इन दिनों हिन्दुओं पर धार्मिक आक्रमण हो रहे हैं और इन धार्मिक आक्रमणों की आड़ यह कहकर ली जा रही है कि यह धर्म पर नहीं हैं, हम किसी धर्म के विरुद्ध नहीं हैं बल्कि हम बदलती परिस्थितियों के अनुसार कदम उठाना चाह रहे हैं। जैसे अभी पटाखों को लेकर बहस चल रही है। उच्चतम न्यायालय बार बार अलग अलग निर्णय दे रहे हैं, तो राज्य सरकारें एवं राज्य उच्च न्यायालय अपने अलग कदम उठा रहे हैं।
उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रतिबन्ध मात्र उन पटाखों पर है जिनमें बेरियम साल्ट है, और शेष पटाखों पर नहीं। फिर भी कई राज्यों ने सभी पटाखों को प्रतिबंधित कर दिया है:
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्या कारण है कि हिन्दू धर्म को हर कोई कुछ भी कह लेता है और फिर किसी रोशनी अली की याचिका पर न्यायालय हिन्दुओं के त्यौहार पर अपने दिशानिर्देश थोपने लगते हैं। पर ऐसा वह किसी और के साथ नहीं करते। आखिर क्यों? क्या कारण है कि हिन्दुओं की आस्था के साथ खेल कर दिया जाता है और इस्लाम और ईसाई अर्थात अब्राह्मिक पन्थ अनछुए रहते हैं। यह प्रश्न बार बार उठता है।
अभी हाल ही में हमने देखा था कि कैसे सिंघु बॉर्डर पर एक व्यक्ति की हत्या निहंगों ने इसलिए कर दी थी क्योंकि उसने किसी ग्रन्थ का अपमान कर दिया था। परन्तु हिन्दुओं के ग्रंथों का अपमान तो रोज होता है, मनु स्मृति जलाई जाती है। मात्र जलाई ही नहीं जाती है बल्कि जलाने वालों को क्रांतिकारी एवं युग परिवर्तनकारी भी माना जाता है। हमारे आराध्य प्रभु श्री राम पर हर प्रकार से आक्षेप लगाए जाते हैं, प्रभु श्री कृष्ण, जो स्वयं विष्णु हैं, जो इस सृष्टि के संचालक हैं, उन्हें सड़क के किनारे का रोमियो बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। और इस महादेव को या तो नशेड़ी या फिर जोरू का गुलाम कह दिया जाता है! क्यों?
क्या कारण है कि कोई मुस्लिम महिला हमारी सीता मैया की पीड़ा पर सौ सौ आंसू बहा लेती है, पर अपने ही मजहब की मजहबी औरतों या कहें आयशा की बात नहीं करती? तीन तलाक पर आंसू नहीं बहाती? हलाला पर बात नहीं करती बल्कि हिन्दू स्त्रियों को अपमानित करती रहती है? ऐसा क्या कारण है कि पार्वती माता द्वारा प्रथम पूज्य गणेश जन्म पर उपहास उड़ाने वाली जमात कभी वर्जिन मदर मेरी पर चर्चा नहीं करती? कभी कोई प्रश्न नहीं करती कि कैसे कोई वर्जिन किसी बालक को जन्म दे सकती है? क्यों ईसा मसीह के दोबारा जीवित होने पर कोई बात नहीं होती?
आखिर ऐसा क्या है कि अब्राह्मिक पंथों को छोड़ दिया गया है और सनातनी परम्पराओं एवं हिन्दू देवी देवताओं को अपशब्द कहना और अपमान करना सहज है, एवं जब हिन्दू समाज उसका विरोध करता है तो हिन्दुओं को ही पिछड़ा कहा जाता है! विशेषकर अकादमिक जगत में महर्षि वाल्मीकि की रामायण से लेकर तुलसीदास जी की रामचरित मानस पर शोध हो जाते हैं, राम जी और सीता जी के सम्बन्धों पर चर्चा होती है और साथ ही प्रभु श्री राम को स्त्री विरोधी प्रमाणित कर दिया जाता है।
राम, जो स्वयं में धर्म हैं, प्रभु श्री राम जो धर्म के जीवंत उदाहरण हैं, उन्हें न जाने किन किन नामों से पुकारा जाता है, सीता जो स्वयं में शक्ति हैं, उन्हें अबला बनाकर अकादमिक विमर्श में सम्मिलित किया जाने लगा? ऐसा क्यों हुआ? प्रभु श्री राम जिनके कारण पूरा हिन्दू समाज अन्याय का विरोध करना सीखता था, मूल्यों को अपनी धरोहर समझता था, उन प्रभु श्री राम की जलसमाधि को प्रभु श्री राम की आत्महत्या के रूप में अकादमिक विमर्श में सम्मिलित किया जाने लगा।
बिना रामायण और महाभारत पढ़े साहित्य में एक ऐसा विमर्श पैदा हो गया, जिसमें असत्य ही असत्य सम्मिलित था। रामायण में अहिल्या सन्दर्भ के नाम पर समस्त हिन्दू पुरुषों को स्त्री विरोधी प्रमाणित किया गया। जितना बड़ा खेल हिन्दू धर्म के साथ खेला गया, और चरण दर चरण उसे समाप्त करने का कुप्रयास अभी तक किया जा रहा है, वह संभवतया किसी के भी साथ नहीं हुआ होगा।
राम और कृष्ण को मात्र संस्कृति ही बता देने का षड्यंत्र
वैसे तो इस षड्यंत के कई चरण हो सकते हैं और हैं भी। परन्तु अकादमिक जगत में शोध के लिए जो विषय चुने जाते हैं, उनमें सहज रूप से इस्लाम, ईसाइयत या किसी और पन्थ या मजहब के संस्थापकों के जीवन पर कोई विश्लेषण नहीं होता है, परन्तु राम, कृष्ण आदि के विषय में हम विश्लेषण करते हैं, हम महिषासुर और मैकासुर के विषय में बात करते हुए माँ दुर्गा को वैश्या तक सुनते हैं। ऐसा क्यों? लोग कई कारण कह सकते हैं, कई बातें बता सकते हैं। परन्तु यदि उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय पर हम गौर करेंगे तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
उच्चतम न्यायालय ने कई वर्ष पूर्व एक निर्णय दिया था कि हिंदुत्व एक जीवन शैली का नाम है। चूंकि वह धर्म की स्थापित परिभाषा में फिट नहीं बैठता है, इसलिए हिन्दू धर्म को परिभाषित करना कठिन है। उसमें एक पैगम्बर का पालन नहीं है, एक विचार का पालन नहीं है, किसी विशेष देवता की पूजा नहीं है। अत: हिन्दू अर्थात जीवन जीने की एक पद्धति!
पश्चिम से आई रिलिजन की परिभाषा में, हम तीन मुख्य बातों को देखते हैं:
a. belief in one god
b. belief in linear history
c. belief in a sacred scripture- the book
अर्थात एक भगवान में विश्वास, एक रेखीय या लाइनर इतिहास में विश्वास और एक पवित्र ग्रन्थ में विश्वास! एवं समस्त विमर्श इसी के आसपास बुने गए। परन्तु चूंकि ऐसा हिन्दुओं के साथ नहीं था, बल्कि विमर्श की एक धारा थी, विज्ञान से लेकर तत्व ज्ञान तक, प्रेम से लेकर काम तक, न्याय से लेकर कर्तव्य तक सभी के तमाम विमर्श सम्मिलित थे। अत: इसे संस्कृति कह दिया गया, जो मूलत: एक धार्मिक संस्कृति थी, हिन्दू संस्कृति थी।
इससे पूर्व हिन्दुओं से प्रगतिशीलता के नाम पर प्रभु श्री राम और एवं कृष्ण तथा महादेव आदि को संस्कृति के नाम पर छीन लिया गया था। हिन्दुओं में किसी एक आसमानी किताब का न होना ही अर्थात हिन्दू धर्म का जीवंत होना ही उसके लिए अकादमिक रूप से सबसे बड़ा अभिशाप बन गया और वामी और इस्लामी एजेंडा चलाने वालों ने शेष किताब वाले सम्प्रदायों को तो धर्म मान लिया और उनमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न करने का निर्णय लिया, परन्तु हिन्दुओं के साथ ऐसा नहीं किया।
यह कहा गया कि रामायण और महाभारत केवल हिन्दुओं के लिए नहीं लिखे गए थे, इसलिए उन पर कोई भी लिख सकता है। परन्तु यह कहने वाले यह भूलते गए और भुलवाते चले गए कि रामायण और महाभारत दोनों पर मात्र वही लिख और बोल सकते हैं, जो प्रभु श्री राम और महाराज मनु में विश्वास करते हैं। जो प्रभु श्री राम को अपना इतिहास मानते हैं।
जब बीबीसी ने हिन्दू देवियों को नग्न पेंटिंग करने के विषय में एमएफ हुसैन से पूछा था कि उन्होंने हिन्दू देवियों की ही नग्न पेंटिंग क्यों बनाईं तो एमएफ हुसैन ने कहा था कि क्योंकि कला सार्वभौमिक है। नटराज की जो छवि है, वो सिर्फ़ भारत के लिए नहीं है, सारी दुनिया के लिए है। महाभारत को सिर्फ़ संत साधुओं के लिए नहीं लिखा गया है। उस पर पूरी दुनिया का हक़ है।”
एमएफ हुसैन यह भूल गए कि हिन्दू ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान मात्र सुपात्रों के लिए है, कुपात्रों के लिए नहीं! परन्तु जिन्होनें हिन्दू धर्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को नहीं समझा उन्होंने देवियों को हिन्दू धर्म का ही कंधा लेकर नंगा चित्रित कर दिया।
क्योंकि प्रभु श्री राम एवं महादेव को मात्र संस्कृति कहकर और हिन्दुओं में एक सेट पैटर्न न होने के कारण धर्म के दायरे में न आने के कारण, यह बेहूदा बहाना मिल गया कि हिन्दू धर्म तो उदार है, वाल्मीकि से लेकर रामचरित मानस तक खूब राम कथाएँ लिखी हैं। और यही बहाना लेकर उन्होंने अकादमिक विमर्श आरम्भ किए। परन्तु यह अकादमिक विमर्श जिन लोगों ने आरम्भ किए उनके दिमाग में हिन्दुओं के प्रति घृणा भरी हुई थी और उन्होंने उस रामचरित मानस को स्त्री विरोधी ग्रन्थ प्रमाणित करने के लिए आकाश पाताल एक कर दिया, जिसके मूल में स्त्री सम्मान ही था।
अत्यंत शातिराना तरीके से पहले हिन्दुओं के भगवानों को संस्कृति बनाकर मात्र रख दिया, और उन्हें मिथकों के रूप में प्रस्तुत किया, उन्हें हमारे इतिहास से बाहर किया और फिर उसी के आधार पर क्षेपकों के माध्यम से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि हिन्दू ही पिछड़ा है क्योंकि यहाँ पर कोई कुछ कह रहा है और कोई कुछ! शास्त्रार्थ की परम्परा, जो किसी भी विचार के जीवन के लिए आवश्यक होती है, उसे ही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी दुर्बलता बनाकर प्रस्तुत किया गया, एवं पश्चिम ईसाई और इस्लामी औरतों के आधार पर स्वतंत्र हिन्दू स्त्रियों का अध्ययन किया गया।
एवं यह सब अकादमिक स्तर पर संगठित एवं सुनियोजित तरीके से किया गया। कभी भी मुसलमान या ईसाई की व्याख्या करने के लिए न्यायालय में याचिका नहीं गयी, परन्तु हिन्दू धर्म के लिए गयी, इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गयी यह परिभाषा हिन्दुओं के लिए ही घातक हो गयी है क्योंकि अभी हाल ही में तमिलनाडु में हिन्दू रिलीजियस एंड चेरिटेबल एंडोमेंट के विभाग द्वारा जब मात्र हिन्दुओं के लिए ही नियुक्ति निकलीं, तो उसका विरोध सुहैल नामक व्यक्ति ने इस आधार पर किया कि चूंकि हिन्दू का अर्थ किसी धर्म विशेष से न होकर जीवन शैली से है, तो किसी भी धर्म का व्यक्ति इसके लिए आवेदन कर सकता है!
अत: समय आ गया है कि निश्चित किया जाए कि हिन्दू और हिंदुत्व की परिभाषा न्यायालय या किसी भी ऐसी संस्था या व्यक्ति द्वारा न दी जाए जिसका विश्वास हिन्दुओं में नहीं है और जिसके लिए रिलिजन और धर्म एक समान हैं!मनोरंजन जगत में भी इस परिभाषा का प्रयोग कर किस प्रकार हिन्दू धर्म की हानि की है, इसका विश्लेषण हम अगले लेख में करेंगे!