आज राकेश टिकैत अपने घर, अपने गाँव वापस चले गए होंगे और किसान आन्दोलन कथित रूप से स्थगित हो गया है। परन्तु इस आन्दोलन से क्या मिला है, इस विषय में भी विचार किया जाना चाहिए और इस आन्दोलन में जो काण्ड हुए, उनका क्या होगा? क्या उन सभी को न्याय मिल पाएगा जो इस कथित आन्दोलन के शिकार हुए?
आज गाजे बाजे के साथ टिकैत वापस जा रहे हैं। अब क्या होगा? राकेश टिकैत का नाम इसलिए बार बार लिया जा रहा है क्योंकि वह सबसे बाद में आए थे और जो आन्दोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश का था ही नहीं, उसे उन्होंने जबरन आन्दोलन बना दिया। धीरे धीरे लोग अलग हो रहे थे, पर कैमरे पर आने का जो लोभ था, या कहें उत्तर प्रदेश के चुनाव थे, उसके कारण टिकैत विरोधी दलों के लिए महत्वपूर्ण हो गए थे।
परन्तु यह अत्यंत दुखद है कि इस कथित जीत में कई मुद्दे हैं, जिन पर कोई बात नहीं कर रहा है। क्या उन पर कभी कोई कदम उठाया जा सकेगा या फिर जो कथित जीत का जश्न है, उसमें सब सब दब जाएगा!
सबसे पहले तो उस पत्र पर बात करते हैं, जो सरकार ने भेजा था और क्या प्रस्ताव था:
सरकार का प्रस्ताव:
सरकार ने कृषि कानून वापस लेने के बाद जो प्रस्ताव भेजा है उसे लेकर जहाँ किसान संयुक्त मोर्चा ने अपना आन्दोलन स्थगित किया तो वहीं कुछ परजीवी लेखक, जो इस आन्दोलन को आरम्भ से ही भड़का रहे थे, और जिनका उद्देश्य किसी भी प्रकार से मात्र इस सरकार का ही विरोध करना था। उनका कहना था कि ऐसे ब्यूरोक्रेटिक भाषा पर आन्दोलन स्थगित नहीं किया जाना चाहिए।
शायद लोगों को पता नहीं होगा कि इस संयुक्त किसान मोर्चा के नाम पर कई साहित्यिक समूह भी बने थे और भड़काऊ बातें किया करते थे एवं यहाँ तक कि सरकार द्वारा किसान कानूनों को वापस लेना गांधी जी की विरासत की पराजय और भगत सिंह जी की जीत है। एक प्रकार से यह वामपंथी विचारधारा से भगत सिंह को जोड़कर तथा इस प्रकार इस पूरे आन्दोलन को राजनीतिक रंग देकर एक नया ही आयाम दिए जाने के प्रयास में हैं।
सरकार ने जो प्रस्ताव दिए थे उनमें क्या मुख्य बातें हैं, आइये पहले उन पर दृष्टि डालते हैं:
- सरकार ने एमएसपी पर एक समिति के गठन की घोषणा की है और जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधि एवं कृषि वैज्ञानिक सम्मिलित होंगे। और यह भी स्पष्ट किया जाता है कि किसान प्रतिनिधि में एसकेएम के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे।
- आन्दोलन संबंधी सभी मुक़दमे वापस लिए जाएंगे। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा सरकार ने इसके लिए पूर्ण सहमति दी है, कि तत्काल प्रभाव से आन्दोलन सम्बंधित सभी केसों को वापस लिया जाएगा।
- इसी के साथ बिजली बिल में जो प्रावधान किसानो पर असर डालने वाले हैं, उनके विषय में सभी हितधारकों/संयुक्त किसान मोर्चा से चर्चा होगी और उसके बाद ही यह बिल संसद में प्रस्तुत किया जाएगा।
- पराली जलाने को अपराध मानने से इंकार कर दिया है।
हालांकि किसान नेता इसे अपनी जीत बता रहे हैं, परन्तु किसान अधिनियम वापस लेने के अतिरिक्त एज सच कौन सी मांग माँगी गई है, जिस पर राकेश टिकैत सबसे अधिक बात कर रहे थे, और वह सरकार द्वारा पूरी की गयी हो? राकेश टिकैत का कहना था कि वह एमएसपी की गारंटी के बिना आन्दोलन समाप्त नहीं करेंगे! पर ऐसा नहीं हुआ! एमएसपी पर घोषणा नहीं हुई है।
संयुक्त किसान मोर्चा चाहता था कि उसके अतिरिक्त कोई और समिति में न रहे, क्योंकि उनके अनुसार वह किसान संगठन भी आमंत्रित किए गए हैं, जो इन कानूनों के पक्ष में थे। परन्तु सरकार ने यह बात नहीं मानी।
इनके अतिरिक्त आन्दोलन से सम्बन्धित ही मामले वापस लेने की बात हुई है और कुछ नहीं!
फिर पश्चिमी उत्तरप्रदेश से टिकैत के इस आन्दोलन में जाने का उद्देश्य क्या था? क्या अपनी राजनीति चमकाना या फिर भारतीय जनता पार्टी को चुनावों में कमजोर करना? क्योंकि सभी जानते हैं कि अब उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं, एवं सभी दल भारतीय जनता पार्टी को पराजित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं, तो ऐसे में मात्र भारतीय जनता पार्टी का विरोध करना कहीं न कहीं यही संकेत देता है कि उनकी कोई न कोई व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी, जिसने उन्हें इस बात के लिए विवश किया कि वह आन्दोलन को आगे खींचते रहें।
क्या इस आन्दोलन के कारण जो निर्दोष प्रभावित हुए, उन्हें न्याय प्राप्त हो सकेगा?
इस आन्दोलन के कारण लाखों लोगों को नुकसान हुआ। आर्थिक क्षति तो हुई ही, साथ ही यह भी समाचार आए कि कुंडली बॉर्डर पर कई लडकियां भी गायब हो गयी थीं। दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बॉर्डर क्षेत्र से लगभग डेढ़ दर्जन लडकियां गायब थीं। इनमें से अधिकतर का पता नहीं लग सका था। कई मामलों में नामजद रिपोर्ट भी लिखवाई गयी थी, परन्तु पुलिस केवल उन्हीं आरोपितों पर कार्यवाही कर सकी थी, जिन्हें प्रदर्शनकारियों ने स्वयं लाकर दिया था।
एक लड़की का बलात्कार और हत्या हुई थी और लखबीर सिंह का कत्ल
इसी किसान आन्दोलन में पश्चिम बंगाल से आई एक लड़की का बलात्कार और हत्या हुई थी।पश्चिम बंगाल से एक युवती किसान आन्दोलन में भाग लेने आई थी, और जो किसान सोशल आर्मी चलाने वालों का शिकार हो गयी थी। यह युवती 11 अप्रेल को आरोपियों के साथ पश्चिम बंगाल से नई दिल्ली आई थी। 30 अप्रेल को उसकी मृत्यु कोरोना से हुई। परन्तु उसके पिता ने बाद में आरोप लगाया कि उनकी बेटी के साथ बलात्कार हुआ था और इसकी जानकारी योगेन्द्र यादव को भी थी।
इस में यह भी चौंकाने वाली बात थी कि महिलाएं भी इसमें शामिल थीं।
एक युवक को जलाया गया तो लखबीर सिंह को काट कर मारडाला गया
पाठकों को याद होगा कि कैसे एक व्यक्ति मुकेश की हत्या जलाकर कर दी गयी थी। बहादुरगढ़ के बाईपास पर गाँव कसार के पास आन्दोलनकारियों के पड़ाव में गए गाँव कसार के एक व्यक्ति के शरीर पर तेल डालकर आग लगा दी गयी थी। मुकेश बहुत बुरी तरह जल गया था और उसकी मृत्यु ह गयी थी।
इसमें यह भी बात कुछ छिटपुट निकलकर आई कि मुकेश को ब्राह्मण होने के कारण जलाया गया।
इसके बाद लखबीर सिंह को कैसे काटकर मारा गया, कैसे तडपा तड़पा कर मारा गया, हम सभी ने देखा ही था।
उसे पहले टिकरी बॉर्डर पर पंजाब के किसान की उसके साथियों ने ही पीट पीट कर हत्या कर दी थी। शराब के पैसों को लेकर उनके बीच झगड़ा हुआ था।
आर्थिक हानि:
जब किसान आन्दोलन आरम्भ हुआ था तभी एसोचैम ने कहा था कि किसानों के आन्दोलन से हर रोज 3500 करोड़ रूपए की हानि हो रही है। तभी एसोचैम ने आग्रह किया था कि केंद्र सरकार और किसान संगठन नए कृषि कानूनों को लेकर अपना गतिरोध जल्दी दूर करें।
इस वर्ष सीएआईटी के अनुसार यह हानि 60 हजार करोड़ हो गयी है।
बिगड़ा सामाजिक तानाबाना
आर्थिक हानि से तो एक न एक दिन उबरा जा सकता है, परन्तु इस आन्दोलन के बहाने जिस प्रकार सामाजिक तानाबाना तोड़ने का प्रयास किया गया और जिस प्रकार हिन्दुओं के विरुद्ध सिखों में घृणा भरी गयी, और उन्हें हिन्दुओं से काटकर अलग करने का कुप्रयास किया गया, उसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी? इस आन्दोलन को सिख आन्दोलन और हिन्दुओं के खिलाफ आन्दोलन कहा जाने लगा था। सभी को याद होगा कि कैसे क्रिकेटर युवराज के पिता ने हिन्दुओं पर विवादित टिप्पणी की थी, कि हिन्दू गद्दार हैं और इन्होनें सौ साल मुगलों की गुलामी की। और फिर उन्होंने महिलाओं को लेकर भी विवादास्पद बयान दिया था।
इतना ही नहीं इसे इस हद तक सिख आन्दोलन बता दिया गया कि अकाली दल की सांसद हरसिमरन जीत कौर ने तो संसद में यह तक कहा कि उनके गुरु ने जनेऊ और सिन्दूर बचाने के लिए बलिदान दिया था।
मजे की बात यही है कि यह तो बात हर कोई कहता है कि हिन्दुओं के जनेऊ बचाने के लिए सिख गुरुओं ने बलिदान दिया,परन्तु उन गुरुओं को बचाने के लिए कितने हिन्दुओं ने अपना बलिदान दिया, उस विषय में कोई बात नहीं करता!
यह सत्य है कि सिख गुरुओं ने मुगलों का विरोध किया था, परन्तु दो गुरुओं, पांचवें गुरु अर्जन देव एवं नौवें गुरु तेगबहादुर सिंह के अतिरिक्त किसी गुरु का वध मुगलों ने नहीं किया। जहांगीर की आत्मकथा के अनुसार जहाँगीर इस बात को लेकर गुस्सा था कि गुरु अर्जन देव ने उसके पुत्र खुसरो का साथ दिया था। चूंकि मुगल वंश में गद्दी हमेशा ही अपने भाइयों और पिता के खून से लाल होकर मिली थी तो उसमें जहांगीर भी कुछ अलग नहीं था। जहांगीर की अय्याशियों से उसके पिता खुश नहीं थे और वह जहाँगीर के बेटे खुसरो को अधिक पसंद करते थे, खुसरो की सहायता गुरु अर्जन देव ने की थी इसलिए जहाँगीर उनसे नाराज़ था और फिर उसने गुरु अर्जन देव को यातना देकर मृत्यु के घाट उतार दिया।
जब आगे हम नौवें गुरु, श्रद्धेय गुरु तेग बहादुर सिंह के जीवन के विषय में जानते हैं तो ज्ञात होता है कि उन्होंने मुग़लों का विरोध करते हुए प्राणों की आहुति दे दी थी। यह कदम धार्मिक समाज एवं मानवता के लिए उठाये गए सबसे बड़े क़दमों में से एक है। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि जब गुरु तेग बहादुर अपने प्राणों का बलिदान देने की प्रतीक्षा में थे, तो उससे पहले तीन ब्राहमण युवक असहनीय यातनाओं का सामना कर अपना सर्वोच्च बलिदान दे चुके थे।
दीवान मती दास और सती दास और दयाला तीनों ही ब्राह्मण जाति के थे अर्थात हिन्दू थे। सती दास को रुई में लपेट कर जिंदा जला दिया गया तो वहीं दयाला को पानी में उबाल कर मारा गया था। अर्थात जब गुरु तेग बहादुर सिंह अपना सर्वोच्च बलिदान दे रहे थे, तो उनके साथ तीन ब्राह्मण भी अपना बलिदान दे चुके थे।
इस आन्दोलन के बहाने हिन्दुओं को नीचा दिखाने के हर रोज नए तरीके खोजे गए, कभी टिकैत ने कहा कि मंदिरों का ही हिसाब होगा!
राकेश टिकैत ही थे जिन्होनें कहा था कि ब्राहमण सुधर जाएं और फिर कहा था कि इलाज इनका सबका होगा, इनकी सबकी लिस्ट बनेगी!
ब्राह्मणों को चुनमंगा कहा गया और कई ऐसी क्लब हाउस चर्चाएँ भी सामने आईं, जिनमें हिन्दुओं के विरुद्ध अपशब्द या अपमानजनक शब्द प्रयोग किए गए थे।
कोरोना संक्रमण का कारण बने
इस बात को किसी भी देशवासी को नहीं भूलना चाहिए कि जब पूरा देश कोरोना की दूसरी लहर का सामना कर रहा था, हर रोज न जाने कितने लोग अपने लोगों को खो रहे थे, उस दौरान भी आन्दोलन चलता रहा। इतना ही नहीं न जाने कितने किसानों ने धरनास्थल पर ही दम तोड़ दिया था, और हरियाणा के कई गाँव इसके कारण कोरोना की जद में आ गए थे, परन्तु महामारी में भी यह आन्दोलन चलता रहा था।
लेखकीय टिप्पणी
सामाजिक और आर्थिक हानि को परे भी यदि कर दिया जाए तो भी यह आन्दोलन सफल आन्दोलन नहीं कहा जा सकता है। इस पूरे एक साल से चले आन्दोलन में अंत में छला गया है वह साधारण व्यक्ति जो कानून का पालन करता है, संसद को सर्वोच्च मानता है और साथ ही जो अपनी मांगों के लिए कुछ भी ऐसा नहीं करता है, जिससे भारत की आत्मा को चोट लगे।
जब वह देखता है कि किसान आन्दोलन के नाम पर हिन्दू धर्म को गाली दी जा रही है, लाल किले पर तिरंगे का अपमान किया जा रहा है और अनगिनत गलत कार्य इस आन्दोलन के नाम पर किए जा रहे हैं और उच्चतम न्यायालय तक इस पर मौन है! वह तक यह नहीं कह रहा है कि जो हो रहा है वह गलत हो रहा है!
इस आन्दोलन से क्या छोटे किसान की स्थिति सुधरी? क्या इस आन्दोलन से बिचौलिए समाप्त हुए? इन दोनों में से कुछ नहीं हुआ, फिर केवल कानून वापस करवाना ही कौन सी जीत हुई, वह भी वह कानून जिन पर न्यायालय ने पहले ही रोक लगा रखी थी?