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Friday, April 19, 2024

17 सितम्बर: देवशिल्पी विश्वकर्मा जी को स्मरण करने का दिन

देवशिल्पी विश्वकर्मा जयंती पूरे भारत में धूमधाम से मनाई जाती है। जहाँ जहाँ यंत्र होगा, या जहाँ जहाँ निर्माण कार्य से सम्बन्धित कुछ भी कार्य होता है या किसी भी कौशल से सम्बन्धित कार्य होता है, वहां वहां भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा की जाती है। भगवान विश्वकर्मा हर प्रकार के शिल्प के देवता हैं। उन्होंने ही द्वारका का निर्माण किया है, वह यंत्रों के देवता हैं, वह वास्तु के देवता है एवं उन्होंने हर युग में मानव को सुख सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों और शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया।

उन्होंने जो निर्माण किए, उनके द्वारा मानव समाज ने अपनी भौतिक सम्पन्नता के शिखर को स्पर्श किया। देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा प्रदत्त कलाओं के आधार पर जब तक हिन्दू समाज चलता रहा, तब तक भारत सोने की चिड़िया बना रहा, परन्तु जैसे ही श्रम को हीन समझना आरम्भ किया, तब से ही भारत के आम जनमानस में हीन भावना का विस्तार होता गया।

विश्वकर्मा जी का उल्लेख ऋग्वेद के दशम मंडल में भी प्राप्त होता है।  दशम मंडल के 81 और 82 सूक्त के देवता विश्वकर्मा हैं और उन मन्त्रों में निर्माण का ही वर्णन है।

इसी प्रकार शिव पुराण में वर्णन है कि विश्वकर्मा जी ने जनकल्याण के लिए सभी देवों के गुण सहित एक उत्कृष्ट रथ का निर्माण महादेव के लिए किया।

विश्वकर्मा जी ने ही शिव धनुष का निर्माण किया था तथा उन्होंने ही हस्तिनापुर का भी निर्माण किया था। यह विश्वकर्मा ही थे जिन पर प्रभु श्री कृष्ण ने अपनी द्वारका के निर्माण का दायित्व सौंपा था। तो यह स्पष्ट है कि हिन्दू संस्कृति में निर्माण की महत्ता थी एवं कला तथा शिल्प अपने चरम पर था, जब तक सनातनी संस्कृति में मिलावट नहीं आई।  

ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर का निर्माण भी कहा जाता है कि विश्वकर्मा जी ने कराया था। स्कन्द पुराण के अनुसार इस मंदिर में चार मूर्तियों का निर्माण विश्वकर्मा द्वारा किया गया था।

यहाँ तक कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण भी विश्वकर्मा जी ने कराया था। तथा उस क्षेत्र का नाम भी चन्द्र देव द्वारा महादेव की तपस्या के कारण प्रभास क्षेत्र पड़ा था। क्योंकि वहीं पर चन्द्र देव की प्रभा वापस आई थी। अत: महादेव ने कहा कि चूंकि चंद्रदेव की तपस्या के कारण यह लिंग स्थापित हुआ है, अत: यह लिंग चन्द्र देव के नाम से ही जाना जाएगा। यही कारण है कि उस लिंग का नाम सोमनाथ हुआ तथा महादेव के अदृश्य होने के उपरान्त चंद्रदेव ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर निर्माण का आदेश विश्वकर्मा जी को दिया। तथा उन्होंने उस मंदिर के आसपास एक नगर का भी निर्माण कराया ताकि पूजापाठ बना रहे।

यह विश्वकर्मा ही थे, जिन्होनें शिव विवाह में हिमालय के घर पर माता पार्वती एवं महादेव के विवाह हेतु मंडप का निर्माण किया था। इसी मंडप के नीचे महादेव एवं पार्वती माता ने फेरे लिए थे। अत: यह स्पष्ट होता है कि विश्वकर्मा जे शिल्प, व्यापार या कहा जाए कि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का आधार हैं क्योंकि उन्होंने अपने कौशल के माध्यम से रोजगार की अवधारणा को जन्म दिया।

उनका उदाहरण यह स्थापित करता है कि यदि व्यक्ति के भीतर कौशल ज्ञान हो तो वह हर स्थिति में प्रासंगिक हो सकता है। विश्वकर्मा हमें उस समृद्धि का बोध दिलाते हैं, जो समृद्धि ही भारत की पहचान थी। जिस समृद्धि के कारण ही भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था।  कौशल का समाज में सम्मानजनक स्थान था, परन्तु अंग्रेजों ने जबसे भारतीय कौशल के स्थान पर मशीनों के बने सामानों का प्रयोग करना आरम्भ किया, तभी से भारत पिछड़ता ही नहीं गया बल्कि गुलामी की जड़ें और तेज होती गईं।

आज भी जो व्यक्ति कौशल से सम्बन्धित कार्य करता है, वह क्रान्ति के लिए तैयार रहता है, अर्थात उसके भीतर गुलामी की भावना नहीं होती है, परन्तु यह सरकारी कर्मचारियों के साथ नहीं होता। वह सबसे पहले अपना पेट देखते हैं। जैसा तुलसीदास जी ने भी कहा है कि पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं।

विश्वकर्मा जी हिन्दुओं के भीतर उसी आत्मविश्वास को जगाने वाले हैं, जो उन्हें निरंतर सृजन का स्वप्न देते हैं। रामायण, महाभारत और वेद तथा पुरानों में सभी में विश्वकर्मा जी एवं उनके द्वारा किये गए निर्माण कार्यों का उलेख है, यह उल्लेख स्वयं के प्रति गर्व की भावना को उत्पन्न करता है तथा जिन औजारों को वामपंथ और अंग्रेजी वाली शिक्षा पिछड़ा बताकर हंसती है, उन्हीं औजारों के प्रति विश्वकर्मा आदर उत्पन्न करते हैं।

अंग्रेजी शिक्षा और वामपंथ जिस कौशल से घृणा करना सिखाता है उसी कौशल को सम्मान प्रदान करते हैं विश्वकर्मा जी। यही कारण है कि आज के दिन भारत में लगभग हर कामगार विश्वकर्मा जी की पूजा करता है। फिर चाहे वह राजमिस्त्री हो, बुनकर, कारीगर हो या फिर इंजीनियर, ड्राइवर, हार्डवेयर के क्षेत्र में कार्य करने वाला हो। वह उस शिल्प से प्रेम और आदर सिखाते हैं, जो शिल्प हमारे जीवन का तब से हिस्सा रहा है जब पूरा विश्व अँधेरे में डूबा था। और आज भी कहीं खुदाई होती है तो उसमें हिन्दू शिल्प के दर्शन होते हैं।

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