दिल्ली में सराय काले खान में अब तो शान्ति है, परन्तु भय से भरी शान्ति है। अभी भी सुरक्षा बल वहां पर उपस्थित होंगे। मामला है हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की का। चूंकि यदि लड़का मुस्लिम होता और लड़की हिन्दू होती तो समस्या नहीं होती, हिन्दू शोर मचाकर शांत हो जाते। पर ऐसे हमला नहीं करते जैसा हमला रात में किया गया। और दलित परिवारों के घरों पर हमला किया गया, एवं जलाने के लिए गाड़ियों से पेट्रोल निकालने की भी कोशिश करने लगी।
पर समस्या यहाँ पर धर्म के अतिरिक्त कुछ और है। यह क्या समस्या है? ऊपरी तौर पर यह मामला हिन्दू मुस्लिम का है, जो प्रतीत ही हो रहा है। परन्तु जब उस लड़की के पिता की बात पढ़ते हैं तो यह दरअसल दलित जाति के प्रति मुस्लिम अशराफ जातियों की नफरत है। लड़की के पिता का कहना है कि उन्हें लड़के के हिन्दू होने से समस्या नहीं है, पर उन्हें दलित होने से समस्या है।
क्विंट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शीना के पिता मजीद का कहना है कि उनकी बेटी का प्रेम सम्बन्ध उस लड़के के साथ था। और उसने उन्हें बताया था कि वह उससे प्यार करती है, पर उन्होंने कहा कि वह उनके परिवार से नहीं है, और इसलिए हम उन्हें शादी की इजाजत नहीं दे सकते। इसके बाद बैटरी का काम करने वाले मजीद का कहना था कि “वह हमारे समाज का नहीं है कि हम दोनों की शादी करा पाएं। अगर वो हमारे समाज का भी नहीं होता, पर इस समाज का नहीं होता और दूसरे समाज का होता तो मैं हंसी खुशी कर देता। लेकिन इस समाज का है वो तो मैंने तो अपनी बेटी के सामने हाथ जोड़ लिए। हम मुस्लिम हैं और वह वाल्मीकि। अगर वह मुस्लिम नहीं भी होता तो भी कोई बाद नहीं होती, पर वह वाल्मीकि नहीं होता तो मैं खुशी खुशी शादी कर देता।”
आखिर मजीद के कहने का मतलब क्या है? क्या उनका कहना यह है कि अगर वह ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य होता तो वह शादी कर देते? मजीद का कहना है कि उन्हें वाल्मीकियों से समस्या नहीं है, पर वह अपनी बेटी नहीं दे सकते।
यही कारण था कि जो वीडियो वाल्मीकि परिवार की स्त्रियों का आया है, उसमे वह स्पष्ट कह रही हैं कि उन पर जातिगत टिप्पणियाँ की गईं, और उन्हें चूड़ा आदि कहकर संबोधित किया गया। जबकि यह कहा जाता है कि इस्लाम में जाति गत बंधन नहीं है, जातिगत बुराइयां और विभाजन नहीं हैं। परन्तु क्या यह सही है? क्या यह सही है कि इस्लाम में जातियाँ नहीं हैं? इसके उत्तर वैसे तो इन्टरनेट पर काफी स्थानों पर मिल जाएँगे, पर ट्विटर पर पसमांदा मुसलमान @JaiPasmanda नामक हैंडल है, जो उच्च अशराफ जातियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों और ज्यादितियों के विषय में काफी जानकारी देता है।
दिनांक 20 मार्च को उन्होंने एक घटना को ट्वीट किया था किसी हिंदु भाई ने पसमांदा के मस्जिद में ताला नही लटकाया बल्कि अशराफ़ मुसलमानो (सवर्ण मुसलमानो) ने पसमांदा मुसलमान के मस्जिद में ताला लगाया, यदि यही काम हिंदु भाईयो ने किया होता तो अशराफ मुसलमान पुरी दुनियां को बताता की भारत के मुसलमान और ईस्लाम ख़तरे में है।
किसी हिंदु भाई ने पसमांदा के मस्जिद में ताला नही लटकाया बल्कि अशराफ़ मुसलमानो (सवर्ण मुसलमानो) ने पसमांदा मुसलमान के मस्जिद में ताला लगाया, यदि यही काम हिंदु भाईयो ने किया होता तो अशराफ मुसलमान पुरी दुनियां को बताता की भारत के मुसलमान और ईस्लाम ख़तरे में है। pic.twitter.com/O1qAC9sk1d
— पसमांदा मुसलमान (@JaiPasmanda) March 20, 2021
वह स्पष्ट लिखते हैं कि अशरफ मुसलमानों ने पसमांदा मुसलमानों के दिमाग में यही डाल रखा है कि अशरफ का विरोध माने इस्लाम और अल्लाह का विरोध और यही कारण है कि जहाँ भी अशरफ उन्हें वोट देने के लिए कहते हैं, वह वहीं वोट दे आते हैं।
इसी प्रकार एक और हैंडल है फ़याज़ अहमद फैज़ का जिसमें वह कर्नाटक का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “सैयद और शेख दोनों ही लदफ, नदफ और पिंजरा जैसे मुस्लिम उप समूहों के घरों से भोजन नहीं खाते हैं, और यह तीनों ही दलित मूल के मुस्लिम हैं।
दलित मूल से नफरत के चलते ही मजीद जैसे अशरफ मुस्लिम उस वाल्मीकि परिवार से नफरत करते हैं और उन पर जातिगत टिप्पणी करते हैं। जैसा वह खुद ही स्पष्ट करते हैं कि वाल्मीकियों का लेवल अलग होता है। अशरफ जाति के लोग अधिकतर भू स्वामी और नागरिक एवं धार्मिक नेता होते हैं और उनका वर्चस्व मुस्लिम समाज पर होता है।
‘Caste Stratification Among Muslims and Status of Muslim Fishermen Community of Cachar’ (कचर में मुस्लिम मछुआरा समुदाय की स्थिति और मुस्लिमों के मध्य जाति वर्गीकरण) नामक पेपर में विज्ञान एवं तकनीकी विश्वविद्यालय मेघालय में समाजशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर महमुदुल हसन लस्कर ने लिखा है कि यद्यपि इस्लाम के समानता के सिद्धांत ने निम्न जातियों के हिन्दुओं को आकर्षित किया पर वह उन्हें सम्मानजनक स्थिति देने में विफल रहे और विदेशी मूल के मुस्लिमों और यहाँ पर परिवर्तित हुए मुस्लिमों के मध्य अंतर हो गया। जो भी स्थानीय लोग मुस्लिम बने, उन्होंने अपना वही पेशा जारी रखा और इस प्रकार उनकी स्थिति में मुस्लिम बनने के बाद भी परिवर्तन नहीं हुआ।
उच्च जाति के मुस्लिमों अर्थात अशरफ में वाल्मीकि एवं खुद के पसमांदा समूह के प्रति नफरत है।
अत: सराय काले खान का मामला जितना हिन्दू मुस्लिम का है, उतना ही जातिगत भी है, यह बताने के लिए है कि यह दुष्प्रचार खूब किया जाता रहा हो कि मुस्लिमों में जातिप्रथा नहीं होती, पूरी तरफ मिथ्या है। और लगभग हर घटना पर उच्च जातियों की नफरत झलक ही जाती है।
और दुर्भाग्य यह है कि अशरफ के नियंत्रण में एकदम बंधा हुआ हमारा मीडिया भी यह नहीं मांग करता कि दलितों का जीवन जरूरी है अर्थात Dalit lives matters। हाँ यदि अपराधी हिन्दू और वह भी ब्राह्मण होता तो यह अब तक ट्रेंड करने लगा।
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