दशहरा बीत चुका है और माँ की प्रतिमाओं का विसर्जन हो चुका है। माँ अपने भक्तों को शक्ति देती हैं, एवं इन नौ दिनों में तो जैसे वह स्वयं यही आश्वासन देने आती हैं कि माँ अपने भक्तों के साथ हमेशा रहेंगी। बंगाल की दुर्गापूजा अपनी सुन्दर प्रतिमाओं के लिए प्रख्यात है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से जब से कथित सेक्युलरिज्म अपने चरम पर है, और थीम आधारित पंडाल बनने लगे हैं, तब से माँ के पंडालों के बहाने माँ का अपमान तो दिखाई देता ही है, साथ ही माँ का बंगाली रूप, शेष भारत से अलग करने का भी षड्यंत्र जोर पकड लेता है।
पिछले वर्ष ही कलकत्ते में किसान आन्दोलन की थीम दिखाते हुए माँ का पंडाल ऐसा बनाया था, जहाँ पर जूते ही जूते थे।
हालांकि इस बात को लेकर यह सफाई दी गयी थी कि इस पंडाल में चूंकि किसान आन्दोलन की थीम थी, तो इसलिए यह किया था। किसान आन्दोलन की थीम में जूतों से पंडाल को सजाना कहाँ तक ठीक था, यह उत्तर पिछले वर्ष भी नहीं मिला था, हां विरोध करने वालों को अवश्य भाजपाई ठहरा दिया गया था।
इस वर्ष फिर से कथित सेक्युलरिज्म एवं अलग दिखने तथा शेष भारत को नीचा दिखाने के लिए माँ के पंडालों के साथ खेल किया गया। इनमें जो सबसे आपत्तिजनक था, वह था माँ को सेक्स वर्कर की थीम पर दिखाना। सेक्स वर्कर अथवा यौन कर्मी, इस देश की क्या पूरी दुनिया की ऐसी सच्चाई हैं, जिनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। उनके जीवन में समस्याएं होती हैं, उनके जीवन में तमाम ऐसे दर्द और पीड़ा होती हैं, जिन्हें कथित सभ्य समाज कभी भी नहीं समझ सकता है। परन्तु उसके लिए कई प्रकार के कदम उठाए जाते हैं और उठाए जाते रहे हैं। परन्तु जो इस प्रकार से प्रतिमा को रखा गया है, वह अत्यंत आपत्तिजनक है।
माँ हर स्थान पर हो सकती हैं, एवं होती हैं। परन्तु जब उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं, तो उनका स्थान पवित्र बनाते हैं। माँ जूते के बीच या फिर वैश्यालय में बैठी हुई कैसी लगेंगी यह सहज समझा जा सकता है! ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि दुर्गा पूजा को जब मात्र संस्कृति ही मान लिया जाएगा और धर्म से अलग कर दिया जाएगा, तो लोग माँ की प्रतिमा को मात्र सांस्कृतिक एवं कलात्मक प्रयोगों के लिए ही प्रयोग करेंगे। जब कहा जाता है कि यह तो यहाँ की संस्कृति है और संस्कृति को बहुत चुपके से धर्म से पृथक कर दिया जाता है, तभी प्रभु श्री राम को चमड़े के सैंडल पहनाने का कुप्रयास किया जाता है, तभी माँ को पंडाल में कभी जूते तो कभी वैश्यालय में बैठा दिया जाता है।
यौनकर्मियों के जीवन को इस प्रकार से दिखाए जाने से कैसी जागरूकता दिखाई देगी, यह समझ नहीं आ रहा है? यह कैसा परिचय है? यह प्रश्न बार बार उठेगा कि परिचय की यह कैसी अवधारणा है?
क्या यौन कर्मियों की असहायता को यहाँ पर बेचा जा रहा है? यह देखने में बहुत ही अजीब लगता है कि कैसे एक समाज जिसके लिए माँ शक्ति का स्रोत है, वह माँ के साथ ऐसे अजीब कलात्मक प्रयोग कर रहा है? माँ कब से कलात्मक प्रयोगों का माध्यम हो गयी हैं?
जब धर्म को मिथक बना दिया जाता है, तभी देवों एवं आराध्यों के साथ किए गए समस्त प्रयोग ऐसे लगते हैं जैसे कि बहुत बड़ी क्रांति हो गयी हो एवं सेक्युलर नेता इसे लेकर बहुत ही उत्साहित रहते हैं। नवपाड़ा दबाभई संघ पूजा समिति के इस पंडाल का उद्घाटन करते हुए तृणमूल कांग्रेस के नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा था कि उनके लिए यह बहुत ही गर्व का विषय है कि वह ऐसे पंडाल का उदघाटन कर रहे हैं!”
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए कांसेप्ट एवं थीम डिज़ाईनर संदीप मुखर्जी ने यौन कर्मियों के कार्य पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि यौन कर्मियों के जीवन के प्रति वह दृष्टिकोण बदलना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि “यह भी एक पेशा है, मगर क्या आम लोगों के लिए भी यह एक पेशा है? हम कह सकते हैं कि हम किस पेशे में हैं, मगर क्या यह कह सकते हैं? हम उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलना चाहते हैं!”
मगर यहाँ पर एक बात को समझने की आवश्यकता है कि यह कार्य हो सकता है कि पेशा हो, परन्तु यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि इस पेशे का सामान्यीकरण करना कहीं न कहीं समाज के लिए अंत्यंत हानिकारक तब तक है जब तक देह के प्रति दृष्टिकोण नहीं बदलता! यदि के पेशे का सामान्यीकरण किया गया तो समाज की लडकियों को इस पेशे की ओर जाने में बहुत अधिक समय नहीं लगेगा।
उच्चतम न्यायालय की ओर से भी यही कहा गया था कि स्वैच्छिक रूप से यदि कोई महिला कर रही है तो वह अपराध नहीं है, तथा वैश्यालय चलाना गैरकानूनी है।
अत: उच्चतम न्यायालय की ओर से भी वैश्यालय को, जिसमें माता को बैठा हुआ दिखाया गया था, उसे मान्यता नहीं दी गयी थी। और समाज का दृष्टिकोण कभी भी पीड़ित महिला के प्रति गलत होता ही नहीं है, जिन्हें जाल में फंसा लिया जाता है। समाज में ऐसी महिलाओं के लिए कई कदम उठाए जाते हैं, जिनसे वह एक नई दुनिया आरम्भ कर सकें, तथा जो स्वैच्छिक रूप से यह करती हैं, उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण कभी भी अपमानित करने वाला नहीं होता है! इसलिए यह बात ही नहीं उठती है कि वह अपना पेशा नहीं बता सकती हैं।
जो स्वेच्छा से इस पेशे में है, उसे लजाने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि फिर ग्राहक और बाजार का रिश्ता है और जो पीड़ित है, वह हर स्थिति में बाहर आने का प्रयास करती है, क्योंकि न्यायालय तक उसके साथ हैं। इसलिए यह कहना कि ऐसा पंडाल बहुत बड़ी क्रांति है, अपने आप में बहुत बड़ी बेवकूफी है!
यह पेशा होते हुए भी साधारण पेशे जैसा नहीं है, इसे हमेशा ध्यान में रखना होगा!
हाँ, ऐसी थीम रखकर एवं अनुमति देकर कुछ लोगों ने अपना बौद्धिक स्तर अवश्य प्रदर्शित कर दिया है, कि वह कितना छिछला एवं उथला सोचते हैं!
“दुर्गा पूजा” मात्र संस्कृति नहीं है, बल्कि यह धार्मिक संस्कृति है, यह पूरी तरह से धार्मिक है, एवं धर्म पर तभी कलात्मक प्रयोग किए जा सकते हैं, जब भक्ति उसका आधार हो! बिना भक्ति के कला व्यर्थ है एवं धार्मिक प्रतीकों के साथ प्रयोग मात्र हिन्दू धर्म पर आघात हैं, शेष कुछ नहीं!