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Wednesday, April 24, 2024

पिता, पति के रूप में पुरुष एवं न्यायालय के कुछ निर्णय

क्या फेमिनिज्म का अर्थ केवल अब पुरुष विरोध बनकर रह गया है? या फिर उसके आधार पर हिन्दू परिवार को तहस नहस करना? यह प्रश्न कुछ निर्णयों से उभर कर आया है, जिन्हें कल दो अलग अलग उच्च न्यायालयों द्वारा दिया गया है।

1- दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को बच्चों के सरनेम पर एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि कोई भी पिता अपने बच्चों को अपना सरनेम लगाने के लिए विवश नहीं कर सकता। और जस्टिस रेखा पाटिल ने कहा कि किसी भी पिता को यह अधिकार नहीं होता कि केवल उसका सरनेम ही सरनेम के स्थान पर प्रयोग किया जाएगा।

दरअसल मामला यह था कि एक व्यक्ति ने अपनी बेटी के नाम पर यह कहते हुए आपत्ति जताई कि वह उसका सरनेम प्रयोग नहीं कर रही है और अपनी माँ का सरनेम प्रयोग कर रही है। उस व्यक्ति के वकील ने दलील देते हुए यह कहा था कि चूंकि उनकी बच्ची अभी अवयस्क है और उसने अपना सरनेम अपनी माँ के कहने पर बदला है, जो अब उनसे अलग रह रही है।

हालांकि न्यायालय ने इस विषय में थोड़ी नाराजगी दिखाते हुए यह कहा कि हर बच्चे को यह अधिकार है कि वह कोई भी सरनेम प्रयोग करे और इस तरह के झगड़े हमेशा ही बच्चों के लिए हानिकारक होंगे। मगर एक जो बात न्यायालय ने कही है वह कहीं न कहीं पारिवारिक संरचना के लिए घातक है, वह यह कि एक पिता अपने बच्चे का मालिक नहीं हो सकता कि वह उसे निर्देश दे कि वह केवल उसका ही सरनेम प्रयोग करे!”

समाचार के अनुसार उस व्यक्ति ने इस कारण यह अपील की थी कि वह अपनी बच्ची के लिए यह सोचकर चिंतित था कि कहीं नाम बदलने से बीमा दावा में कोई समस्या न हो, क्योंकि जब उसने बीमा पालिसी ली थी तो वह पिता के सरनेम के साथ थी।

हो सकता है कि यह यह भविष्य की चिंता के रूप में रहा हो या फिर बच्ची के सुरक्षित भविष्य को लेकर रहा हो, इसमें पितृसत्ता जैसी कोई भी बनावटी बात नहीं नहीं दिखी जैसा कई न्यूज़ चैनल ने दावा किया। और फिर यह भी बात यहाँ पर विचारणीय है कि जैसा प्रचार किया जा रहा कि एक बेहद क्रांतिकारी निर्णय है, तो भारत में तो माँ और पिता दोनों के ही नाम से बच्चों का परिचय होने की परम्परा रही है। जैसे प्रभु श्री राम दशरथ नंदन भी कहे गए और कौशल्या नंदन भी। कृष्ण को भी देवकी नंदन और वसुदेव पुत्र दोनों के नाम से जाना गया।

जबाला के पुत्र सत्यकाम को जबाला पुत्र सत्यकाम के रूप में जाना गया। तो मात्र माता के सरनेम को प्रयोग करना कोई इतना बड़ा क्रांतिकारी निर्णय नहीं था कि इसके लिए हिन्दू धर्म को ही नीचा दिखाने का कार्य किया जाए। क्योंकि हिन्दुओं में पिता और माता दोनों का ही महत्व समान है। पिता के अधिकार और दायित्व भी वर्णित हैं एवं माता के भी। यह पिता का दायित्व है कि वह अपनी सन्तान का भविष्य सुखमय बनाने के लिए हर संभव कदम उठाए, यही कारण है कि पत्नी और बेटी के अलग हो जाने के बाद भी वह पुरुष अपनी बेटी के भविष्य के लिए चिंतित है और कहीं उसके न रहने के बाद बीमा पालिसी को भुनाने में समस्या न आए, इसलिए वह बेटी से अनुरोध कर रहा है।

यदि पिता अपनी बेटी के लिए आर्थिक रूप से भविष्य सुरक्षित करने के लिए कदम उठा रहा है तो क्या वह अपनी नाबालिग बेटी से यह अपेक्षा भी नहीं कर सकता कि वह उसका सरनेम भी लगा ले और क्या बेटी जो अपनी माँ का सरनेम लगा रही है, वह कहाँ से आया है? क्या वह उसकी माँ के पिता का नहीं है? क्या वह पितृसत्ता नहीं है?

पितृसत्ता के नाम पर पुरुषों को नीचा दिखाने की एक नई परम्परा जो आरम्भ हुई है, वह कहीं परिवार को पूरी तरह न तोड़ दे, उसका भी ध्यान रखना होगा। एक बच्ची जो खुद के विषय में अधिक सोच नहीं सकती है आखिर वह इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है कि वह अपनी माँ का सरनेम प्रयोग करेगी?

क्या उसका मस्तिष्क अपने पिता की हर पहचान मिटाने जितना परिपक्व हो गया है? या उसे कहीं से फीड किया जा रहा है? यह सब समाजके स्तर पर भी हल किया जाए तो बेहतर होगा!

2- ऐसा ही एक निर्णय केरल उच्च न्यायालय से आया जिसमें वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा पेश की गयी। केरल न्यायालय ने तलाक के विरोध में एक पति की याचिका खारिज करते हुए कहा कि एक पत्नी के शरीर को अपनी संपत्ति समझना और फिर पत्नी की इच्छा के खिलाफ उसके साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करना, वैवाहिक बलात्कार की श्रेणी में आता है।

वैवाहिक बलात्कार, शब्द स्वयं में बहुत ही घातक शब्द है, जो हिन्दू परिवार को पूरी तरह से छिन्न भिन्न कर देगा। विवाह का मुख्य उद्देश्य शारीरिक सम्बन्धों को स्थापित करना भी होता है। यदि पुरुष जोर जबरदस्ती करता है या शारीरिक हिंसा का सहारा लेता है तो उसके लिए घरेलू हिंसा अधिनियम है, जिसमें स्पष्ट है कि क़ानून यौन शोषण को यौन प्रकृति के आचरण के रूप में बताता है, जो किसी भी महिला की गरिमा को अपमानित, करता है या उल्लंघन करता है।

मगर वैवाहिक बलात्कार? ज्ञातव्य हो कि भारत इस अवधारणा पर विश्वास नहीं करता है।

केरल उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति ए मोहम्मद मुस्ताक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने यह भी कहा कि शादी और तलाक धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत होने चाहिए और देश के विवाह कानून को फिर से बनाने का समय आ गया है। उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि वैवाहिक बलात्कार को कानून मान्यता नहीं देता, परन्तु यह कारण अदालत को तलाक देने के आधार के तौर पर इसे क्रूरता मानने से नहीं रोकता है। इसलिए, हमारा विचार है कि वैवाहिक बलात्कार तलाक का दावा करने का ठोस आधार है।

किन्तु इसमें भी एक बिंदु विचारणीय है कि इस दंपत्ति का विवाह वर्ष 1995 में हुआ था और उनके दो बच्चे हैं। पारिवारिक न्यायालय ने यह पाया कि पति ने अपनी पत्नी से काफी दहेज़ लिया और पत्नी को पैसे कमाने की मशीन माना। और यह भी पाया कि पत्नी ने विवाह के लिए उत्पीड़न बर्दाश्त किया, परन्तु जब वह नहीं सह पाई तो उसने तलाक के लिए आवेदन कर दिया।

परन्तु विवाह के इतने वर्ष बाद इस आधार पर तलाक लेना कि जबरन सम्बन्ध बनाए , यह कहीं न कहीं कुछ अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है!

वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा के विषय में उच्चतम न्यायालय ने भी वर्ष 2017 में अपने एक निर्णय में कहा था कि वैवाहिक सम्बन्ध के भीतर हुए बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता है और भारत सरकार ने एफिडेविट दायर कर कहा था कि देश की सामाजिक-आर्थ‌िक परिस्थितियों के मद्देनजर वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं ठहराया जा सकता है।

हालांकि पति द्वारा हिंसा को घरेलू हिंसा की श्रेणी में लाया जा सकता है। परन्तु वैवाहिक बलात्कार जैसा कुछ भी कानूनन भारत में नहीं है और यदि ऐसा कोई भी प्रावधान आता है तो इसका दुरूपयोग दहेज़ अधिनियम जैसा नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है?

और पुरुष ही इसका शिकार नहीं बनेंगे इसकी भी क्या गारंटी है? क्या इतने कानूनों के बंधन से विवाह जैसी संस्था बेकार नहीं हो जाएगी? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है और चूंकि हिन्दू विवाह के ही मामले अधिकांश न्यायालय में जाते हैं अत: इन सभी का सर्वाधिक प्रभाव हिन्दुओं पर ही होगा क्योंकि मुस्लिम विवाह के सभी मामले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अंतर्गत ही आते हैं और यहाँ तक कि दहेज़ लेने और देने के लिए मुस्लिमों को दंड नहीं दिया जा सकता है, केवल हिन्दू और शायद सिखों पर ही यह क़ानून लागू होता है।


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