर्धनारीश्वर की अवधारणा है, वहां पर पुरुषों के विरोध में महिलाओं को खड़ा करने वाला फेमिनिज्म कैसे सफल हो सकता है, इसे एक दिन मरना ही होगा!
परन्तु सबसे महत्वपूर्ण सत्र रहा था लोक गायिका मालिनी अवस्थी का, क्योंकि वह स्वयं स्थापित हैं, एवं ऐसी महिला के रूप में वह लोक के समक्ष आती हैं, जो वास्तव में लोक के प्राणों में बसी है, वह उसी आत्मा को लेकर चलती हैं, जो भारत के लोक में बसी स्त्री की आत्मा है, वह स्वयं ही भारत का लोक हो गई हैं क्योंकि वह लोक कला को जीती हैं एवं आयातित विचारधारा का विरोध करते हुए उन्होंने सांस्कृतिक स्वरुप को अखंड रखने पर बल दिया था।
इसी के साथ कई और सत्र थे, जिनमें महत्वपूर्ण बातें हुईं!
हल्द्वानी साहित्य उत्सव कई अर्थों में सफल रहा, क्योंकि यह एक तो साहित्य की नकारात्मक छवि तोड़ने में सफल रहा है एवं इसने विमर्श को वह मंच दिया, साहित्य के नाम पर वह कहने का अवसर दिया, जिस पर बात करने में लोग अभी कहीं न कहीं कतरा जाते हैं, परन्तु हल्द्वानी ने “भारत के लोक के नैरेटिव को आस का स्वर दे दिया है और अब वह लिखेगा अपना राग स्वयः ही!”
इसके आयोजन मंडल में दिनेश मानसेरा, रंजना साही, अवनीश राजपाल, समित टिक्कू, शोभित अग्रवाल समेत कई लोग सम्मिलित थे!