कनाडा के वोक प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो का कहना है कि वह कुछ लोगों के हाथों डर नहीं सकते हैं। उन्होंने सोमवार को एक प्रेस कांफ्रेंस की, और कहा कि वह आन्दोलन करने वाले ट्रक चालकों से किसी भी स्थिति में नहीं मिलेंगे। भारत के किसान आन्दोलन के मामले पर बिना मांगे राय देने वाले जस्टिन ट्रुडो के अपने ही देश में जब किसी मांग को लेकर कुछ लोग आन्दोलन कर रहे हैं, तो वह उन्हें घृणा फैलाने वाला कह रहे हैं।
उनका कहना है कि उनके देश में जो आन्दोलन कर रहे हैं, वह सेमेटिक विरोधी, इस्लामोफोबिक, अश्वेत विरोधी नस्लवादी, होमोफोबिक, और ट्रांसफोबिक हैं। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा कि पिछले कुछ दिनों से ओटावा में यह लोग बिखरे पड़े हैं। पर हमें एक साथ मिलकर कनाडा को सबके लिए बनाना है।
इस आन्दोलन की कनाडा की संसद में निंदा की गयी।
कनाडा में आन्दोलन का वही रूप है, जो भारत में किसान आन्दोलन और शाहीन बाग आन्दोलन के दौरान था। आन्दोलन को शांतिपूर्ण प्रदर्शन कहा जा रहा था और जो भी इससे होने वाली असुविधा का विरोध करता था, उसे ही पश्चिम के मीडिया द्वारा अल्पसंख्यक विरोधी और किसान विरोधी आदि कहकर बदनाम किया जाता था। पश्चिम का लिबरल मीडिया, भारत को बदनाम करने की एक मशीनरी बनकर रह गया था।
शाहीन बाग़ के आन्दोलन के दौरान लाखों लोगों को होने वाली परेशानी को नहीं देखा गया, किसी ने भी गौर नहीं किया। “शांतिपूर्ण” प्रदर्शन के दौरान सरकार को घेरने के बहाने हिन्दुओं के विरुद्ध विष उगला गया। यह पश्चिम मीडिया था, जिसका दृष्टिकोण इन दोनों ही आन्दोलनों के दौरान भारत की सरकार के प्रति दुराग्रह से भरा हुआ था। बार बार यह प्रमाणित किया जाने लगा कि यह आन्दोलन भारत की हिंदूवादी सरकार के विरोध में हो रहे हैं।
हिन्दुओं को भी कठघरे में खड़ा किया जाने लगा। उन दिनों भारत विरोधी जो भी भाषण दिए गए उन्हें अनदेखा किया गया और भड़काऊ भाषणों पर प्रतिक्रिया को अल्पसंख्यक विरोधी या फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बताया गया।
परन्तु उसी पश्चिम का रुख जस्टिन ट्रूडो के प्रति उतना आलोचनात्मक नहीं है और साथ ही भारत का एक विशेष लिबरल वर्ग है, वह भी कनाडा में हो रहे इस “प्रजातांत्रिक आन्दोलन” का समर्थन नहीं कर रहा है। क्या इसलिए क्योंकि वह उनके प्रिय जस्टिन ट्रूडो के विरुद्ध हो रहा है? क्योंकि उन्होंने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ जो “ब्लैक लाइव्स मैटर” के आन्दोलन के समय यहाँ से समर्थन प्रदान किया था।
जैसे ही ट्रक चालकों का आन्दोलन आरम्भ हुआ था, वैसे ही जस्टिन ट्रूडो और परिवार अज्ञात स्थान पर चले गए। उन्होंने कहा कि वह कोविड से पीड़ित हैं। और जब वह प्रेस कांफ्रेंस के लिए बाहर आए तो उन्होंने कहा कि वह इस समूह से बात नहीं करेंगे। इस अहंकारी रवैये एवं भारत सरकार द्वारा किसान आन्दोलन के दौरान की गयी वार्ता के मध्य दृष्टिकोण की तुलना पाठक करेंगे तो पाएंगे कि मीडिया का दृष्टिकोण भारत की सरकार के प्रति किस सीमा तक दुराग्रह पूर्ण रहा है।
जब भारत में यह कहा जाता था कि किसानों का एक छोटा सा वर्ग ही है जो इन कानूनों से संतुष्ट नहीं हैं तो भारत की मीडिया सहित पश्चिम की मीडिया भी भारत सरकार को ही कठघरे में खड़ा करती थी, यहाँ तक कि सरकार के साथ वार्ता करने गए किसानों का प्रतिनिधिमंडल जब अपना खाना अपने साथ लेकर जाता था तो उसे भी एक तारीफ़ के साथ दिखाया जाता था।
अर्थात भारत में एक्टिविज्म के चलते भारत सरकार को नीचा दिखाने के हर प्रयास को महिमामंडित किया जा रहा था, यहाँ तक कि 26 जनवरी 2020 को लाल किले पर जो हुआ, वह पूरी दुनिया ने देखा, परन्तु पश्चिम मीडिया का एक बड़ा वर्ग केवल नरेंद्र मोदी का विरोध करने के लिए, जैसे हर अराजकता को क्रान्ति का प्रमाणपत्र देता रहा।

परन्तु पश्चिम का मीडिया यह भूल गया था कि ऐसा कुछ वहां भी हो सकता है। भारत में जब दो ऐसे बड़े आन्दोलन हुए, उस समय भी भारत के नेतृत्व ने छिपने का प्रयास नहीं किया। कल्पना करें कि जस्टिन ट्रूडो जैसा वक्तव्य यदि भारत सरकार ने दिया होता तो क्या होता? कल्पना करें कि यदि जस्टिन ट्रूडो के जैसे नरेंद्र मोदी गायब होकर अज्ञात स्थान पर चले जाते?
जैसे भारत में लंगर लगे थे, वहाँ पर भी पिज़्ज़ा बंटने लगे हैं, और सफाई आदि हो रही है, खेला जा रहा है
किसान आन्दोलन में हमने देखा थी कि शांतिपूर्ण आन्दोलन में लंगर चल रहे थे, उसी पैटर्न पर वहां पर भी गर्म गर्म पिज़्ज़ा मिल रहे हैं:
वही नस्लवाद का भी आरोप पर भी कई यूजर्स ने उत्तर दिया कि यह कॉन्वॉय कहीं से भी श्वेत श्रेष्ठता के विषय में नहीं है, यह स्वतंत्रता के विषय में है। “वह एक समान अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जो देशी और अश्वेत समुदायों पर भी लागू होता है।
twitter पर लोग वहां के दृश्य साझा कर रहे हैं कि कैसे ट्रक चालक सड़क साफ़ कर रहे हैं, सड़कों पर हॉकी खेल रहे हैं
कैसे विद्यार्थी फ्री में भोजन देने के लिए आ गए हैं
कुछ लोगों ने इस आन्दोलन पर हिंसक होने का आरोप लगाया तो कई यूजर्स ने इसका भी खंडन करते हुए पुलिस के हवाले से ही कहा कि यह प्रदर्शन विशेष है क्योंकि यह बड़ा तो बहुत है, पर किसी को कोई चोट नहीं है, कोई मौत नहीं, कोई दंगे नहीं
देशभक्त उन लोगों के लिए खाना पका रहे हैं, जिनके पास ओटावा में घर नहीं है
वहीं इसी बीच भारत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सन्देश देने वाले ट्रूडो ने इन्टरनेट को निगमित करने के लिए एक बिल प्रस्तुत कर दिया है।
वहीं आन्दोलनकारियों द्वारा यह भी स्पष्ट किया जा रहा है कि यह आन्दोलन वैक्सीनेशन के विरोध में नहीं है, बल्कि यह सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के विरोध में है
समस्या यही है कि वामपंथ को अपने ही हथियार का स्वाद चखना पड़ रहा है
कनाडा के कुछ लोगों का कहना है कि अब लेफ्ट शांतिपूर्ण आन्दोलनकारियों को कुचलने के लिए सेना भेजना चाहता है:
पैटर्न दोनों ही आन्दोलन का ही एक है, परन्तु वामपंथियों का रुख एकदम अलग है, पश्चिम मीडिया का रुख एकदम अलग है। जहाँ किसान आन्दोलन में वह किसानों के साथ हो रहे अन्याय के विरोध में खड़े थे तो वहीं ट्रक आन्दोलन में वह उस मांग का विरोध कर रहे हैं, जो ट्रक चालक उठा रहे हैं। उनका कहना है कि वह वैक्सीनेशन के खिलाफ नहीं हैं, अपितु जो जबरन उनकी आजादी छीनी जा रही है उसके खिलाफ हैं, तो ऐसे में उन्हें नस्लवादी कहना या कट्टर कहना कहाँ तक जायज है?
क्या स्वयं का विरोध सहा नहीं जाएगा और दूसरों को आप उपदेश देंगे? भारत में क्रिकेटर वेंकटेश प्रसाद ने ट्वीट किया कि, कर्म के कैफे में आपका स्वागत है जस्टिन ट्रूडो
भारत में पहले लोगों ने जस्टिन ट्रूडो का समर्थन करते हुए पूछा था कि आन्दोलनकारियों को किसी ने कोसा तो नहीं
हालांकि जब भारत में लोगों ने जस्टिन ट्रूडो पर प्रश्न उठाने आरम्भ किए तो एक वर्ग ऐसा भी था, जिसने जस्टिन ट्रूडो का बचाव करते हुए यह प्रश्न किया था कि उन्होंने आन्दोलनकारियों को देश विरोधी आदि आदि तो नहीं कहा। एक बड़ा वर्ग जो नरेंद्र मोदी को अभिव्यक्ति की आजादी का शत्रु मानता है, वह जस्टिन ट्रूडो के समर्थन में आ गया था कि आन्दोलनकारियों को बदनाम नहीं किया जा रहा है, परन्तु अब तो जस्टिन स्वयं ही ट्रक चालकों को इस्लामोफोबिक, ट्रांसफोबिक आदि आदि कह चुके हैं, परन्तु उनके द्वारा शांतिपूर्ण आन्दोलनकारियों को यह सब कहे जाने के बाद भी वामपंथी शांत है