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Friday, March 29, 2024

सरकार का विरोध, विचार का विरोध या देश का विरोध?

भारत के भगौड़े अपराधी नीरव मोदी के प्रत्यर्पण के लिए यूके न्यायालय ने मार्ग स्पष्ट कर दिया है एवं नीरव मोदी द्वारा भारत सरकार के प्रत्यर्पण अनुरोध को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार कर दिया है। जहां एक ओर यह भारत सरकार की विजय है, क्योंकि वह 14,000 करोड़ के पीएनबी घोटाले का आरोपी है, अब उन सभी लोगों को न्याय मिलने की आस जगी है, जो इसकी ठगी का शिकार हुए हैं। परन्तु यूके के न्यायाधीश की ओर से जो निर्णय आया है, वह अत्यंत विचार करने योग्य है। इस निर्णय का विश्लेषण करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें किसी और के नहीं अपितु हमारे ही देश के न्यायाधीश रहे जस्टिस काटजू के सम्बन्ध में टिप्पणी की गयी है।

नीरव मोदी यहाँ से घोटाला करके भागा, यह सभी को ज्ञात है, परन्तु यह बहुत ही कम लोगों को ज्ञात होगा कि नीरव मोदी का पक्ष किस किसने लिया था एवं क्या क्या दलीलें प्रस्तुत की गई थीं? नीरव मोदी के विरुद्ध निर्णय देते हुए यूके न्यायालय ने पूर्व न्यायाधीश काटजू पर अत्यंत गंभीर टिप्पणी की हैं। इसीके साथ न्यायालय ने पूर्व न्यायाधीश एवं वर्तमान में कांग्रेस के नेता अभय थिप्से पर भी टिप्पणी की हैं। 

(चित्र साभार: Bar Bench)

यह देखना अत्यंत रोचक है कि जहाँ एक ओर भारत का प्रमुख विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार पर बार बार नीरव मोदी को भगाने का आरोप लगाता रहता है तो वहीं उसीके नेता नीरव मोदी को बचा रहे हैं। और यही बात नीरव मोदी के प्रत्यर्पण निर्णय में यूके के न्यायालय द्वारा कही गयी हैं।

इसमें कहा गया है कि “भारत में नीरव मोदी का यह मामला अत्यंत हाई प्रोफाइल मामला है और मुझे इस विषय में तनिक भी संदेह नहीं है कि एक पूर्व उच्च न्यायालय न्यायाधीश होने के नाते जस्टिस थिप्से ने अपने समय में कई हाई प्रोफाइल मामलों को देखा होगा।  उन्होंने इस मामले में भी इसी आलोक में प्रवेश किया था, जिससे वह देख सकें कि भारत में इस मामले को कैसे देखा जाएगा और इस पर कितना ध्यान दिया जाएगा। यह निश्चित है कि उन्हें यह ज्ञात था कि कांग्रेस पार्टी के साथ उनकी सम्बद्धता भी इससे प्रभावित हो सकती है। 20 दिसंबर 2019 और 29 जून 2020 की उनकी रिपोर्ट की जांच करने पर यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने कभी भी रिपोर्ट की बायोग्राफी में या फिर विशेषज्ञ के रूप में अपनी घोषणा के रूप में अपनी राजनीतिक संलग्नता का उल्लेख नहीं किया है।” 

न्यायालय की टिप्पणी यहीं तक सीमित नहीं है, आगे लिखा है “जस्टिस थिप्से ने आरम्भ में तो इन कार्यवाहियों में सबूत देने से इंकार कर दिया था परन्तु उन्होंने न्यायालय से अनुरोध किया कि वह इन समस्त कार्यवाहियों को गोपनीय रखें क्योंकि इससे भारतीय मीडिया की रूचि बढ़ेगी और यह भी हो सकता है कि भारत सरकार उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रमाणों के आधार पर उनसे राजनीतिक प्रतिशोध ले।” 

हालांकि न्यायालय ने किसी भी प्रकार की गोपनीय सुनवाई के अनुरोध को नहीं माना एवं यह कहा कि उन्हें जस्टिस थिप्से की राजनीतिक संलग्नता से कोई मतलब नहीं है एवं जब उन्होंने इस मुकदमे में प्रमाण देने के लिए अपनी सहमति दी थी, तो वह न केवल इस मुकदमें की प्रवृत्ति के विषय में परिचित होंगे बल्कि साथ ही वह कांग्रेस के साथ को लेकर भी जागरूक होंगे, जिसमें वह सार्वजनिक रूप से अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सम्मिलित हुए थे।

परन्तु इसके बाद जब मार्कंडेय काटजू की बात आती है, तो टिप्पणी और भी कठोर हैं। यह बल्कि देश के लिए अधिक लज्जा की बात हैं, क्योंकि जस्टिस काटजू ने भारत सरकार की कई पदों पर सेवा की है। वह न केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश रहे, अपितु उच्चतम न्यायालय में भी न्यायाधीश रहे एवं वहां से सेवा निवृत्ति के उपरान्त वह भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष भी रहे। (यह सब यूके के न्यायालय के भी निर्णय में लिखा हुआ है।)

जस्टिस काटजू ने नीरव मोदी को भारत न भेजे जाने को लेकर जो दलीलें दी थीं, उन पर दृष्टि डालने से हम पाएंगे कि यह देश की न्यायिक प्रणाली के प्रति अत्यंत अपमानजनक हैं, उसी प्रणाली के विरुद्ध हैं जिसका वह हिस्सा रहे थे। इसी के साथ हमारे देश की स्वायत्त संस्थाओं के प्रति भी पूरे विश्व में अविश्वास का वातावरण उत्पन्न करते हैं। 

उन्होंने जनवरी 2018 में उच्चतम न्यायालय द्वारा की गयी प्रेस कांफ्रेस का हवाला देकर यह कहा था कि अब तो भारत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भी यह मानने लगे हैं कि भारत में “लोकतंत्र खतरे में है।” काटजू ने कहा कि भारत में अब न्याय राजनीतिक हस्तक्षेपों के आधार पर दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सत्ताधारी दल अब अपने मन का निर्णय लेने के लिए अपनी मनचाही बेंच बनवाते हैं। 

इसी के साथ जस्टिस काटजू ने कहा कि भारत में 50% से अधिक न्यायाधीश भ्रष्ट हैं। 

इतना ही नहीं जस्टिस काटजू ने कहा कि चूंकि नीरव मोदी को लेकर भारतीय क़ानून मंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद ने प्रेस कांफ्रेस की है, तो नीरव मोदी के साथ राजनीतिक प्रतिशोध लिया जाएगा एवं उसके साथ मीडिया ट्रायल चलाया जाएगा और न्यायपालिका द्वारा दोषी ठहराए जाने से पहले ही उसे दोषी ठहरा दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि मीडिया ऐसा वातावरण बना देगा कि उसने कोई बहुत ही बड़ा घोटाला किया है, जबकि मुकदमा ही शुरू नहीं हुआ है।

आगे जस्टिस काटजू ने सीबीआई की विश्वसनीयता को ध्वस्त करते हुए कहा था कि “आप किसी ऐसे संस्थान से न्याय की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं, जो स्वयं ही पिंजरे में है।”

और इतना ही नहीं जस्टिस काटजू ने तो यह तक कहा कि चूंकि भारत सरकार महामारी के प्रबंधन के विषय में बुरी तरह विफल हुई है, नौकरी नहीं हैं, आर्थिक स्थितियां खराब हैं और भारत सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए केवल और केवल बलि का बकरा चाहती है, जो उसे नीरव मोदी के रूप में मिल जाएगा। इसलिए उसे भारत न भेजा जाए। जबकि आज जो एकमात्र देश पूरे विश्व में इस महामारी का उपचार लेकर आया है, वह और कोई नहीं भारत ही है, जिसके प्रयासों की सराहना विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कर चुका है।

परन्तु यूके के न्यायालय में जस्टिस काटजू द्वारा पूर्व में दिए गए वक्तव्यों पर भी बहस हुई एवं कई बार उन्हें शर्मिंदा भी होना पड़ा। जब उनके 50% न्यायाधीश भ्रष्ट हैं इस दावे की पुष्टि के लिए कहा गया तो वह पलट गए और कहा  कि चूंकि मैं स्वयं भारतीय न्यायालय में कार्य कर चुका हूँ, तो मैं अंदर की बात जानता हूँ, हो सकता है कि 50% न हों, पर हैं, और यह मेरा अनुमान है। इतना ही नहीं उन्हें उनके विवादित वक्तव्यों की भी याद दिलाई गयी जैसे “90% भारतीय मूर्ख होते हैं,” या “जिन स्त्रियों ने शादी नहीं की होती है उन्हें मनोवैज्ञानिक समस्याएं होती हैं” आदि ! 

निर्णय देते हुए न्यायालय ने कहा कि वह जस्टिस काटजू की इस तर्क को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं कि नीरव मोदी का मीडिया में चीरहरण होगा और सरकार यह जानबूझकर कराएगी। इतना ही नहीं आगे न्यायालय ने कहा कि उनके पूरे इतिहास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनके अपने राजनीतिक एजेंडा हैं।

न्यायालय ने जस्टिस काटजू की इस दलील को कि भारत में न्यायालयों पर राजनीतिक प्रभाव है, यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि जो भी कहा गया है वह मीडिया रिपोर्ट अर्थात तृतीय पक्ष की रिपोर्ट के चलते कहा गया है, तथा इनमें कोई तथ्य नहीं है। 

आगे न्यायालय ने कहा कि भारत सरकार के महाधिवक्ता (Solicitor General of India) द्वारा दी गयी दलील से सहमत हैं कि भारत एक लिखित संविधान द्वारा संचालित होने वाला देश है, तथा जिसमें न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका के मध्य शक्ति वितरण के आधार पर न्यायपालिका की स्वायत्ता सुनिश्चित है।

यह निर्णय कई प्रश्न उत्पन्न करता है, सबसे पहला कि क्या राजनीतिक एजेंडा आपको इतना विवश कर देता है कि आप अपने ही देश के संविधान के विरुद्ध दूसरे देश के न्यायालय में दलीलें दें और अपने देश की छवि को धक्का पहुंचाएं? वैसे तो यह देश स्वयं में इतना महान है कि उसकी छवि ऐसे लोगों के कुतर्कों से खराब नहीं होगी जो राजनीतिक एजेंडे या व्यक्तिगत घृणा को देश से ऊपर रखते हैं।

परन्तु यह प्रश्न तो उठता ही है कि कुछ लोग सरकार का विरोध करते करते, देश की संप्रभुता का विरोध क्यों करने लगे हैं? क्या इसलिए कि वह अपने समस्त प्रयासों के बावजूद भी इस सरकार को बनने से रोक न सके? 

जो भी हो, भारत के उच्च पदों पर आसीन रहे माननीयों का यह आचरण देश के लिए अत्यंत लज्जित करने वाला है। यह प्रश्न तो इन लोगों से पूछा ही जा सकता है कि क्या यदि आपके विचारों की सरकार नहीं आएगी तो आप देश को ही अपमानित करेंगे? या लोकतंत्र के मूल अधिकार अर्थात जनता के मत को नकारेंगे?

इस निर्णय को इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है https://www.livelaw.in/pdf_upload/goi-v-nirav-modi-judgment-final-25022021-389755.pdf 


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