दिल्ली में मुंडका में लगी आग में 27 लोगों की मौत हुई है। मगर उस आग से कई लोगों को बचाने के लिए दो देवदूत भी आए थे, जिनकी चर्चा या तो शून्य है या न्यूनतम है! उन्होंने 50-55 लोगों की जान बचाई और वह भी तब जब उनकी अपनी जान पर ही खतरा था। उन्हें यह भी डर था कि कहीं वह भी न जल जाएं क्योंकि वहां से ऊपर से 11,000 वोल्ट का तार गुजर रहा था।
इस पर भी इन दोनों ने अपनी जान की परवाह नहीं की और कम से कम 50-55 लोगों की जान बचाई, तो वहीं फायर टेंडर डेढ़ घंटे की देरी से आई।
फिर भी न ही मीडिया में चौबीसों घंटे इसकी चर्चा है और न ही ऐसा कुछ है कि लुटियन मीडिया और कथित पत्रकारों का वर्ग भी प्रशंसा के कसीदे नहीं पढ़ रहा है और यदि पढ़ भी रहा है तो केवल नाम के साथ! दरअसल जिन्होनें यह महान कार्य किया है, वह मात्र साधारण परिवार के ही नहीं हैं बल्कि उनका सरनेम ऐसे विमर्श से परे है, जो सामाजिक न्याय की कथित परिभाषा से कहीं दूर हैं। जो उन्हें उत्पीड़क की परिभाषा में फिट कर चुका है।
उनका नाम है दयानंद तिवारी!
एएनआई के अनुसार दयानंद तिवारी ने कहा कि वह मुंडका उद्योग नगर से आ रहे थे जब उन्होंने बिल्डिंग में लगी आग को देखा, तो उन्होंने अपनी क्रेन की सहायता से 50-55 लोगों को बचाया, जिनमें अधिकाँश महिलाएं थीं।
उन्होंने यह भी कहा कि बाद में आग तेज और हो गयी और वह शेष लोगों को नहीं बचा पाए। उनका क्रेन का मालिक और सहायक भी इस बचाव अभियान के दौरान उपस्थित थे। यह बहुत ही डराने वाला दृश्य था। वहां पर फायर टेंडर डेढ़ घंटे के बाद पहुंचे थे।”
लेकिन इसके बाद भी दयानन्द तिवारी विमर्श से बाहर हैं। दयानंद तिवारी की बहादुरी पर और निस्वार्थ सेवा पर चर्चा नहीं हो रही है।
news 18 के अनुसार एक और अन्य चालक अनिल तिवारी ने बताया कि उन्होंने 50-55 लोगों को बचाया। मगर जब नीचे से शीशा फट गया तो उन्हें वहां से जाना पड़ा क्योंकि वह भी जल सकते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि कुछ लोग रस्सी से कूद रहे थे, जिन्हें उन्होंने बेल्ट दी थी। जिनमें अधिकाँश महिलाऐं थीं। उनका कहना था कि उनकी क्रेन से एक भी व्यक्ति नहीं गिरा था। और उन्होंने आराम से बैठाया था, जितना हो सका था। इतना ही नहीं उन्होंने यह तक कहा कि यदि उन्हें पता होता कि “यहां पर आग लगी तो हमारे पास कुछ और चीजें थी, जिनमें झूला था। बचाने की चीजें थी। उसको भी हम ले जाते हैं, हमसे जो मदद हो सकती थी वह हमने कर दी।”
मगर दयानंद तिवारी और अनिल तिवारी इस पूरे परिदृश्य से गायब है। क्योंकि उनके नाम में लगा सरनेम ही उनके इस अच्छे कार्य का शत्रु बन गया है। उनका सरनेम न ही गंगा-जमुनी तहजीब में और न ही “सामाजिक न्याय” द्वारा प्रदत्त परिभाषा में सटीक बैठता है, तो कैसे किया जाए!
जिस जाति का समूल नाश करने के लिए “ब्राह्मणवाद” मुर्दाबाद के नारे लगाए जाते हैं, उसमें “तिवारी” सरनेम वाला व्यक्ति अच्छा कार्य कैसे कर सकता है, यही उनकी सोच से बाहर है! यही उनकी कल्पना से बाहर का दृश्य है।
ऐसे ही राजस्थान में भी नेत्रेश शर्मा ने भी प्राणों की चिंता किये बिना बच्ची के प्राण बचाए थे
राजस्थान में भी पाठकों को स्मरण होगा कि एक तस्वीर बहुत वायरल हुई थी जिसमें एक कांस्टेबल एक बच्ची को चिपकाए हुए दंगों के बीच से निकल रहा है। और साथ ही पीछे पीछे एक महिला भी दौड़ रही है।

नेत्रेश शर्मा की यह तस्वीर वायरल होने के बाद और यह सूचना निकलकर आने के बाद कि उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए 4 लोगों की जान बचाई थी, राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने तो उन्हें हेड कांस्टेबल के पद पर प्रोन्नत कर दिया था। परन्तु मीडिया में दयानंद तिवारी की तस्वीर आने के बाद भी दिल्ली की सरकार द्वारा अभी तक किसी भी इनाम आदि की घोषणा नहीं हुई है।
वहीं सोशल मीडिया इस बात से भरा हुआ है कि यदि दयानंद तिवारी के स्थान पर कोई मुस्लिम या दलित होता तो मीडिया का दृष्टिकोण कितना अलग होता! एक यूजर ने कई समाचार शीर्षकों के साथ दिखाया:
यह ध्यान देने वाली बात है कि कुछ मीडिया ने इसे कवर तो किया कि दयानंद तिवारी और अनिल तिवारी ने लोगों की जान बचाई, परन्तु इसमें वह विमर्श नदारद था जो यह कहता कि हिन्दू होने के नाते या ब्राह्मण होने के नाते इन्होनें यह कार्य किया। इस बात पर घंटों की चर्चा गायब है कि कैसे दयानंद तिवारी और उनकी टीम ने 50-55 लोगों को बचाया। उन्हें यह संस्कार और मूल्य कहाँ से मिले? जब इन संस्कार और मूल्यों पर बात होगी तो प्रभु श्री राम या वेदों तक बात पहुंचेगी, जो लिबरल मीडिया और सामाजिक न्याय का झंडा उठाने वाले नेताओं के अनुसार झूठ हैं, मिथ्या हैं, माइथोलोजी हैं!
क्योंकि कथित समानता के विमर्श ने ब्राह्मणों को सबसे बड़ा खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया हुआ है, ऐसे में कोई तिवारी नायक कैसे हो सकता है? कोई नेत्रेश शर्मा नायक कैसे हो सकता है?
दयानन्द तिवारी या नेत्रेश शर्मा या ऐसे ही कई ब्राह्मण नायक मात्र इसी कारण मीडिया में व्यापक विमर्श में स्थान नहीं पा पाते हैं क्योंकि ब्राह्मणों को हमारी पाठ्यपुस्तकों, मिशनरी, वाम और इस्लाम पोषित विमर्श ने सबसे बड़ा खलनायक घोषित कर रखा है। जिस जनेऊ को तौल तौल कर हिन्दुओं की लाशों को गिना गया, उस जनेऊ को शोषण का प्रतीक बना दिया गया? मिशनरी, वाल और इस्लाम पोषित विमर्श के साथ जो भी इस विमर्श को आगे बढ़ाने में सम्मिलित हैं, वही दयानंद तिवारी और नेत्रेश शर्मा के सबसे बड़े खलनायक हैं!