प्राय: भक्ति की बात होते ही स्त्री रचनाकारों को मीराबाई तक ही सीमित कर दिया जाता है। मीराबाई का इतिहास में जो स्थान है, वह किसी का नहीं हो सकता। वह सहज हैं, वह प्रेम हैं। परन्तु क्या कभी यह प्रश्न आता है कि क्या भक्ति में मीराबाई के अतिरिक्त कोई भी स्त्री रचनाकार नहीं थी? क्या भक्ति की धारा मात्र एक ही स्त्री को प्रभावित कर सकी? यह एक जिज्ञासा है, यह एक प्रश्न है! क्या यह प्रश्न कभी आपके मस्तिष्क में आया है? या स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाले पुरुषों ने ही इस दिशा में शोध करने का प्रयास किया है? क्या वामपंथियों द्वारा विमर्श की दिशा या इतिहास विकृत करने का दोषारोपण करने वाले पुरुषों ने कुछ लिखा है? मुझे नहीं लगता!
तो, आइये, आज हम चलते हैं एक नई यात्रा पर, भक्ति की स्त्री रचनाकारों की यात्रा उनकी रचनाओं के साथ। इस यात्रा में आप उन तमाम स्त्रियों से परिचित होंगे जिन्होंने राम एवं कृष्ण की भक्ति में न जाने क्या क्या रचा और वह बिना नाम या बिना आलोचकों की परवाह के लिखती रहीं। सहज नहीं रहा होगा उनके लिए, परन्तु यह भूमि रचनात्मकता की भूमि है, यह भूमि कहानी और कविताओं की भूमि है, यह भूमि स्त्री चेतना की भूमि है।
आज एक रामभक्ति में लीन स्त्री की रचनाओं से हम भक्ति की स्त्रियों की यात्रा आरम्भ करते हैं। कहा जाता है कि राम के साथ स्त्रियाँ सहज नहीं होती। यह सत्य भी है और असत्य भी। राम का लोक कल्याण का भाव गंभीर है, वहां पर प्रेम है, वह भी आदर्श है। जबकि वास्तविक जीवन में स्त्री आदर्श के साथ साथ व्यवहार भी चाहती है। यही कारण है कि कृष्ण के प्रति स्त्री रचनाकार अधिक उदार हैं। तथापि यह भी सत्य है कि राम को स्त्रियों ने बिसराया नहीं है, वह इस सीमा में बंधी नहीं हैं। प्रतापकुँवरि इस सीमा से परे जाती हुई नज़र आती हैं। उन्होंने राम पर बहुत लिखा है, कुछ पंक्तियाँ हैं:
अवध पुर घुमड़ी घटा रही छाय,
चलत सुमंद पवन पूर्वी, नभ घनघोर मचाय,
दादुर, मोर, पपीहा, बोलत, दामिनी दमकि दुराय,
भूमि निकुंज, सघन तरुवर में लता रही लिपटाय,
सरजू उमगत लेत हिलोरें, निरखत सिय रघुराय,
कहत प्रतापकुँवरी हरि ऊपर बार बार बलि जाय!
इसके साथ ही उन्हें जगत के मिथ्या होने का भान था एवं उन्होंने होली के साथ इसे कितनी ख़ूबसूरती से लिखा है:
होरिया रंग खेलन आओ,
इला, पिंगला सुखमणि नारी ता संग खेल खिलाओ,
सुरत पिचकारी चलाओ,
कांचो रंग जगत को छांडो साँचो रंग लगाओ,
बारह मूल कबो मन जाओ, काया नगर बसायो!
इसके अतिरिक्त इन्होनें राम पर बहुत पुस्तकों की रचना की है। राम की कविता रचते हुए उन्होंने लिखा है
अब सुनिए, चित्त धार सुजाना, रघुबर किरपा कहूं बखाना,
राम रूप हिरदै घर सुन्दर, वरनू ग्रन्थ हरण दुःख दुम्वर!
और कितना सुन्दर लिखा है,
श्री रामचन्द्र करुणा निकट, जानकी नाथ लछिमन समेत,
चरणहारविंद प्रति लिखत आप, कायापुर सों कुंवारी प्रताप,
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रम रहे सदा आनंद रूप, भगतन प्रतिपालक राम भूप,
नित कृपादृष्टि राखियो राम, हमरे नहीं तुम बिन राम और श्याम
प्रताप कुँवरि राम को उनके धनुर्धर रूप में ही प्रेम करती हैं, वह लिखती हैं
धर ध्यान रटो रघुवीर सदा धनुधारी को ध्यान हिये धर रे,
होली का एक और वर्णन पढ़िए,
होरी खेलन को सत भारी,
नरतन पाय अरे भज हरि को मास एक दिन चारी,
अरे अब चेत अनारी!
ज्ञान गुलाल अबीर प्रेम करि, प्रीत तणी पिचकारी,
लास उसास राम रंग भर भर सुरत सरीरी नारी,
खेल इन संग रचा री!
ध्रुव प्रहलाद विभीषण खेले मेरा करमा नारी,
कहै प्रतापकुँवरि इमि खेले सो नहं आवै हारी,
साख सुन लीजै अनारी!
जब आप इनमें ध्रुव, प्रहलाद, विभीषण और मीरा का नाम पढ़ते हैं, तो एक और भ्रम एवं मिथक टूटता है कि स्त्रियों को पढ़ने नहीं दिया जाता था क्योंकि यदि स्त्री को पढ़ने नहीं दिया जाता होता तो कम से कम मीरा का नाम संवत 1900 से कुछ वर्ष पूर्व जन्मी प्रताप कुँवरि बाई को नहीं ज्ञात होता। सत्य तो यही है कि चेतना की इस भूमि पर स्त्री चेतना सदा से जागृत रही है, एवं रहेगी। प्रश्न अपने इतिहास और धरोहरों को जानने का है। प्रताप को तो मीराबाई का नाम स्मरण था और उन्होंने लिखा भी, परन्तु प्रताप पूछती हैं अपनी आने वाली रचनाकारों से कि क्या प्रताप का नाम आज की रचनाओं में है?