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Monday, June 5, 2023

नीदरलैंड्स में किसान आन्दोलन में पुलिस ने चलाई गोली! कहाँ हैं “नो फार्मर – नो फ़ूड” कहने वाला पश्चिमी मीडिया?

भारत में किसान आन्दोलन के दौरान जिस प्रकार पश्चिमी मीडिया ने भारत सरकार के विरुद्ध अभियान चलाया था, वह अभूतपूर्व था! नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में हुए आन्दोलन में भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दूषित करने के बाद यह एक और अवसर था! इसमें हमने देखा कि कैसे अचानक से ही कई twitter हैंडल से नो फार्मर नो फ़ूड अर्थात किसान नहीं तो भोजन नहीं के नारे उभरने लगे थे!

भारत विरोधी ट्वीट्स की बाढ़ आ गयी थी और देखते ही देखते ऐसा वातावरण बन गया था कि जैसे पूरे भारत के किसान इस आन्दोलन के समर्थन में हैं, जबकि बाद में रिपोर्ट में पता चला था कि कैसे 86% किसान संगठन इन कानूनों से खुश थे!

परन्तु तब तक कानून रद्द हो चुके थे, अत: लाभ नहीं हुआ! फिर भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि क्या वास्तव में पश्चिमी मीडिया को मानवाधिकारों की इतनी चिंता है जितनी चिंता उन्हें भारत में चल रहे किसान आन्दोलन में लग रही थी? यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है कि भारत में किसान आन्दोलन की ही तर्ज पर हमने देखा था कि कनाडा में ट्रक चालकों ने आन्दोलन किया था! जिसमें अपनी बात कहने के लिए वहां के ट्रक चालकों ने शहर का उसी प्रकार घेराव किया था जैसे दिल्ली का घेराव किया गया था!

परन्तु जब उसका दमन किया जा रहा था, तो वही पश्चिमी मीडिया मानवाधिकारों पर शांत रहा, जो हर रोज भारत में सूक्ष्मदर्शी लेकर मानवाधिकार उल्लंघन खोजता रहता है! किसान आन्दोलन में हो रहे महिला शोषण पर जो पश्चिमी मीडिया मौन रहा था, वही पश्चिमी मीडिया अब एक बार फिर से अपने दोहरे चरित्र को लेकर सामने आया है, जब नीदरलैंड में किसानों का आन्दोलन चल रहा है और कहीं पर भी “नो फार्मर न फ़ूड” का नारा नहीं लग रहा है!

पीटर स्वीडन ने ट्वीट किया कि 6 जुलाई को डच पुलिस ने आन्दोलन करने वाले किसानों में से एक ऐसे किसान पर गोली चलाई जो अपना ट्रैक्टर चला रहा था:

इसी बात को लेकर एक और व्यक्ति ने ट्वीट किया कि भारत में किसान आन्दोलन के समय पश्चिमी मीडिया ने कैसे कवरेज किया था, तो वहीं नीदरलैंड्स में जो कुछ भी हो रहा है, क्या वह मानवाधिकार उल्लंघन नहीं है?

वहां पर लोगों को मारा जा रहा है, परन्तु मानवाधिकार की बात करने वाले एक भी गैर सरकारी संगठन इस समय इस पूरे आन्दोलन को कवर नहीं कर रहे हैं! वहां पर मानवाधिकार की कोई बात हो ही नहीं रही है! भारत का मीडिया भी यह बात नहीं बता रहा है कि कैसे पोलैंड, इटली और जर्मनी के भी किसान डच किसानों के साथ आकर कदमताल कर रहे हैं, और पूरे यूरोप में किसान आन्दोलन चल रहा है, परन्तु भारत का भी मीडिया इस विषय में बात नहीं कर रहा है!

नीदरलैंड के किसान आन्दोलन के लोग भी प्रश्न कर रहे हैं कि नीदरलैंड में किसान आन्दोलन, मीडिया शांत!

वहीं इटली में भी किसानों ने आन्दोलन आरम्भ कर दिया है!

वहीं लोग वीडियो साझा कर रहे हैं कि जहाँ किसान आन्दोलन कर रहे हैं, राजनेता पार्टी कर रहे हैं:

यह देखना अत्यंत हैरान करने वाला है कि कैसे पश्चिमी मीडिया के लिए मापदंड भारत के लिए अलग हैं और अपने लिए एकदम अलग! भारत में किसान आन्दोलन के दौरान न जाने कितने हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ और साथ ही आम लोग इस आन्दोलन के कारण कितने परेशान होते रहे, इन सब बातों पर ध्यान दिए बिना विदेशी एनजीओ, वहां पर आराम करते किसानों, वहां के पीजा आदि की तस्वीरें दिखा दिखाकर इस देश की आत्मा को आहत करते रहे!

विदेश से यदि किसी कार्य के लिए राशि मिल रही है, तो वह देश के भले के लिए तो होगी नहीं, यह तो निश्चित है! परन्तु भारत का लिबरल जगत उन दिनों किसान आन्दोलन में हो रहे अपराधों पर भी आँखें मूंदे था, फिर चाहे वह लड़की का बलात्कार और हत्या हो या फिर कथित बेअदबी के नाम पर हत्या या फिर आम लोगों को होने वाली परेशानी!

विदेशी मीडिया ने किसान आन्दोलन और कोरोना की दूसरी लहर के बीच भारत को बदनाम करने का हर संभव प्रयास किया, परन्तु भारत को तो बदनाम नहीं किया जा सका क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जहां एक ओर किसान आन्दोलन भी चल रहा था तो वहीं बिना पूछे कोरोना में प्राण गंवाने वाले लोगों और उनके परिवारों की तस्वीरें, रोती-बिलखती तस्वीरें बेची जा रही थीं, विदेशी मीडिया भारत की इस स्थिति को ऐसे बेच रहा था जैसे पश्चिम में कुछ हो ही नहीं रहा है!

जबकि आंकड़े कुछ और ही कह रहे थे! आंकड़ों पर बात नहीं की गयी!

औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त पश्चिम का मीडिया

भारत में किसान आन्दोलन के दौरान ग्रेटा का टूलकिट भी पकड़ा गया था, और पता चला था कि यह षड्यंत्र कितना गहरा था! परन्तु फिर भी जो पश्चिमी मीडिया था, उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति वही रहा, जो एक औपनिवेशिक मानसिकता से भरे किसी भी संस्थान का हो सकता था!

भारत को नीचा दिखाया गया, भारत को अलोकतांत्रिक देश घोषित करने का प्रयास किया गया, जबकि नागरिकता संशोधन आधिनियम एवं कृषि कानूनों के खिलाफ हुए आन्दोलनों में से एक भी आन्दोलन में सरकार ने लाठी चार्ज तक भी नहीं किया था, फिर भी यह कहकर प्रचारित किया गया कि भारत में लोगों को बोलने की आजादी नहीं है!

यह कहा गया कि भारत में आन्दोलन नहीं कर सकते!

किसान आन्दोलन के नाम पर हिन्दुओं को, भाजपा को गालियाँ पड़ती रहीं, परन्तु सरकार ने और समाज में संयम का परिचय दिया! फिर भी भारत को फासीवादी देश घोषित कर दिया गया, और वही पश्चिमी मीडिया नीदरलैंड, इटली, स्पेन आदि में हो रहे इतने विशाल प्रदर्शन पर बात भी नहीं कर रहा है?

यह पश्चिमी मीडिया के साथ भारत की लुटियन मीडिया का भी दोगला व्यवहार है, जो गोरे लोगों को अपना उद्धारक मान रहा था और गोरे लोगों के गरीब लोगों के आन्दोलन को इसलिए नहीं दिखा रहा है क्योंकि उसके गोरे मालिकों पर कोई आंच न जाए!

यूरोप में चल रहे किसान आन्दोलन के विषय में मानवाधिकार संगठनों एवं भारत के मीडिया की चुप्पी बहुत कुछ कहती है और उनकी गुलाम मानसिकता को पूरी तरह से बताती है!

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