बीते दिनों हिन्दी की प्रख्यात लेखिका महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि थी। इस अवसर पर उन्हें स्मरण किया गया, एवं उनकी रचनाओं का पाठ आदि भी किया गया। महादेवी वर्मा छायावाद की मुख्य रचनाकार मानी जाती हैं। उन्होंने एक ही विधा में नहीं अपितु कविता, कहानी आदि में हिन्दी साहित्य की सेवा की है। कई कहानियां हैं, जैसे दुर्मुख खरगोश, गिल्लू, वह बच्चों एवं बड़ों सभी को ऐसे रचना संसार में ले जाती हैं, जहां पर आज के कहानीकार शायद ही पहुँच पाएं।
उनकी कविताओं में रहस्यवाद है, जो हिन्दी कविता का अभिन्न अंग रहा है। प्रकृति प्रेम भी छायावाद का अभिन्न अंग रहा है। उनकी कविताओं में प्रकृति का बाह्य एवं आतंरिक सौन्दर्य तो है ही साथ ही ऐसा आलौकिक सौन्दर्य है जो आज की कविताओं में मिलना दुर्लभ है। साथ ही उनकी रचनाओं में चेतना का भी सौन्दर्य है। उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के तुलनात्मक भाषा एवं वाड्:मय विभाग के डॉ. सुनील बाबुराव कुलकर्णी शब्द ब्रह्म पत्रिका में अपने लेख में लिखते हैं कि
सांध्यगीत के बाद दीपसशखा तक आते-आते उनके काव्य में तीन तत्वों की प्रधानता दृत्रिगोचर होती हैं- प्रकृ सतवाद, वेदनावाद, रहस्यवाद इन तीनों के सम्मिश्रण से ही उनका काव्य ओतप्रोत है। डा. रामतन भटनागर लिखते हैं , ‘‘आधुनिक काव्य में भाषा भाव का ऐसा संतुलन, ऐसा सामंजस्य, ऐसा निर्वाह, अन्यत्र नहीं मिलेगा। जहां भावना रहस्यवादी है, वहां यह संतुलन और सामंजस्य पाना और भी कठिन है। परंतु जहां रहस्यवादी भावना के साथ प्रकृति चित्र का भी मेल हो गया है वहां कवयित्रीकी कविता चित्रमय झंकार बन गयी है, वहां कल्पना के ऐसे फूल खिलते हैं, जो न इस लोक के हैं और न उस लोक के हैं।“
महादेवी वर्मा की रचनाओं में कहीं न कहीं एक अव्यक्त प्रेमी रहा। यद्यपि यह प्रेम कविता का एक तत्व होता ही है। परन्तु उनकी रचनाओं की यह एक ऐसी विशेषता रही, जिसके आधार पर उनके चरित्र पर भी बीच बीच में उंगलियाँ उठती रहीं। और ऐसा करने वाले कौन लोग थे और क्यों थे? इस पर बात करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, क्योंकि यह वही लोग हैं, जो भारतीयता की बात करने वाले लोगों को लेखक नहीं मानते हैं।
11 सितम्बर 2020 को पुस्तकनामा ब्लॉग पर महादेवी वर्मा जी की पुण्यतिथि पर एक लेख का प्रकाशन होता है कि क्या हिंदी की दीप शिखा महादेवी क्या एक मुस्लिम से प्रेम करती थीं?
यह वाक्य एक ऐसी महिला के चरित्र पर प्रहार था, जिनके निजी जीवन पर प्रश्न उठाने का साहस कोई नहीं कर पाया था और जिनकी रचनाएं बच्चे भी पढ़ते हैं, एवं उनका आदर करते हैं। क्या यह उनकी छवि को प्रभावित करने के लिए लिखा गया था? या फिर कुछ और कारण था? यह बात सभी जानते हैं कि महादेवी वर्मा जी का विवाह हुआ था और वह अपने विवाह के उपरान्त अपनी ससुराल नहीं गयी थीं। उसके कई कारण हो सकते हैं, परन्तु इस लेख में दूधनाथ सिंह की ऐसी पुस्तक जिसे महादेवी वर्मा पर लिखने वाले लेखकों में से कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है यह लिखा गया है कि “महादेवी का भी विवाह हुआ और वह मात्र मात्र 14 वर्ष की आयु में परिणय सूत्र में बंध गई थी लेकिन उन्होंने विवाह के उपरांत ही ससुराल जाने से मना कर दिया और वह आजीवन पति के साथ नही रहीं। यह उनका विद्रोही स्वरूप था। क्या यह रूप इसलिए दिखाई देता है कि उन्हें एक मुस्लिम युवक मुल्ला अब्दुर कादिर से प्रेम था और वह उनसे विवाह करना चाहती थी।“
महादेवी वर्मा जी का कितना सम्मान था, वह आज तक लोग लिखते हैं। जब से सोशल मीडिया आया है, तबसे और भी अधिक बातें लोगों के सामने आने लगी हैं, एवं यही कारण है कि अब तक जिनके हाथ में साहित्य जकड़ा था या कहें जिन्होनें एक विचार का गुलाम साहित्य को बना रखा था, उन्हें इस बात से समस्या है कि आखिर सोशल मीडिया क्यों आया है?
लेखक द्वारका नाथ पाण्डेय ने महादेवी वर्मा जी की पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए twitter पर एक थ्रेड में लिखा कि
“जब महादेवी वर्मा की कविताओं पर टिप्पणी के कारण एक मुख्यमंत्री को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। जबसे साहित्य ईनाम का तलबगार हो गया तबसे साहित्य कि धमक खत्म हो गई मगर एक दौर ऐसा था जब साहित्यकारों का इतना रुतबा था कि एक मुख्यमंत्री को साहित्यकार के अपमान पर कुर्सी छोड़नी पड़ गई थी। 10 जनवरी 1981. इस दिन राजस्थान के पहले और इकलौते दलित मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया और साहित्यकार महादेवी वर्मा दोनों एक मंच साझा कर रहे थे। मौका था राजस्थान की राजधानी जयपुर के ‘रविन्द्र मंच’ पर चल रहा लेखकों का सम्मेलन..महादेवी वर्मा इस सम्मेलन की मुख्य अतिथि थीं और अध्यक्षता कर रहे थे प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया। कार्यक्रम में मंच पर राजनेताओं सहित देश और प्रदेश के ख्यातिप्राप्त लेखक मौजूद थे। कार्यक्रम के दौरान अपना अध्यक्षीय भाषण बोलते हुए पहाड़िया ने कहा कि -“महादेवी वर्मा की कविताएं मेरे कभी समझ में नहीं आईं कि वे आखिर कहना क्या चाहती हैं? उनकी कविताएं आम लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाती हैं, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आतीं। आज का साहित्य जन-जन को समझ आए ऐसा होना चाहिए। मुख्यमंत्री द्वारा महादेवी के लेखन पर इस तरह की टिप्पणी से वहाँ मौजूद लेखकों की मंडली भड़क गई। सामने मौजूद भीड़ के लिए भी अपनी प्रिय कवियत्री के लिए मुख्यमंत्री की यह टिप्पणी असहनीय थी। लोगो मे रोष व्याप्त हो गया और पहाड़िया की शिकायत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की गई। इसके बाद महज १३ महीने के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया से इस्तीफा ले लिया गया। महादेवी पर मुख्यमंत्री पहाड़िया द्वारा की गई यह टिप्पणी मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया के साथ जीवन भर चिपकी रही। इस घटना के बाद जगन्नाथ पहाड़िया पूरे जीवन राजनीति की मुख्यधारा में आने से वंचित रह गए। आज महादेवी वर्मा और जगन्नाथ पहाड़िया दोनो इस दुनिया में नही है मगर उन दोनो की जिंदगी से जुड़ा यह किस्सा राजनीति और साहित्य के एक मंच पर आने और फिर टकराने का ऐसा उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता है। आज महादेवी वर्मा जी की पुण्यतिथि है। पुण्यतिथि पर सादर स्मरण ‘आधुनिक मीरा’
इसी ट्वीट को रीट्वीट करते हुए एक और यूजर ने लिखा कि
एक बार महादेवी वर्मा ने विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उसके बाद उन्हें प्रगतिशीलों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।
साथ ही कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले उनके किसी भी बायो स्केच में यह उल्लेख नहीं है कि उन्होंने 100 से अधिक वेद सूक्तों का हिंदी कविता में अनुवाद किया है।
यह बात चौंकाने वाली है, क्योंकि वास्तव में महादेवी वर्मा की जीवनी में कहीं भी यह बात नहीं है, उनकी “सप्तकर्णा” कृति का उल्लेख कहीं नहीं होता है, जिसमें उन्होंने वेद, रामायण, थेर गाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके 39 चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है।
साहित्यकुंज वेबसाईट पर एक लेख में प्रोफ़ेसर ऋषभदेव शर्मा ने इस रचना पर प्रकाश डाला है और लिखा है कि “आरंभ में 61 पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के संबंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है। संस्कृति और साहित्य के परस्पर संबंध की तार्किकता का प्रतिपादन करते हुए महादेवी कहती हैं कि एक विशेष भू-खण्ड में जन्म और विकास पाने वाले मानव को अपनी धरती से पार्थिव अस्तित्व ही नहीं प्राप्त होता, उसे अपने परिवेश से विशेष बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता का दाय भी अनायास उपलब्ध हो जाता है।“
इसके साथ ही इस लेख में यह तक कहा है कि “महादेवी वर्मा ने यह माना है कि साहित्य में संस्कृति की प्राचीनतम अभिव्यक्ति वेद-साहित्य के अतिरिक्त अन्य नहीं है तथा सहस्रों वर्षों के व्यवधान के उपरांत भी भारतीय चिंतन, अनुभूति, सौंदर्यबोध और आस्था में उसके चिह्न अमिट हैं। वैदिक साहित्य में जल, स्थल, अंतरिक्ष, आकाश आदि में व्याप्त शक्तियों की रूपात्मक अनुभूति और उनके रागात्मक अभिनंदन में वे काव्य और कलाओं के विकास के संकेतों को निहित मानती हैं। जैसे
रक्ताभ श्वेत अश्वों को जोते रथ में,
प्राची की तन्वी आई नभ के पथ में,
गृह गृह पावक पग पग किरणों से रंजित!
आ रही उषा ज्योतिःस्मित! (ऋग्वेद)”
और भी बहुत कुछ लिखा है और उनके द्वारा अनुवाद के उदाहरण भी दिए गए हैं:
इतना ही नहीं खोजने पर यह भी पता चलता है कि यह बात भी सत्य है कि महादेवी वर्मा ने विश्व हिन्दू परिषद की संगठनात्मक इकाई मातृशक्ति के एक सम्मलेन की अध्यक्षता की थी। विश्व हिन्दू परिषद् की वेबसाईट पर यह जानकारी प्राप्त होती है कि
मातृशक्ति विश्व हिन्दू परिषद की संगठनात्मक इकाई है, विश्व हिन्दू परिषद जैसे सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन द्वारा कार्य के संदर्भ में महिलाओं के कार्य पर विशेष ध्यान दिया गया, इसलिए 20 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी प्रन्यासी मण्डल में हो, इसका निर्णय लिया गया। परिषद की विभिन्न इकाइयों में एक महिला प्रतिनिधि रखा जावे, यह भी निर्णय लिया गया। अतः 1973 में उदयपुर के कार्यकर्ता प्रशिक्षण के बाद प्रो0 मन्दाकिनी दाणी को जो पूर्णकालिक थीं, उन्हें अखिल भारतीय मंत्री (महिला विभाग) के रूप में नियुक्त किया गया। 1975-77 तक उनके अथक परिश्रम व प्रवास से प्रान्त-प्रान्त में महिला विभाग खड़ा हो गया। 1979 के द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन, प्रयाग में 40 हजार मातृशक्ति उपस्थित थी। इस सम्मेलन की अध्यक्षता स्वनामधन्य श्रीमती महादेवी वर्मा जी ने की थी।“
यह जानकारी भी चौंकाने वाली है क्योंकि महादेवी वर्मा को हिन्दू एवं लोक संस्कृति विरोधी लेखिकाओं द्वारा बार बार एक ओर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा है कि वह भी उसी फेमिनिज्म का एक चेहरा थीं, जिसका उद्देश्य ही हिन्दू धर्म एवं हिन्दू पुरुषों का विरोध करने के साथ बुर्का, हिजाब तहजीब को बढ़ाना है। इसके साथ ही यह भी प्रश्न उठता है कि क्या महादेवी वर्मा जी की यह भारतीयता सामने न आए और उनके वह कार्य सामने न आएं जो उन्होंने भारतीय चिंतन की परम्परा में किए, कथित प्रगतिशील लेखकों द्वारा यह अफवाह फैलाई जा रही है कि क्या महादेवी वर्मा एक “मुस्लिम” युवक से प्रेम करती थीं?
क्योंकि कथित प्रगतिशील लेखन हमेशा ही लेखिकाओं को दोयम दर्जे का मानता है और प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि में औरतों में अक्ल नहीं होती है, यही कारण है कि वह उन स्त्रियों के चरित्र हनन का प्रयास करते हैं, जो एक स्वतंत्र पहचान वाली होती हैं, जिनकी पहचान में भारतीयता होती है, लोक होता है, हिन्दू विचार होते हैं!
ऐसे में यह प्रश्न बार बार उठता ही है कि क्या हिन्दुओं से अपनी घृणा के चलते वाम “प्रगतिशील” लेखक जो दरअसल एक बंद गंदे कुँए में बैठकर गंदा पानी पीकर उसी का वमन अपनी रचनाओं में करते हैं, महादेवी वर्मा जैसी स्त्री के चरित्र पर तब आक्रमण किया, जब वह उत्तर देने के लिए नहीं हैं क्योंकि यह “प्रगतीशील” जिस गंदे और कीचड़युक्त दल्दले कुँए में गर्दन तक धंसे हैं, वह यही मानते हैं कि जब किसी भी स्त्री से जीत न पाओ, तो उसके चरित्र पर आक्रमण कर दो!
क्या पुस्तकनामा ब्लॉग प्रकाशित लेख में इसी घृणा का प्रदर्शन किया गया है? जो महिला एवं हिन्दू विरोधी दोनों ही है! क्योंकि तभी देह की आजादी के बहाने कभी द्रौपदी तो कभी अन्य स्त्रियों के प्रति अपनी कुंठा का वमन करते रहते हैं!