अनुवाद एक ऐसा शब्द है, जिसे हंसकर टाल दिया जाता है, परन्तु यह अनुवाद सांस्कृतिक एवं धार्मिक सन्दर्भ में पूरी संस्कृति को नष्ट करने की शक्ति रखता है क्योंकि इससे एक संस्कृति के अवधारणात्मक शब्द विलुप्त हो जाते हैं। भारत में हिन्दुओं का समृद्ध इतिहास स्मृति से विलुप्त करने के लिए अनुवाद भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपकरण रहा है।
सांस्कृतिक अनुवाद यदि अनुवाद की दृष्टि से किया जाए तो यह दो संस्कृतियों को एक दूसरे के नज़दीक ले आता है, परन्तु यदि इसे एक संस्कृति को नीचा दिखाने के लिए किया जाता है तो विध्वंसक अनुवाद की श्रेणी में आता है। अनुवाद अध्ययन में सांस्कृतिक अनुवाद की दो श्रेणियां बताई जाती हैं, जिनमें से एक है सृजनात्मक अनुवाद और दूसरा विध्वंसात्मक अनुवाद!
प्रथम स्तर का अनुवाद होता है जब अनुवादक किसी रचना से इतना प्रभावित हो जाता है कि वह रचना का अनुवाद अपनी भाषा में करने के लिए व्यग्र हो उठता है। उसे ऐसा लगता है कि इस रचना का अनुवाद तो उसकी अपनी भाषा में होना ही चाहिए, और उसके लिए वह उस रचना को अपनी भाषा में ले आता है।
सांस्कृतिक अनुवाद तो सतत चलने वाली यात्रा है। किसी न किसी रूप में यह भारत में चलायमान रही है। रामायण सांस्कृतिक अनुवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है। कई लोक कथाएँ हैं, जो एक स्थान पर रहीं, पर समय के साथ लोक कथाओं ने भी समय के साथ नए आवरण को धारण किया। या एक क्षेत्र की लोक कथा किसी दूसरे क्षेत्र में जाकर मूल वही रही, परन्तु उसका रूप बदल गया। साहित्य की यह यात्रा स्वाभाविक थी और चलती रही एवं चलती ही रहेगी क्योंकि कथा कभी नहीं ठहरती, वह अपने वाचकों के साथ यात्रा करती रहती है।
परन्तु अंग्रेजी ने हमारे लोक को समझे बिना अनुवाद किए, संस्कृत को समझे बिना संस्कृत के अनुवाद किए! अंग्रेजी ने हिंदी या कहे हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए, हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए, हिन्दू लोक को नीचा दिखाने के लिए कई ऐसे शब्द बनाए, जिनका निर्माण उसने औपनिवेशिक मानसिकता से भरकर किया था। या कहा जाए कि अवधारणा का ही अनुवाद कर दिया तो गलत न होगा! उन्होंने संस्कृति को ही पिछड़ा बना दिया, और मनचाही तोड़फोड़ कर डाली!
इस देश में मुग़ल काल तक गाय पूजनीय मानी जाती थी। गाय को मात्र मांस किसने बनाया? और गाय को पिछड़ा किसने अनूदित किया? इसी प्रकार भारत एक व्यवसाय प्रधान एवं समृद्धि पसंद करने वाला देश था। उसे कृषि प्रधान देश किसने अनूदित कर दिया? अंग्रेजों ने पूरे देश का अपनी श्रेष्ठता बोध के चलते पिछड़ा अनुवाद किया, और जिसका नतीजा है कि आज एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी ही जड़ों से कटा हुआ है! जैसे यज्ञ को sacrifice अर्थात बलि तक सीमित कर दिया!
अनुवाद के माध्यम से एक ऐसा चश्मा दे दिया गया, जिससे हिन्दू ही अपनी संस्कृति के विरुद्ध खड़ा हो गया।
उन्होंने अपनी संस्कृति को ही अंग्रेजी के झरोखे से देखना आरम्भ कर दिया, ऐसे में एक बड़े विद्वान की यह बात याद आती है कि अंग्रेजी ने खिड़की दी, और दरवाजे छीन लिए!
हम देखते तो हैं, मगर हर बात को आज भी अंग्रेजी दृष्टि से ही! अपने लोक को देखते हैं उस दृष्टि से जो हमारे लोक को समझती ही नहीं!
हमें अपनी स्वयं की दृष्टि विकसित करनी है। जब यह हमें समझाया जा रहा था कि भारतीय स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार नहीं था, तब हमने यह नहीं पूछा कि यदि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था तो विवाह के दौरान आज भी सूर्या सावित्री के सूक्त क्यों बोले जाते हैं? सूर्या सावित्री सूर्य की पुत्री थीं जिन्होनें विवाह के उपलक्ष्य में पढ़े जाने वाले मन्त्र ऋग्वेद में लिखे।
भारतीय स्त्रियों को साड़ी के आधार पर पिछड़ा अनूदित किया गया और एक बड़े वर्ग ने मान लिया, भारत की स्त्री जब आभूषण पहनकर समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती थी, तब भी शिक्षित थी, जैसा हमने जीजाबाई, रानी लक्ष्मीबाई तक देखा है। परन्तु जब भी स्वतंत्रता के उपरान्त स्त्री को शिक्षित करने की बात की गयी तो उसमें पायल, चूड़ी आदि को पिछड़ा बताते हुए उन्हें ही तोड़ने की बात की गयी। बिना किसी कारण के चूड़ी, बिंदी, पायल आदि सभी श्रृंगार पिछड़ेपन का प्रतीक हो गए तथा हिन्दू स्त्री के समस्त वह आभूषण जिन्हें स्वयं देवियों ने धारण किया था, वह अशिक्षा के प्रतीक हो गए, जबकि विद्या की देवी सरस्वती भी विभिन्न आभूषण पहनी चित्रित हैं
यह कहना अनुचित न होगा कि हमारा संघर्ष सभ्यता के गलत अनुवाद का भी संघर्ष है
I would like to translate it in other regional languages if you permit.
All anti-Hindu tricks are happening in Modi-Bhagwat rule………..Shame!