हम लोगों ने प्राय: देखा है कि शेर आदि को पकड़ने के लिए बकरी या कोई और छोटा जानवर बांध दिया जाता था पिंजरे में। और शेर उसकी गंध लेकर सूंघते सूंघते आ जाता था। मगर क्या कभी मानव के बच्चों के साथ किया है किसी ने? यदि कोई कहे कि मगरमच्छ को पकड़ने के लिए मानव के बच्चे ही प्रयोग किए जाते थे, क्या आप सच मानेंगे?
परन्तु यह सत्य है, और यह उतना ही सत्य है जितना कोई और तथ्य। इसे करने वाले और कोई नहीं बल्कि स्वयं को इस पूरी मानवता का उद्धारक कहने वाए अंग्रेज थे। उन्हें बहुत शौक था कि उन्हें अच्छा समझा जाए और इसके लिए उन्होंने यहाँ आकर हमारे इतिहास को दोबारा लिखना शुरू किया, उन्होंने अपने गोरेपन की सफेदी में छिपा लिया सब कुछ। इतना कुछ छिपाया कि सब लोग वही देखने लगे जो वह दिखाते थे। उनके लिए काले लोग इंसान नहीं थे, खैर कैसे होते, जब उनके लिए उनकी स्त्रियाँ ही इंसान नहीं थे तो काले लोग क्यों इंसान होते!
जहाँ जहां वह गए उन्होंने स्थानीय संस्कृति को खाना शुरू किया! भारत में बहुत कुछ करने के साथ जो काले अंग्रेज बनाए वह आत्मा से आज तक गुलाम हैं। उन्होंने एजेंडा पूर्वक किए गए हिन्दुओं के ग्रंथों के भाषांतरण से हिन्दुओं को मानसिक गुलाम बनाया और एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो अभी तक काला अंग्रेज ही रहना चाहता है।
अमेरिका में उन्होंने जो किया, उसके विषय में तो इतना गुस्सा लोगों के मन में भरा है कि अभी भी वहां पर “ब्लैक लाइव्स मैटर” के अभियान चल जाते हैं, परन्तु उन्होंने अपनी गोरी त्वचा में जो कुछ छिपाया उसमें यह भी सत्य है कि वह जहां गए वहां पर गुलाम या काली चमड़ी वाले बच्चों को मगरमच्छ के शिकार के लिए इस्तेमाल करते थे। अमेरिका में 1908 में एक समाचार के अनुसार दो अश्वेत बच्चों को 25 मगरमच्छों के बीच छोड़ दिया गया है। चिड़ियाघर के मालिक को लगता था कि उसके मगरमच्छों को काले इंसानों का मांस बहुत पसंद है और उन अश्वेत लोगों को जीवन में कुछ करना तो है नहीं, अर्थात वह बेकार ही हैं।
जैसा हमने फिल्मों में देखा है कि एक बाघ को पकड़ने के लिए बकरी को पिंजरे में बांधते हैं, मगर यह गोरे लोग जिन्हें न ही इंसानियत की परवाह थी और न ही वह गोरी चमड़ी के अलावा किसी को इंसान मानते थे, अफ्रीका से लाए हुए दासों के बच्चों को, जी हाँ, इंसानी बच्चों को रस्सी से बांधते थे और फिर मगरमच्छ के आने का इंतज़ार करते थे। एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा और फिर बच्चे का रुदन और बच्चा जब मगरमच्छ के मुंह में आधा समा गया फिर मगरमच्छ को मार दिया। क्योंकि उन दिनों मगरमच्छ की खाल बहुत महंगी बिकती थी। मगरमच्छ की खाल महंगी, और इंसानों की खाल………….और जान! एकदम बेमोल!
बच्चे की पीड़ा और उसके मातापिता के दर्द के विषय में सोचकर हम सब कांप जाएंगे और हमारी रीढ़ की हड्डी में सिहरन हो उठती है, जब हम इसे पढ़ते हैं, पर गोरी चमड़ी वाले यह करते थे! जो उन्होंने किया वह उनकी आगे आने वाली पीढ़ी को याद करना ही होगा और हम जैसे मानसिक गुलामों को भी, जिन्हें उसने बाज़ार और कथित आधुनिकता के आगे बैठा दिया। हम रोज़ शिकार हो रहे हैं, क्योंकि हमें उनकी गोरी चमड़ी पर यकीन है, कि वह जो गोरे हैं, सुन्दर है, गलत थोड़े ही न हैं!
और कुछ दिन पहले तक गोरे होने के लिए फेयर एंड लवली लगा रहे थे, अभी भी कलेवर बदल कर वह उपस्थित हैं हमारे बीच। कुछ समय के मारे निरक्षर लोग इन गोरे लोगों को मालिक मानते थे और कुछ वैचारिक गुलाम थे, जो दुर्भाग्य से अभी तक वैसे ही गुलाम बने हुए हैं। वैचारिक गुलामों से अधिक बदतर स्थिति गरीब लोगों की थी। और शिकार वही होते थे! भारत में भी और भारत से बाहर के भी! विज्ञापन निकाले जाते थे!
यही वह बेचारे अनपढ़ गरीब भरोसा करके अपना बच्चा सौंप देते थे कि शाम को घर आ जाएगा। अफ़सोस कि कभी कभी वह शिकारी बच्चे को घायल भी कर देते थे, जिससे मगरमच्छ खून की गंध सूंघ कर आए! और बच्चे का दर्द आपकी कल्पना से परे है, वह घायल है, खून निकल रहा है और उसके बाद वह धूप में जंजीर में बंधा है, केवल हर आने वाले पल में अपनी मौत के इंतज़ार में!
अब इस मौत का इंतज़ार करते और अट्टाहस लगाते अंग्रेजों की कल्पना करिए, घृणा की एक तीखी लहर आपके भीतर से आकार ले लेगी! हालांकि इन शिकारियों का यह भी मानना था कि माएं अपने आप बच्चों को देती थी और कभी कभी बच्चा वापस नहीं आता था, मगर यह कोई बड़ी बात नहीं थी।
यह कार्य उन्होंने श्रीलंका में भी किया था। वर्ष 1888 में प्रकाशित अखबार द रेड क्लाउड चीफ, द हेलेना इन्डेपेंडेंट (18 अप्रेल 1890) में प्रकाशित विज्ञापन के अनुसार अंग्रेज शिकारी मगरमच्छों के शिकार के लिए जिंदा बच्चे मांग रहे हैं, जिन्हें शाम को जिंदा वापस कर दिया जाएगा। बेचारे श्रीलंका के लोगों को अंग्रेज शिकारियों पर इतना भरोसा था कि वह अपना बच्चा सौंप देते थे। बच्चा कभी वापस आता तो कभी………………
मगरमच्छ के नुकीले दांत भी अंग्रेजों के नुकीले दांतों के आगे थोथरे थे
हालांकि एक अखबार के अनुसार वह गरीब गोरों के बच्चों को भी कभी कभी प्रयोग कर लेते थे।
तो वहीं अख़बार इस बात का खंडन करते हैं कि ऐसा कुछ हुआ भी होगा! या फिर और कहते हैं कि उन दिनों कुछ ज्यादा सनसनी फैलाने के लिए ऐसे समाचार प्रकाशित हो रही थीं!
खैर, वह तो खुद को सुधारों का मसीहा अनूदित कर गए और आपको ऐसा निर्दयी जो शूद्रों के कान में पिघला सीसा डालते थे! कितनी सुघड़ता से उन्होंने अपने सारे पापों को पुण्य में अनूदित कर दिया, और आप कहते हैं अनुवाद केवल एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन मात्र है, यह अपने पापों को छिपाने का भी हथियार है। और दुसरे को पूरी तरह दबाकर नष्ट करने का हथियार भी।